यमदीप 

यमदीप नीरजा माधव  कृत  किन्नर केंद्रित उपन्यास है जिसमे किन्नरों की अमानवीय स्थितियों  अंकन किया गया है। जहाँ पारिवारिक दायित्वबोध अपने दायित्व से मुँह मोड़ लेते है और एक बालक को दूसरी परिस्थितियों के हवाले कर देते है। जहाँ उसे निरंतर हीनताबोध से ग्रसित होना पड़ता है। सामाजिक उपेक्षा उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित करता है। वही सामाजिक दृष्टिकोण उन्हें देह -व्यापर की और भी आकृष्ट करता है उसी के माध्यम से उनका जीवन व्यापन होता है। यमदीप उपन्यास में इन्ही विषयों को व्यावहारिक रूप से पाठक को साक्षात्कार कराता है। लेखक का शीर्षक चयन उनके शब्द कौशल का परिणाम है जहाँ वह मिथकीय ग्रंथो के अनुसार ही इसका शीर्षक यमगाथा रखते है। यम का मतलब मृत्यु के देवता यमराज से है यह चौदह माने जाते है। दीपावली के एक दिन पूर्व नरक चतुर्दशी के रात चौदह दीप जलाने का प्रचलन है जिसमे से एक दीप को किसी उपेक्षित जगह पर रखा जाता है जैसे कूड़े के ढेर पर या बाहर किसी ऐसी जगह जहाँ नजर न पड़े। किन्नरों का जीवन भी उसी दीप के सामान हो चुकी है उन्हें उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता है। अगर कोई व्यक्ति शारीरिक विकलांग हो तो परिवार वाले उसे घर से निष्काषित नहीं करते अपितु अगर कोई किन्नर जन्म ले तो वह सबसे पहले अपने पारिवारिक अवहेलना को ही सहता है। उसका निष्कासन पूर्वागमन के किये नहीं होता अपितु जीवन भर छुटकारे के लिए होता है। सामान्य लिंग जो की प्रायः सिर्फ स्त्रीलिग  और पुलिंग को ही माना जाता है इन बच्चों को थोड़ी देर कही आने में लग जाती है तो पूरा घर व्याकुल हो उठता है वह इतनी बेचैनी से काम लेते है की पूरा मोहल्ला जान जाता है माँ तुरंत विलाप करने लगती है। लेकिन वही परिवार किन्नर बच्चे को  घर से बाहर कर देते है। यह दोहरा मापदंड क्यों जबकि वह भी उसी माँ की कोख से जन्मा बच्चा है। क्या उसके जन्म लेने में उसका खुद का कोई योगदान है की वह किन्नर न जन्म ले पाए बिलकुल नहीं। फिर इसकी सजा उसे क्यों दी जाती है क्यों नहीं उसकी सजा के लिए उनके माता पिता को जिम्मेदार ठहराया जाता। क्योकि इसमें उनकी भी कोई जानकारी नहीं होती और ऐसी स्थिति में इसका भागीदार कौन होगा। इस उपन्यास में नंदरानी मुख्य नायिका के रूप में है जिसका शारीरिक विकास  होने पर स्त्रिगुण के साथ -साथ चेहरे पर बाल भी आने लगते है। इस स्थिति से घर वालो को उसके बारे में चिंता होने लगती है - 'कक्षा आठ में पहुंचते -पहुँचते उसके अन्य स्त्रियोचित्य अंगो के उभार और विकास के साथ ही चेहरे पर श्याम वर्ण के रोये भी उभरने लगते थे। सब कुछ छिपकर सामान्य जीवन जी सकने  की उसकी और माता -पिता की कल्पना चकनाचूर होने लगी थी।' उसके परिवार ने उसे पढ़ा लिखाकर एक उज्जवल भविष्य का जो ताना -बना कल्पित किया था उसके यो धराशाही होना समाज को किन्नरों के प्रति उपेक्षित बर्ताव को ही दृष्टिगत करता है।  माँ उसे कहती है की ऐसे मत चला कर नहीं तो किन्नर अपनी बस्ती में तुझे ले जायेंगे- 'तुम कैसी चलती हो ,हम लोगों की तरह चलो. हिजड़े देख लेंगे तो तुम्हे भी वही समझ लेंगे।'  एक बार जब किन्नर उसे देख लेते है तब  उसे अपने साथ ले जाने का आग्रह करते है लेकिन उसकी माँ उन्हें उन लोगों को नहीं सौपती।   
नंदरानी को समय के साथ अवहेलना का शिकार होना पड़ता है। उसके कारण घर परिवार की बदलती परिस्थितियों को भी वह गहनता से अनुभूत करती है उसे यह भी पता चलता है की उसके कारण उसकी बहन नंदिनी के विवाह में अड़चन पैदा हो रही है। उसे स्वम अपने से ग्लानि की अनुभूति  होती है और वह किन्नर की बस्ती में जाने का मन बना लेती है। नंदरानी की माँ उसे भले ही अपने बर्ताव में बदलाव की बात करती है परन्तु किन्नरों के निवेदन करने पर वह साफ मना कर देती है। नंदरानी अपने मन में चल रहे द्वन्द के कारण एक रात को  बिन बताये घर से चली जाती है। किन्नरों की बस्ती में वह  महताब से साक्षात्कार करती है और उन्ही से दीक्षा लेती है।  महताब गुरु  उसकी पुरानी  यादो को विस्मृत करने को कहते है जिस से आगामी भविष्य उसे पीछे की यादो में न समेटे अपितु  एक नए जीवन को सृजित करे।  उसके इस नए जीवन के आरम्भ करने के लिए उसका नाम भी बदल  दिया जाता है उसका नया नाम नाजबीबी  रखा जाता है। 
घर से निर्वासन के पश्चात नाजबीबी को अपने घर की याद् विचलित करती रहती है। वह अपनी यादो को विस्मृत नहीं कर पाती उसका मन अधिक खिन्न तथा निरंतर उद्वेलित रहता है। एक दिन इन्ही यादो की गुथिया उसे पुनः अपने घर फ़ोन करने पर विवश कर देती है और वह अपने घर पर फ़ोन करती है। फ़ोन भाई द्वारा उठाया जाता है और प्रयुत्तर स्वरुप यहाँ फ़ोन नहीं करने का उचित आदेश देता है। भाई द्वारा यह सुनकर की तुम्हारा इस घर से कोई सम्बन्ध नहीं है नाजबीबी क्षुब्ध होती है। मगर निराशा के साथ आशा  तब जागृत होते है जब वह फिर से फ़ोन मिलाती है और इस बार फ़ोन मक द्वारा उठाया जाता है। उसे अपनी माँ से उचित तरीके का बर्ताव करना भाव विभोर कर  देता है और वह संतुष्ट हो जाती है। समय अपने साथ हो रहे अन्याय को नाजबीबी द्वारा किन्नर दशा को दर्शाता रहता है। एक दिन माँ उसके पिता से मिलने उसके बस्ती में आती है जहाँ नाजबीबी के साथ अन्य किन्नरों के मन में भी ख़ुशी की लहार दौड़ती है। उसकी माँ उसके हल- चाल जानती है  तथा घर वापसी की बात कहती है पिता द्वारा िस्बत का विरोध होता है। माता की ममता अपने बच्चे को इस तरह देख कर क्यों नहीं विचलित होगी पर समाज की जकड़बन्दियों ने पिता के  दिए और वह उन्ही जंजीरो को दौड़ने में असक्षम हो जाते है। किसी पिता को विकलांग बच्चा होने पर वह अपनी पिता के कर्तव्य से विचलित नहीं होता परन्तु इस किन्नर होने से वह क्यों विचलित हो जाता है।-हिजड़े के बाप कहलाना न आप बर्दाश्त कर पाएंगे और न आपके परिवार के लोग। लूली -लंगड़ी होती या कानि -कातरी  होती तो भी आप इसे साथ रख सकते थे ... इसलिए इसे अब अपने हाल पर छोड़ दीजिये। आदिवासी ,अल्पसंख्यक तथा अनुसूचित जाती के लिए लोग नारे लगाने लगते है उन्हें पढ़ाने की बात करने लगते है  परन्तु उन्हें कभी किन्नरों की दशा का ज्ञान नहीं होता उनकी बुद्धि इनके प्रति मंद कैसे हो जाती है क्या ये  समाज के अंग नहीं है। जिन लोगो को हम न्याय दिला रहे है उन वर्गो के द्वारा भी क्या इन्हे उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखा जाता। समाज आज भी इनके नौकरी की बात नहीं करता छोड़ दिया है इन्हे नाचने गाने पर और मजबूर कर दिया है रत को किसी के साथ सोने पर। यह नाचना इनकी स्वेछा नहीं अपितु अपने रोजगार चलाने का एक जरिया है। जिस से यह जीवन व्यापन कर सके। इस उपन्यास में इन्ही बिंदुओं को दृष्टिगत किया गया है - 'कोई आगे नहीं आएगा की हिजड़ो को पढ़ाओ ,लिखाओ नौकरी दो ,जैसे कुछ जातियों के लिए सरकार कर रही है ,हमारे लिए वो भी नहीं। माता -पिता ,घर -परिवार सबसे छुड़ाकर इस बस्ती में नाचने गाने के लिए फेक आती है  किस्मत।'
   नाजबीबी को अपने माँ की बहुत याद आती है वह हमेशा उन्ही के बारे में सोचती रहती है। एक  बार जब वह अपनी माँ को फ़ोन करती है तब उनका फ़ोन भाभी उठाती है और बताती  है की माँ को कैंसर हो गया है वह अत्यधित इस रोग से पीड़ित है। इससे नाजबीबी विचलित होती है और माँ से मिलने कानपुर स्थित अपने आवास पर पहुँचती है वहां पता चलता है की माँ का देहांत हो चूका है वह श्मशान घाट जाती है और वहां भाई द्वारा उपेक्षा  बनती है। इससे वह बहुत विचलित भी होती है  उसका मन बेहद निराश होता है। नाजबीबी  आग्रह करती है की माँ की अनुपस्थिति में उनके यादो को सजोने के लिए में उनकी राख का अंश चाहती हूँ और वह जलती चिता से उनके दाँत को ले जाती है। 
नाजबीबी बेहद संवेदनशील और ममतामयी किन्नर है। एक प्रसव पीड़िता की वह किस प्रकार निश्छल भाव से सेवा करती है और उसके प्राण त्याग देने की स्थिति में वह उस पुत्री को अपनी पुत्री की तरह उसका पालन पोषण  करती है। वह उसे विद्या ग्रहण के लिए स्कूल भी भेजती है। स्कूल में किन्नर के जाते ही किस प्रकार वातावरण बदल जाता है इसका भी उसमे चित्रण है। वह विरोध नहीं करती क्योकि वह जानती है कितनी जगह इन विरोधो का  पड़ेगा। वह अगर आवाज उठाती भी है तो उसके आवाज को दबा दिया जायेगा। किन्नर हर एक परिस्थितियों से परचित भी होते है वह व्यक्ति के तिरछी मुस्कान को भी समझते है और उनके बोलने के तरीके को भी किस प्रकार  रहा है। सोना के पालन -पोषण में उसे किन्नरों का विरोध भी झेलना पड़ता है क्योंकि ऐसी परिस्थिति में उसका चोर समझा जाना स्वाभाविक है।पुलिस ऐसी परिस्थितियों में  कोई कसर नहीं छोड़ती है। नाजबीबी का साहस उसे एक विचारवान व्यक्तित्व दिलाता है जिस से वह सभवतः हर परिस्थितियों में खड़ी रहती है। 
किन्नर के प्रति अपराधी दृष्टिकोण हमारे समाज की देन है की किस प्रकार समाज एक विचार बनता है और उसे व्यक्ति के ऊपर इस तरह हावी कर दिया जाता है की वह उसे ही सत्य मान बैठता है। उसके किसी को देख कर हसने की वस्तु मानना भी इसी के अंदर निहित है।किन्नरों के बारे में अफवाहे भी हमेशा समाज में हावी रहती है जो उन्हें सामन्य मनुष्य न मानने को बाध्य करती  रहती है।  जब पत्रकार मानवी इसके ऊपर दोषारोपण करते हुए पूछती है -किन्नर युवको को बहला -फुसलाकर कब्जे में लेते और फिर ओपरेशन करके हिजड़ा बना देते है।'
इस दोष को ख़ारिज करते हुए महताब गुरु इसका उत्तर देते है -हमारी बस्ती में जल्दी कोई इंसान का पूत घुसता ही नहीं है.... किसी के आते ही हम ओप्रशन कर देंगे पकड़कर ?डॉक्टरी खोल बैठे है क्या ?इसी कोठारिया  में क्या ?यह देखो है हमारा अंग कोई कटा है या अल्ला रसूल भेजा है।' 
संस्कृति, सभ्यता और  राष्ट्र मनुष्य की अमूल्य धरोहर है जिसे हर व्यक्ति अपने मन में सजोये रखता है। जहाँ इनका आभाव  होता है वह राष्ट्र खतरे का शिकार बना रहता है जहां व्यक्ति अपने समस्त जीवन को न्याय अन्याय की कसौटी में नहीं कस पाता। नाजबीबी भी एक किन्नर है जिसमे राष्ट्र प्रेम विद्यमान है। वह उतनी  ही समाज हितेषी किन्नर भी है। मानवी द्वारा जातिगत और धार्मिकऔर  लिंग के आधार पर उठाये गए प्रश्न का नाजबीबी सरलता से जवाब देती है। वह कहती है  जब हम आधारों पर विभेद करते है तब तब हम अपने गौरवपूर्ण  का क्षरण कर किसी के गुलाम या दास बनते है। हारी एकता हमारी शाकलटी है और अलगाव हमारी कमजोरी। नाजबीबी किन्नरों के ईमानदारी और राष्ट्र प्रेम को इन शब्दों में बया करती है - 'सबक लेना है तो हम हिजड़ो से सबक ले। न हम लोग गद्दार है, न ही हम लोग गद्दारी करेंगे। आपस में हम लोग प्रेम से रहते है और हम किसी से नफरत क्यों करे ?हम लोग इंसान थोड़े ही है की आपस में नफरत करेंगे।'
    नाजबीबी का सोना के साथ आत्मीय  चूका है परन्तु पुलिस को इस चीज का पता चलते ही वे वहां से सोना को निकाल कर उद्धार -गृह भेज देते है। जब नाजबीबी को यह पता चलता है की वहां पर लड़कियों के साथ डरा धमकाकर यौन -सम्बन्ध बनाये जाते है तब वह सोना को वहां से बचने तथा इस अन्याय को उजागर करने के  लिए प्रतिबद्ध होती है। मगर निराशा तब हाथ लगती है जब  यह वहां पहुँचती है और सोना खुद इसे पहचानने से इंकार कर देती है। 
इस उपन्यास में नाजबीबी ने किन्नरों के साथ अन्याय के साथ स्त्रियों के साथ हो रहे अन्याय को भी उजागर किया है की किस उनका शारीरिक और मानसिक शोषण होता है। वह अपने को पुरुष अपराधियों से बचाये फिरती है की कोई  चील की नजर वाला पुरुष उन्हें नोचने के लिए तैयार न बैठा हो। वह एकांत में अपने पुरे स्वरुप में उभर कर आ जाता है और नौच डालता है स्त्री के साथ स्त्री अस्तित्व को भी।  नाजबीबी ऐसे प्रश्नो से अवगत है इसलिए वह कहती भी है - 'सोच रही हूँ मैम साहब ,भगवान ने मुझे हिजड़ा बना कर ठीक ही किया है। अगर यह न बनाता तो जरूर मुझे औरत बनाता और तब यह सरे अत्याचार मुझे ही झेलने पड़ते।'
समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार व्यक्ति को आतंरिक और बाह्य दोनों रूप से झकझोर देता है। यहाँ की सभी गलियाँ भ्रष्टाचार की अतिरेक से उपजी है उस से गुजरने वाला हर  व्यक्ति उसी का अनुगामी बन कर भ्रष्टाचार को निरंतर आगे बढ़ाता है। मानवी देश के राजनितिक भ्रष्टाचार से आतंकित है वह नाजबीबी को इसके उतरने  की कही से कुछ बदलाव तो संभव हो क्योकि लोग राजनेता इसलिए बनते है की उनकी आने वाली पीढ़िया भी सुरक्षित हो सके इतना धन संचय किया जा सके। नाजबीबी भी इस बात से अवगत है और वह इस लड़ाई में शामिल होने से पीछे नहीं हटती अपने समाज और देश को सार्थक प्रगति देने के लिए स्वयं को भी आगे करना जरुरी है। वह मन्ना बाबू के खिलाफ  भी पर्चा भी भरती है।   किन्नरों का उत्तराधिकार  ग्रहण करने के लिए कोई व्यक्ति नहीं होता तो वह किस के लिए धन संचय करेंगे। उनका सारा ध्यान सभ्य  अनुशासित समाज का निर्माण करने में लगेगा। 
अंततः यह उपन्यास किन्नरों के व्यथा को उजागर करने वाला उपन्यास है की किस प्रकार नंदरानी ,नाजबीबी बन जाती है। किन्नरों की जीवन दशा के वर्णन के साथ साथ उनके सुधर के उपायों का भी जिक्र है।

मैं भी औरत हूँ :अनसूया त्यागी 

यह एक ऐसा उपन्यास है जिसमे किन्नरों को उचित समय पर दिए गए इलाज से वह सामान्य जीवन जी सकते है तथा अगर वह माँ न भी बन पाए तो भी समाज में उनकी स्वीकृति शादी के लिए हो। उनका भी दिल होता है जो प्रेम -प्रसंग  धड़कता है।  इस उपनेस के अंदर मंजुला और रौशनी नाम की दो बहने होती है। 15 वर्ष की आयु में उनका मासिक धर्म न आना उनके घर वालो के लिए चिंता का विषय बनता है और वह चिकित्सक के पास जाते है। वह पता चलता है की इनका पूर्णतः जननांग का विकास नहीं हो पाया है। मंजुला में गर्भाशय औरयोनि का विकास नहीं हुआ है जबकि रोशनी का गर्भाशय नहीं है और योनि अर्धविकसित है। इन दोनों का ओप्रशन किया जाता है जिससे मंजुला पूर्णतः स्त्रीत्व के गुण को प्राप्त कर लेती है। उसकी विपिन से शादी भी होती है और बच्चा भी होता है। रोशनी  पढ़ने में काफी कुशल है वह हमेशा परीक्षा में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होती है। वह दिल्ली आई.आई. टी  में पढ़ने जाती है। वहां उतरीं हो कर वह एक नामी कंपनी में सीईओ के  नियुक्त हो जाती है उसी कंपनी में कार्यरत ओंकार उस से प्रभावित होकर शादी का प्रस्ताव रखता है। रोशनी अपनी सच्चाई उसके आमने बया करती  जिससे वह मायूस न होकर  प्रस्ताव को निरस्त नहीं करता बल्कि उसे अपनाता है - 'यह  ने तुम्हारे साथ क्रूर मजाक किया है पर फिर भी भगवान को धन्यवाद दो की उन्होंने तुम्हे अच्छा दिमाग ,इतना सुन्दर चेहरा व् इतना सूंदर दिल दिया है। अरे क्या हुआ जो उसने तुम्हे गर्भाशय नहीं दिया।  हम उस,समस्या को आसानी से हल कर सकते है फिर तुम जो कहोगी मैं करने को तैयार हूँ।'
रोशनी को जब बच्चे की आवश्यकता का अनुभव होता है तब वह सोरेगेसी के द्वारा बच्चा करने की सलाह देती है। इसके लिए वह इला सावंत को चुनते है।   

हिंदी साहित्य में किन्नर विमर्श -एक पूर्वपीठिका  साहित्य किसी भी स्थिति की तहों में जाकर समाज का सरोकार उन विमर्शो और मुद्दों से करता है जिस...