मलवे का मालिक (कहानी)- मोहन राकेश,

 लेखक : मोहन राकेश

पूरे साढ़े सात साल के बाद लाहौर से अमृतसर आए थे. हॉकी का मैच देखने का तो बहाना ही था, उन्हें ज़्यादा चाव उन घरों और बाज़ारों को फिर से देखने का था, जो साढ़े सात साल पहले उनके लिए पराए हो गए थे. हर सड़क पर मुसलमानों की कोई न कोई टोली घूमती नज़र आ जाती थी. उनकी आंखें इस आग्रह के साथ वहां की हर चीज़ को देख रही थीं, जैसे वह शहर साधारण शहर न होकर एक ख़ास आकर्षण का केन्द्र हो।

तंग बाज़ारों में से गुज़रते हुए वे एक-दूसरे को पुरानी चीज़ों की याद दिला रहे थे-देख, फतहदीना, मिसरी बाज़ार में अब मिसरी की दुकानें पहले से कितनी कम रह गई हैं. उस नुक्कड़ पर सुक्खी भठियारन की भट्ठी थी, जहां अब वह पान वाला बैठा है. यह नमक मण्डी देख लो, ख़ान साहब! यहां की एक-एक ललाइन वह नमकीन होती है कि बस!

बहुत दिनों के बाद बाज़ारों में तुर्रेदार पगड़ियां और लाल तुर्की टोपियां दिखाई दे रही थीं. लाहौर से आए हुए मुसलमानों में काफ़ी संख्या ऐसे लोगों की थी, जिन्हें विभाजन के समय मजबूर होकर अमृतसर छोड़कर जाना पड़ा था. साढ़े सात साल में आए अनिवार्य परिवर्तनों को देखकर कहीं उनकी आंखों में हैरानी भर जाती और कहीं अफ़सोस घिर आता-वल्लाह, कटड़ा जयमलसिंह इतना चौड़ा कैसे हो गया? क्या इस तरफ़ के सबके सब मकान जल गए? यहां हकीम आसिफ़ अली की दुकान थी न? अब यहां एक मोची ने कब्ज़ा कर रखा है।

और कहीं-कहीं ऐसे भी वाक्य सुनाई दे जाते-वली, यह मस्जिद ज्यों की त्यों खड़ी है? इन लोगों ने इसका गुरूद्वारा नहीं बना दिया?

जिस रास्ते से भी पाकिस्तानियों की टोली गुज़रती, शहर के लोग उत्सुकतापूर्वक उसकी ओर देखते रहते. कुछ लोग अब भी मुसलमानों को आते देखकर शंकित-से रास्ते हट जाते थे, जबकि दूसरे आगे बढ़कर उनसे बगलगीर होने लगते थे. ज़्यादातर वे आगन्तुकों से ऐसे-ऐसे सवाल पूछते थे कि आजकल लाहौर का क्या हाल है? अनारकली में अब पहले जितनी रौनक होती है या नहीं? सुना है, शाहालमी गेट का बाज़ार पूरा नया बना है? कृष्ण नगर में तो कोई ख़ास तब्दीली नहीं आई? वहां का रिश्वतपुरा क्या वाक़ई रिश्वत के पैसे से बना है? कहते हैं पाकिस्तान में अब बुर्का बिल्कुल उड़ गया है, यह ठीक है? इन सवालों में इतनी आत्मीयता झलकती थी कि लगता था कि लाहौर एक शहर नहीं, हज़ारों लोगों का सगा-सम्बन्धी है, जिसके हालात जानने के लिए वे उत्सुक हैं. लाहौर से आए हुए लोग उस दिन शहर-भर के मेहमान थे, जिनसे मिलकर और बातें करके लोगों को खामखाह ख़ुशी का अनुभव होता था।

बाज़ार बांसा अमृतसर का एक उपेक्षित-सा बाज़ार है, जो विभाजन से पहले ग़रीब मुसलमानों की बस्ती थी. वहां ज़्यादातर बांस और शहतीरों की ही दुकानें थीं, जो सबकी सब एक ही आग में जल गई थीं. बाज़ार बांसा की आग अमृतसर की सबसे भयानक आग थी, जिससे कुछ देर के लिए तो सारे शहर के जल जाने का अन्देशा पैदा हो गया था. बाज़ार बांसा के आसपास के कई मुहल्लों को तो उस आग ने अपनी लपेट में ले ही लिया था. ख़ैर, किसी तरह वह आग क़ाबू में आ तो गई, पर उसमें मुसलमानों के एक-एक घर के साथ हिन्दुओं के भी चार-चार, छह-छह घर जलकर राख हो गए. अब साढ़े सात साल में उनमें से कई इमारतें तो फिर से खड़ी हो गई थीं, मगर जगह-जगह मलबे के ढेर अब भी मौजूद थे. नई इमारतों के बीच-बीच में मलबे के ढेर अजीब ही वातावरण प्रस्तुत करते थे।

बाज़ार बांसा में उस दिन भी चहल-पहल नहीं थी, क्योंकि उस बाज़ार के ज़्यादातर बाशिन्दे तो अपने मकानों के साथ ही-शहीद हो गए थे और जो बचकर चले गए थे, उनमें शायद लौटकर आने की हिम्मत बाक़ी नहीं रही थी. सिर्फ़ एक दुबला-पतला बूढ़ा मुसलमान ही उस वीरान बाज़ार में आया और वहां की नई और जली हुई इमारतों को देखकर जैसे भूल-भुलैया में पड़ गया. बाएं हाथ को जाने वाली गली के पास पहुंचकर उसके क़दम अन्दर मुड़ने को हुए, मगर फिर वह हिचकिचाकर वहां बाहर ही खड़ा रह गया, जैसे उसे निश्चय नहीं हुआ कि वह वही गली है या नहीं, जिसमें वह जाना चाहता है. गली में एक तरफ़ कुछ बच्चे कीड़ी-काड़ा खेल रहे थे और कुछ अन्तर पर दो स्त्रियां ऊंची आवाज़ में चीख़ती हुई एक-दूसरी को गालियां दे रही थीं।

‘सब कुछ बदल गया, मगर बोलियां नहीं बदलीं!’ बुड्ढे मुसलमान ने धीमे स्वर में अपने से कहा और छड़ी का सहारा लिए खड़ा रहा. उसके घुटने पाजामे से बाहर को निकल रहे थे और घुटनों के थोड़ा ऊपर ही उसकी शेरवानी में तीन-चार पैबन्द लगे थे. गली में एक बच्चा रोता हुआ बाहर को आ रहा था. उसने उसे पुचकार कर पुकारा,‘इधर आ, बेटे, आ इधर! देख तुझे चिज्जी देंगे, आ,’ और वह अपनी जेब में हाथ डालकर उसे देने के लिए कोई चीज़ ढूंढ़ने लगा. बच्चा क्षण भर के लिए चुप कर गया, लेकिन फिर उसने होंठ बिसूर लिए और रोने लगा. एक सोलह-सत्रह बरस की लड़की गली के अन्दर से दौड़ती हुई आई और बच्चे की बांह पकड़कर उसे घसीटती हुई गली में ले चली. बच्चा रोने के साथ-साथ अपनी बांह छुड़ाने के लिए मचलने लगा. लड़की ने उसे बांहों में उठा कर अपने साथ चिपका लिया और उसका मुंह चूमती हुई बोली,‘चुप कर, मेरा वीर! रोएगा तो तुझे वह मुसलमान पकड़ कर ले जाएगा, मैं वारी जाऊं, चुप कर!’

बुड्ढे मुसलमान ने बच्चे को देने के लिए जो पैसा निकाला था, वह वापस जेब में रख लिया. सिर से टोपी उतारकर उसने वहां थोड़ा खुजलाया और टोपी बगल में दबा ली. उसका गला ख़ुश्क हो रहा था और घुटने ज़रा-ज़रा कांप रहे थे. उसने गली के बाहर की बन्द दुकान के तख़्ते का सहारा ले लिया और टोपी फिर से सिर पर लगा ली. गली के सामने जहां पहले ऊंची-ऊंची शहतीरियां रखी रहती थीं, वहां अब एक तिमंज़िला मकान खड़ा था. सामने बिजली के तार पर दो मोटी-मोटी चीलें बिल्कुल जड़ होकर बैठी थीं. बिजली के खम्भे के पास थोड़ी धूप थी. वह कई पल धूप में उड़ते हुए ज़र्रों को देखता रहा. फिर उसके मुंह से निकला,‘या मालिक!’

एक नवयुवक चाबियों का गुच्छा घुमाता हुआ गली की ओर आया ओर बुड्ढे को वहां खड़े देखकर उसने रूककर पूछा,‘कहिए मियां जी, यहां किस तरह खड़े हैं?’

बुड्ढ़े मुसलमान की छाती और बांहों में हल्की-सी कंपकंपी हुई और उसने होंठों पर जबान फेरकर नवयुवक को ध्यान से देखते हुए पूछा,‘बेटे, तेरा नाम मनोरी तो नहीं है?’

नवयुवक ने चाबियों का गुच्छा हिलाना बन्द करके मुट्ठी में ले लिया और आश्चर्य के साथ पूछा,‘आपको मेरा नाम कैसे पता है?’
‘साढ़े सात साल पहले तू बेटे, इतना-सा था.’यह कहकर बुड्ढे ने मुस्कराने की कोशिश की।

‘आप आज पाकिस्तान से आए हैं?’ मनोरी ने पूछा।

‘हां, मगर पहले हम इसी गली में रहते थे,’ बुड्ढे ने कहा,‘मेरा लड़का चिराग़दीन तुम लोगों का दर्ज़ी था. तक़सीम से छह महीने पहले हम लोगों ने यहां अपना नया मकान बनाया था।

‘ओ, गनी मियां.’ मनोरी ने पहचान कर कहा।

‘हां, बेटे, मैं तुम लोगों का गनी मियां हूं. चिराग और उसके बीवी-बच्चे तो नहीं मिल सकते, मगर मैंने कहा कि एक बार मकान की सूरत ही देख लूं. ’ और उसने टोपी उतार कर सिर पर हाथ फेरते हुए आंसुओं को बहने से रोक लिया।

‘आप तो शायद काफ़ी पहले ही यहां से चले गए थे?’ मनोरी ने स्वर में सम्वेदना लाकर कहा।

‘हां, बेटे, मेरी बदबख़्ती थी कि पहले अकेला निकलकर चला गया. यहां रहता, तो उनके साथ मैं भी…’ और कहते-कहते उसे अहसास हो आया कि उसे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए. उसने बात मुंह में रोक ली, मगर आंख में आए हुए आंसुओं को बह जाने दिया।

‘छोड़िए, गनी साहब, अब बीती बातों को सोचने में क्या रखा है?’ मनोरी ने गनी की बांह पकड़ कर कहा,‘आइए, आपको आपका घर दिखा दूं?’

गली में ख़बर इस रूप में फैली थी कि गली के बाहर एक मुसलमान खड़ा है, जो रामदासी के लड़के को उठाने जा रहा था उसकी बहन उसे पकड़ कर घसीट लाई, नहीं तो वह मुसलमान उसे ले गया होता. यह ख़बर पाते ही जो स्त्रियां गली में पीढ़े बिछाकर बैठी थीं, वे अपने-अपने पीढ़े उठा कर घरों के अन्दर चली गईं. गली में खेलते हुए बच्चों को भी उन स्त्रियों ने पुकार-पुकारकर घरों में बुला लिया. मनोरी जब गनी को लेकर गली में आया, तो गली में एक फेरीवाला रह गया था या कुएं के साथ उगे हुए पीपल के नीचे रक्खा पहलवान बिखरकर सोया दिखाई दे रहा था. घरों की खिड़कियों में से और किवाड़ों के पीछे से अलबत्ता कई चेहरे झांक रहे थे. गनी को गली में आते देखकर उनमें हल्की-हल्की चेमेगोइयां शुरू हो गईं. दाढ़ी के सब बाल सफ़ेद हो जाने के बावजूद लोगों ने चिरागदीन के बाप अब्दुल गनी को पहचान लिया था।

‘वह आपका मकान था.’ मनोरी ने दूर से एक मलबे की ओर संकेत किया. गनी पल-भर के लिए ठिठकर फटी-फटी आंखों से उसकी ओर देखता रह गया. चिराग और उसके बीवी-बच्चों की मौत को वह काफ़ी अर्सा पहले स्वीकार कर चुका था, मगर अपने नए मकान को इस रूप में देखकर उसे जो झुरझुरी हुई, उसके लिए वह तैयार नहीं था. उसकी जबान पहले से ज़्यादा ख़ुश्क हो गई और घुटने भी और ज़्यादा कांपने लगे।

‘वह मलबा?’ उसने अविश्वास के स्वर में पूछा।

मनोरी ने उसके चेहरे का बदला हुआ रंग देखा. उसने उसकी बांह को और सहारा देकर ठहरे हुए स्वर में उत्तर दिया,‘आपका मकान उन्हीं दिनों जल गया था।’

गनी छड़ी का सहारा लेता हुआ किसी तरह मलबे के पास पहुंच गया. मलबे में अब मिट्टी ही मिट्टी थी, जिसमें जहां-तहां टूटी और जली हुई ईटें फंसी थीं. लोहे और लकड़ी का सामान उसमें से न जाने कब का निकाल लिया गया था. केवल जले हुए दरवाजे की चौखट न जाने कैसे बची रह गई थी, जो मलबे में से बाहर को निकली हुई थी. पीछे की ओर दो जली हुई अलमारियां और बाकी थीं, जिनकी कालिख पर अब सफेदी की हल्की-हल्की तह उभर आई थी. मलबे को पास से देखकर गनी ने कहा,‘यह रह गया है, यह?’

और जैसे उसके घुटने जवाब दे गए और वह जली हुई चौखट को पकड़ कर बैठ गया. क्षण-भर बाद उसका सिर भी चौखट से जा लगा और उसके मुंह से बिलखने की-सी आवाज़ निकली,‘हाए! ओए, चिरागदीना!’

जले हुए किवाड़ की चौखट साढ़े सात साल मलबे में से सिर निकाले खड़ी तो रही थी, मगर उसकी लकड़ी बुरी तरह भुरभुरा गई थी. गनी के सिर के छूने से उसके कई रेशे झड़कर बिखर गए. कुछ रेशे गनी की टोपी और बालों पर आ गिरे. लकड़ी के रेशों के साथ एक केंचुआ भी नीचे गिरा, जो गनी के पैर से छह-आठ इंच दूर नाली के साथ बनी ईंटों की पटरी पर सरसराने लगा. वह अपने लिए सूराख ढूंढ़ता हुआ ज़रा-सा सिर उठाता, मगर दो- एक बार सिर पटककर और निराश होकर दूसरी ओर को मुड़ जाता।

खिड़कियों में से झांकने वाले चेहरों की संख्या पहले से कहीं बढ़ गयी थी. उनमें चेमेगोइयां चल रही थीं कि आज कुछ न कुछ ज़रूर होगा. चिराग़दीन का बाप गनी आ गया है, इसलिए साढ़े सात साल पहले की सारी घटना आज खुल जाएगी. लोगों को लग रहा था जैसे वह मलबा ही गनी की सारी कहानी सुना देगा कि शाम के वक़्त चिराग़ ऊपर के कमरे में खाना खा रहा था जब रक्खे पहलवान ने उसे नीचे बुलाया कि वह एक मिनट आकर एक ज़रूरी बात सुन जाए. पहलवान उन दिनों गली का बादशाह था. हिन्दुओं पर ही उसका काफ़ी दबदबा था, चिराग़ तो ख़ैर मुसलमान था. चिराग़ हाथ पर कौर बीच में ही छोड़कर नीचे उतर आया. उसकी बीवी जुबैदा और दोनों लड़कियां किश्वर और सुलताना खिड़कियों में से नीचे झांकने लगीं. चिराग़ ने डयोढ़ी से बाहर क़दम रखा ही था कि पहलवान ने उसे कमीज़ के कालर से पकड़कर खींच लिया और उसे गली में गिराकर उसकी छाती पर चढ़ बैठा. चिराग़ उसका छुरेवाला हाथ पकड़कर चिल्लाया,‘न, रक्खे पहलवान मुझे मत मार! हाय मुझे बचाओ! जुबैदा! मुझे बचा…!’ और ऊपर से जुबैदा चीख़ती हुई नीचे डयोढ़ी की तरफ भागी. रक्खे के एक शगिर्द ने चिराग़ की जद्दोजहद करती हुई बांहें पकड़ लीं ओर रक्खा उसकी जांघों को घुटने से दबाए हुए बोला,‘चीख़ता क्यों है, भैण के… तुझे पाकिस्तान दे रहा हूं, ले!’
और जुबैदा के नीचे पहुंचने से पहले ही उसने चिराग़ को पाकिस्तान दे दिया।

आसपास के घरों की खिड़कियां बंद हो गईं. जो लोग इस दृश्य के साक्षी थे, उन्होंने दरवाज़े बन्द करके अपने को इस घटना के उत्तरदायित्व से मुक्त कर लिया था. बन्द किवाड़ों में भी उन्हें देर तक जुबैदा, किश्वर और सुलताना के चीख़ने की आवाज़ें सुनाई देती रहीं. रक्खे पहलवान और उसके साथियों ने उन्हें भी उसी रात पाकिस्तान देकर विदा कर दिया, मगर दूसरे तबील रास्ते से. उनकी लाशें चिराग के घर में न मिलकर बाद में नहर के पानी में पाई गईं।

दो दिन तक चिराग के घर की ख़ाना-तलाशी होती रही. जब उसका सारा सामान लूटा जा चुका तो न जाने किसने उस घर को आग लगा दी. रक्खे पहलवान ने कसम खाई थी कि वह आग लगाने वाले को ज़िन्दा ज़मीन में गाड़ देगा, क्योंकि उसने उस मकान पर नज़र रख कर ही चिराग़ को मारने का निश्चय किया था. उसने उस मकान को शुद्ध करने के लिए हवन-सामग्री भी ख़रीद रखी थी. मगर आग लगाने वाले का पता ही नहीं चल सका, उसे ज़िन्दा गाड़ने की नौबत तो बाद में आती. अब साढ़े सात साल से रक्खा पहलवान उस मलबे को अपनी जागीर समझता आ रहा था, जहां न वह किसी को गाय-भैंस बांधने देता था ओर न खोंचा लगाने देता था. उस मलबे से बिना उसकी अनुमति के कोई ईंट भी नहीं उठा सकता था।

लोग आशा कर रहे थे कि सारी कहानी ज़रूर किसी न किसी तरह गनी के कानों तक पहुंच जाएगी जैसे मलबे को देखकर उसे अपने-आप ही सारी घटना का पता चल जाएगा. और गनी मलबे की मिट्टी नाख़ूनों से खोद-खोद कर अपने ऊपर डाल रहा था और दरवाज़े की चौखट को बांह में लिए हुए रो रहा था,‘बोल, चिराग़दीना, बोल! तू कहां चला गया, ओए! ओ किश्वर! ओ सुल्तान! हाय मेरे बच्चे! ओएऽऽ! गनी को कहां छोड़ दिया, ओएऽऽ!’

और भुरभुरे किवाड़ से कड़ी के रेशे झड़ते जा रहे थे।

पीपल के नीचे सोए हुए रक्खे पहलवान को किसी ने जगा दिया, या वह वैसे ही जाग गया. यह जानकर कि पाकिस्तान से अब्दुल गनी आया है ओर अपने मकान के मलबे पर बैठा है, उसके गले में थोड़ा झाग उठ आया, जिससे उसे खांसी हो आई और उसने कुएं के फ़र्श पर थूक दिया. मलबे की ओर देखकर उसकी छाती से धौंकनी का-सा स्वर निकला और उसका निचला ओंठ थोड़ा बाहर को फैल आया।

‘गनी अपने मलबे पर बैठा है।’

उसके शागिर्द लच्छे पहलवाने ने उसके पास आकर बैठते हुए कहा।

‘मलबा उसका कैसे है? मलबा हमारा है!’ पहलवान ने झाग के कारण घरघराई हुई आवाज़ में कहा।

‘मगर वह वहां पर बैठा है,’लच्छे ने आंखों में रहस्यमय संकेत लाकर कहा.
‘बैठा है, बैठा रहे, तू चिलम ला,’ उसकी टांगें थोड़ी फैल गईं और उसने अपनी नंगी जांघों पर हाथ फेरा।

‘मनोरी ने अगर उसे कुछ बताया-उताया तो…’ लच्छे ने चिलम भरने के लिए उठते हुए उसी रहस्यपूर्ण दृष्टि से देखकर कहा.
‘मनोरी की शामत आई है!’

लच्छे चला गया।

कुएं पर पीपल की कई पुरानी पत्तियां बिखरी थीं. रक्खा उन पत्तियों को उठा-उठाकर हाथों में मसलता रहा. जब लच्छे ने चिलम के नीचे कपड़ा लगाकर उसके हाथ में दिया तो उसने कश खींचते हुए पूछा,‘और भी तो किसी से गनी की बात नहीं हुई?’
‘नहीं।’

‘ले.’

और उसने खांसते हुए चिलम लच्छे के हाथ में दे दी. लच्छे ने देखा कि मनोरी मलबे की तरफ से गनी की बांह पकड़े हुए आ रहा है. वह उकड़ू होकर चिलम के लम्बे-लम्बे कश खींचने लगा. उसकी आंखें आधा क्षण रक्खे के चेहरे पर टिकतीं और आधा क्षण गनी की ओर लगी रहतीं।

मनोरी गनी की बांह पकड़े हुए उससे एक क़दम आगे चल रहा था, जैसे उसकी कोशिश हो कि गनी कुएं के पास से बिना रक्खे पहलवान को देखे ही निकल जाए. मगर रक्खा जिस तरह बिखरकर बैठा था, उससे गनी ने उसे दूर से ही देख लिया. कुएं के पास पहुंचते न पहुंचते उसकी दोनों बांहें फैल गईं और उसने कहा,‘रक्खे पहलवान!’

रक्खे ने गर्दन उठाकर और आंखें जरा छोटी करके उसे देखा. उसके गले में अस्पष्ट-सी घरघराहट हुई, पर वह बोला कुछ नहीं.
‘रक्खे पहलवान, मुझे पहचाना नहीं?’ गनी ने बांहें नीची करके कहा,‘मैं गनी हूं, अब्दुल गनी, चिराग़दीन का बाप!’

पहलवान ने सन्देहपूर्ण दृष्टि से उसका ऊपर से नीचे तक जायजा लिया. अब्दुल गनी की आंखों में उसे देखकर चमक आ गई थी. सफ़ेद दाढ़ी के नीचे उसके चेहरे की झुरियां ज़रा फैल गई थीं. रक्खे का निचला होंठ फड़का, फिर उसकी छाती से भारी-सा स्वर निकला,‘सुना गनिया!’

गनी की बांहें फिर फैलने को हुई, परन्तु पहलवान पर कोई प्रतिक्रिया न देखकर उसी तरह रह गईं. वह पीपल के तने का सहारा लेकर कुएं की सिल पर बैठ गया।

ऊपर खिड़कियों में चेमेगोइयां तेज़ हो गईं कि अब दोनों आमने-सामने आ गए हैं, तो बात ज़रूर खुलेगी. फ़िर हो सकता है, दोनों में ग़ाली-गलौज भी हो. अब रक्खा गनी को कुछ नहीं कह सकता, अब वो दिन नहीं रहे. बड़ा मलबे का मालिक बनता था! असल में मलबा न इसका है, न गनी का. मलबा तो सरकार की मिल्कियत है. क़िसी को गाय का खूंटा नहीं लगने देता. मनोरी भी डरपोक है. उसने गनी को बताया क्यों नहीं कि रक्खे ने ही चिराग़ और उसके बीवी-बच्चों को मारा है? रक्खा आदमी नहीं है, सांड है. दिन भर सांड की तरह गली में घूमता है. ग़नी बेचारा कितना दुबला हो गया है. दाढ़ी के सारे बाल सफ़ेद हो गए है!
गनी ने कुएं की सिल पर बैठकर कहा,‘देख, रक्खे पहलवान, क्या से क्या रह गया है? भरा-पूरा घर छोड़कर गया था और आज यहां मिट्टी देखने आया हूं. बसे हुए घर की यही निशानी रह गई है. तू सच पूछ, रक्खे, तो मेरा यह मिट्टी भी छोड़कर जाने को जी नहीं करता.’ और उसकी आंखें छलछला आईं।

पहलवान ने फैली हुई टांगें समेट लीं और अंगोछा कुएं की मुंडेर से से उठाकर कन्धे पर डाल लिया. लच्छे ने चिलम उसकी तरफ़ बढ़ा दी और वह कश खींचने लगा।

‘तू बता, रक्खे, यह सब हुआ किस तरह?’ गनी आंसू रोकता हुआ आग्रह के साथ बोला,‘तुम लोग उसके पास थे, सबमें भाई-भाई की-सी मुहब्बत थी, अगर वह चाहता तो वह तुममें से किसी के घर में नहीं छिप सकता था? उसे इतनी भी समझ नहीं आई!’
‘ऐसा ही है,’ रक्खे को स्वयं लगा कि उसकी आवाज़ में कुछ अस्वाभाविक-सी गूंज है. उसके होंठ गाढ़ी लार से चिपक-से गए थे. उसकी मूंछों के नीचे से पसीना उसके होंठों पर आ रहा था. उसके माथे पर किसी चीज़ का दबाव पड़ रहा था और उसकी रीढ़ की हड्डी सहारा चाह रही थी।

‘पाकिस्तान के क्या हाल हैं?’

उसने वैसे ही स्वर में पूछा. उसके गले की नसों में तनाव आ गया था. उसने अंगोछे से बगलों का पसीना पोंछा और गले का झाग मुंह में खींच कर गली में थूक दिया.

‘मैं क्या हाल बताऊं, रक्खे!’

गनी दोनों हाथों से छड़ी पर जोर देकर झुकता हुआ बोला,‘मेरा हाल पूछो, तो वह ख़ुदा ही जानता है. मेरा चिराग़ साथ होता तो और बात थी. रक्खे! मैंने उसे समझाया था कि मेरे साथ चला चल. मगर वह अड़ा रहा कि नया मकान छोड़कर कैसे जाऊं. यहां अपनी गली है, कोई ख़तरा नहीं है. भोले कबूतर ने यह नहीं सोचा कि गली में ख़तरा न सही, बाहर से तो ख़तरा आ सकता है. मकान की रखवाली के लिए चारों जनों ने जान दे दी. रक्खे! उसे तेरा बहुत भरोसा था. कहता था कि रक्खे के रहते कोई मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता. मगर जब आनी आई, तो रक्खे के रोके न रुक सकी।’

रक्खे ने सीधा होने की चेष्टा की, क्योंकि उसकी रीढ़ की हड्डी दर्द कर रही थी. उसे अपनी कमर और जांघों के जोड़ पर सख़्त दबाव महसूस हो रहा था. पेट की अन्तड़ियों के पास जैसे कोई चीज़ उसकी सांस को जकड़ रही थी. उसका सारा जिस्म पसीने से भीग गया था ओर उसके पैरों के तलुवों में चुनचुनाहट हो रही थी. बीच-बीच में फुलझड़ियां-सी ऊपर से उतरतीं और उसकी आंखों के सामने से तैरती हुई निकल जातीं. उसे अपनी जबान और होंठों के बीच का अन्तर कुछ ज़्यादा महसूस हो रहा था. उसने अंगोछे से होंठों के कोनों को साफ़ किया और उसके मुंह से निकला-

‘हे प्रभु! सच्चिआ, तू ही है, तू ही है, तू ही है!’

गनी ने लक्षित किया कि पहलवान के होंठ सूख रहे हैं ओर उसकी आंखों के इर्द-गिर्द दायरे गहरे हो आए हैं, तो वह उसके कन्धे पर हाथ रखकर बोला,‘जी हल्कान न कर, रक्खिया. जो होनी थी, सो हो गई. उसे कोई लौटा थोड़े ही सकता है. ख़ुदा नेक की नेकी रखे और बद की बदी माफ़ करें. मेरे लिए चिराग़ नहीं, तो तुम लोग तो हो. मुझे आकर इतनी ही तसल्ली हुई कि उस ज़माने की कोई तो यादगार है. मैंने तुमको देख लिया, तो चिराग़ को देख लिया. अल्लाह तुम लोगों को सेहतमंद रखे. जीते रहो और ख़ुशियां देखो!’

और गनी छड़ी पर दबाव देकर उठ खड़ा हुआ. चलते हुए उसने फिर कहा,‘अच्छा रक्खे पहलवान, याद रखना!’
रक्खे के गले से स्वीकृति की मद्धम-सी आवाज़ निकली. अंगोछा बीच में लिए हुए उसके दोनों हाथ जुड़ गए. गनी गली के वातावरण को हसरत भरी नज़र से देखता हुआ धीरे-धीरे गली से बाहर चला गया।

ऊपर खिड़कियों में थोड़ी देर चेमेगोइयां चलती रहीं कि मनोरी ने गली से बाहर निकलकर ज़रूर गनी को सब कुछ बता दिया होगा. गनी के सामने रक्खे का तालू किस तरह खुश्क हो गया था! रक्खा अब किस मुंह से लोगों को मलबे पर गाय बांधने से रोकेगा? बेचारी जुबैदा! बेचारी कितनी अच्छी थी! कभी किसी से मंदा बोल नहीं बोली. रक्खे मरदूद का घर, न घाट. इसे किस मां-बहन का लिहाज था?

और थोड़ी ही देर में स्त्रियां घरों से गली में उतर आईं, बच्चे गली में गुल्ली-डण्डा खेलने लगे और दो बारह-तेरह बरस की लड़कियां किसी बात पर एक-दूसरी से गुत्थमगुत्था हो गईं।

रक्खा गहरी शाम तक कुएं पर बैठा खंखारता और चिलम फूंकता रहा. कई लोगों ने वहां से गुज़रते हुए उससे पूछा,‘रक्खे शाह, सुना है आज गनी पाकिस्तान से आया था?’

‘आया था,’ रक्खे ने हर बार एक ही उत्तर दिया।

‘फिर?’

‘फिर कुछ नहीं, चला गया.।

रात होने पर पहलवान रोज़ की तरह गली के बाहर बाईं ओर की दुकान के तख़्ते पर आ बैठा. रोज़ अक्सर वह रास्ते से गुज़रने वाले परिचित लोगों को आवाज़ दे-देकर बुला लेता था और उन्हें सट्टे के गुर और सेहत के नुस्ख़े बताया करता था. मगर उस दिन वह लच्छे को अपनी वैष्णो देवी की यात्रा का विवरण सुनाता रहा, जो उसने पन्द्रह साल पहले की थी. लच्छे को विदा करके वह गली में आया, तो मलबे के पास लोकू पंडित की भैंस को खड़ी देखकर वह रोज़ की आदत के मुताबिक़ उसे धक्के दे-दे कर हटाने लगा-तत्-तत्…तत्- तत्…

और भैंस को हटाकर वह सुस्ताने के लिए मलबे की चौखट पर बैठ गया. गली उस समय बिल्कुल सुनसान थी. कमेटी की कोई बत्ती न होने से वहां शाम से ही अन्धेरा हो जाता था. मलबे के नीचे नाली का पानी हल्की आवाज़ करता हुआ बह रहा था. रात की ख़ामोशी के साथ मिली हुई कई तरह की हल्की-हल्की आवाज़ें मलबे की मिट्टी में से निकल रहीं थीं. एक भटका हुआ कौआ न जाने कहां से उड़कर कड़ी की चौखट पर आ बैठा. उससे लकड़ी के रेशे इधर-उधर छितरा गए. कौए के वहां बैठते ने बैठते मलबे के एक कोने में लेटा हुआ कुत्ता गुर्राकर उठा और ज़ोर-ज़ोर से भौंकने लगा-वउ-अउ अऊ-वऊ. कौवा कुछ देर सहमा-सा चौखट पर बैठा रहा, फिर वह पंख फड़फड़ाता हुआ उड़कर कुएं के पीपल पर चला गया. कौए के उड़ जाने पर कुत्ता और नीचे उतर आया और पहलवान की ओर मुंह करके भौंकने लगा. पहलवान उसे हटाने के लिए भारी आवाज में बोला-दुर् दुर् दुर् दुरे।

मगर कुत्ता और पास आकर भौंकने लगा-वउ-अउ-वउ-वउ-वउ.

-हट हट, दुर्रर्र-दुर्रर्र दुरे

वऊ-अऊ-अऊ-अउ-अउ.

पहलवान ने एक ढेला उठाकर कुत्ते की ओर फेंका. कुत्ता थोड़ा पीछे हट गया, पर उसका भौंकना बन्द नहीं हुआ. पहलवान मुंह ही मुंह में कुत्ते की मां को गाली देकर वहां से उठ खड़ा हुआ और धीरे-धीरे जाकर कुएं की सिल पर लेट गया. पहलवान के वहां से हटने पर कुत्ता गली में उतर आया और कुएं की ओर मुंह करके भौंकने लगा. काफ़ी देर भौंक कर जब गली में उसे कोई प्राणी चलता-फिरता दिखाई नहीं दिया तो वह एक बार कान झटककर मलबे पर लौट आया और वहां कोने में बैठकर गुर्राने लगा।

हिंदी साहित्य में किन्नर विमर्श -एक पूर्वपीठिका 

साहित्य किसी भी स्थिति की तहों में जाकर समाज का सरोकार उन विमर्शो और मुद्दों से करता है जिसका समाज पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समाज को हितकर बनाये। साहित्य अच्छे या बुरे सभी मुद्दों को सामने लाकर रख देता है जिस से मनुष्य  बिंदुओं को परख कर वास्तविकता से परिचित करवाता है। इसीलिए महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कहा है साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्य समाज के मानसिक प्रक्रिया को पढ़ता रहता है उसकी बुनावट देखता है। दबे ,कुचले शोषितो के प्रति आवाज उठाता है। साहित्य समतामूलक समाज की स्थापना करने के लिए निरंतर संघर्षशील रहता है ,उसे समाज में चल रहे असमानता से नफरत होती है। इसीलिए एक साहित्यकार अपनी जागरूकता से दलित ,स्त्री ,आदिवासी ,किसान ,किन्नर ,अल्पसंख्यक सभी वंचितों और असमानता का दंश झेलते समुदाय को न्याय दिलाने की लिए अपनी लेखनी को गतिशील रखता है। इन हासिये के समाज पर निरंतर विचार किया जा रहा है। 

साहित्य अपने समय से आगे की और ही देखता है। जहाँ वह एक नदी  भांति ही निरन्तर गतिशील रहती है। उसमे रुकावट नहीं आती क्योंकि साहित्यकार निर्भीक भी होता है। साहित्य नयी  दिशाओ में निरन्तर अनुसन्धान करता रहता है। साहित्य मुद्दों की प्रवृतियों पर अपना मुख्य उद्देश्य रखते हुए व्यक्ति के अंदर मनोरंजन ढंग से संवेदना को विकसित करता है। हिंदी साहित्य के विषय में भी यह बात युक्तियुक्त प्रतीति होती है।   

 स्त्री के गर्भ धारण करते ही यह निश्चित हो जाता है की लड़की होगी या लड़का। अगर xx क्रोमोसोम होते है तब लड़की का जन्म होता है और xy से लड़का जन्म लेता है परन्तु छह सप्ताह तक लड़की और लड़के दोनों के लिंग का स्वरुप एक जैसा ही रहता है। उसके बाद y क्रोमोसोम पर का sry नामक जीन कार्यरत होता है। उसमे फिर जननेन्द्रियों का विकास होने लगता है और हार्मोन्स तैयार होने की शुरुवात होती है। इसी तरह जैसे -जैसे गर्भ विकसित होता है बच्चा अपने शारीरिक संरचना में स्थायित्व प्राप्त कर लेता है। पुरुष हार्मोन्स एंड्रोजेन तैयार होता है। उसमे टेस्टास्टरोन हार्मोन की बड़ी मात्रा  होती है। इसी प्रकार बच्चों की संरचना रूप धारण करती है। 

यह प्रक्रिया सामान्यतः ऐसी ही चलती है और स्त्री पुरुष का जन्म होता रहता है। मगर बहुत बार इस प्रक्रिया में गड़बड़ी होने से लिंग निर्धारण पाता। इसके भी चार प्रकार के सिंड्रोम है पहले सिंड्रोम को टर्नर सिंड्रोम कहा जाता है। उसमे गर्भ का सिंड्रोम xx या xy न होकर इस से उलट xo होता है। पिता से आने वाले ,गर्भ को पुरुषत्व देनेवाला u क्रोमोसोम के न होने की वजह से बाहर के जननेन्द्रियों का विकास स्त्री जैसा ही होता है। इसी वजह से गर्भाशय का आभाव हो जाता है और वह बच्चा जन्म देने में असमर्थ होते है। इसमें स्त्री के विकास  के लिए दो x की जरुरत होती है। इस वजह से उसका पूरा स्वरुप स्त्री का होने के बावजूद उसमे मातृत्व गुण से वंचित रहना पड़ता है। 

दूसरा प्रकार होता है एंड्रोजन इंसेन्सिटिव सिंड्रोम। इसमें टेस्टा स्टारॉन हार्मोन को गर्भ रेस्पॉन्स नहीं देता। गर्भ अगर पुरुष का है ,xy तो इस वजह से उसकी पुरुष जननेन्द्रियों का विकास नहीं होता। नवजात बच्ची की जननेंद्रिय स्त्री की होती है,पर अण्डकोश ,गर्भशय नहीं होता। लेकिन स्तनों का विकास होता है। उसे मासिक धर्म नहीं होता,उनके बच्चे नहीं होते। जेनेटकली उसमे लड़के का प्रभाव होता है।

तीसरे प्रकार में पुरुष हार्मोन का ,एंड्रोजन का स्तर बहुत बढ़ता है गर्भ अगर लड़के का हो तो कोई सवाल पैदा नहीं होता ,पर लड़की का हो तो जन्मी हुई लड़की पुरुष ,टॉमबोइश पद्यति की होती है। 

चौथे प्रकार में पुरुष हार्मोन ,टेस्टास्टरोन काफी कम मात्रा में तैयार होते है। स्त्री का गर्भ हो तो कोई दिक्कत नहीं ,लेकिन गर्भ पुरुष का हो तो जननेंद्रिय पुरुषों की होने के बावजूद सोच और भावना आदि उसमे स्त्रीत्व की मिलती है। उसे स्त्री जैसा रहना ,बर्ताव करना अच्छा लगता है। किशोरावस्था में आने के बाद ये लड़के पुरुषों की ओर आकर्षित होते है। 

हिजड़ा का सम्बन्ध इसी चौथे प्रकार से है। हिजड़ा में शारीरिक रूप से वह पुरुष होते है लेकिन भावनाये स्त्रियों की निहित होती है। किसी के पास शरीर स्त्री का और भावनाये पुरुष की हो जाती है। हमारे यहाँ पुरुषों का विद्रोह स्त्रियों से आसान होता है। कई पुरुषों की भावना स्त्रियों की तरह होने के कारण उन्हें मउगा कह कर चिढ़ाया जाता है।   


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डॉ. कमलकिशोर गोयनका ने प्रेमचंद को भारतीयता से जोड़कर भारतीय चिंतन परंपरा में व्याख्यायित किया है।

प्रेमचंद ने बार-बार भारतीयों को सनातन संस्कृति पर चलने की सीख दी लेकिन प्रेमचंद के मूल्यांकन में इन चीजों को शामिल नहीं किया जाता है।

प्रेमचंद पर कब तक काफी लिखा-पढ़ा गया है, लेकिन डॉ. 

 लेखक ने भारतीय जीवनादर्शों एवं मूल्यों की तुलना में पाश्चात्य जीवनादर्शों एवं मूल्यों को हीन और निम्नकोटि का मानते हुए भारतीय मूल्यों की स्थापना की हैं।23

इस उपन्यास में प्रेमचंद ने मुख्यतः किसानों औऱ जमींदारों के प्रश्न को उठाया है, परन्तु इसमें इन दोनों वर्गों से संबंधित अन्य व्यवसायों तथा निहित स्वार्थों के लोगों का भी चित्रण हुआ है।24

पश्चिमी जीवन दृष्टि , संस्कार और मूल्यों की अनिष्टकरिता और भारतीय जीवन-दृष्टि , संस्कार और मूल्यों की श्रेष्ठता दिखाना ही लेखक का उद्देश्य रहा है। 28
भाषा साधन है, साध्य नहीं । अब हमारी भाषा ने वह रूप प्राप्त कर लिया है कि हम भाषा से आगे बढ़कर भाव की और ध्यान दें और इस पर विचार करें कि जिस उद्देश्य से यह निर्माण कार्य आरंभ किया था, वह क्योंकर पूरा हो। वही भाषा, जिसमे आरम्भ में बागोबहार और बैताल-पचीसी की रचना हु सबसे बड़ी साहित्य-सेवा थी , अब इस योग्य ही गई है कि उसमें शास्त्र और विज्ञान के प्रश्नों की भी विवेचना की जा सके और यह सम्मेलन इस सच्चाई की स्पष्ट स्वीकृति है।912

नीति -शास्त्र ओर साहित्य-शास्त्र का लक्ष्य एक ही है-केवल उपदेश की विधि में अंतर है। नीति-शास्त्र तर्कों और उपदेशों के द्वारा बुद्धि और मन पर प्रभाव डालने का यत्न करता है, साहित्य अपने लिए मानसिक अवस्थाओं और भावों का क्षेत्र चुन लिया है। 914

कवि या साहित्यकार में अनुभूति की जितनी तीव्रता होती है, उसकी रचना उतनी ही आकर्षक और उच्चे दर्जे की होती है। जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे,आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें शक्ति और गति न पैदा हो, हमारा सौंदर्य-प्रेम न जाग्रत हो -जो हममें सच्चा संकल्प और कठिनाइयों पर विजय पाने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करे, वह आज हमारे लिए बेकार है, वह साहित्य कहाने का अधिकारी नहीं। 915

हम साहित्यकार से यह भी आशा रखते हैं कि वह अपनी बहुज्ञता और अपने विचारों की विस्तृति से हमें जाग्रत कर, हमारी दृष्टि तथा मानसिक परिधि को विस्तृत करे- उसकी दृष्टि इतनी सूक्ष्म, इतनी गहरी और इतनी विस्तृत हो कि उसकी रचना से हमें आध्यात्मिक आनंद और बल मिले। 916

हम मानसिक और नैतिक गिरावट से उसी तरह संतुष्ट नहीं रहते, जैसे कोई रोगी अपने रोग से संतुष्ट नहीं रहता। जैसे वह सदा किसी चिकित्सक की तलाश में रहता है, उसी तरह हम भी इस फिक्र में रहते है कि किसी तरह अपनी कमजोरियों को परे फेंककर अधिक अच्छे मनुष्य बनें। इसलिए हम साधु-फकीरों की खोज में रहते हैं, पूजा-पाठ करते हैं, बड़े-बूढ़ों के पास बैठते हैं, विद्वानों के व्याख्यान सुनते हैं और साहित्य का अध्ययन करते हैं।916


साहित्य हमारे जीवन को स्वाभाविक और स्वाधीन बनाता है। दूसरे शब्दों में , उसी बदौलत मन का संस्कार होता है। यही उसका मुख्य उद्देश्य है।917

साहित्य कलाकार के आध्यात्मिक सामंजस्य का व्यक्त रूप है और सामंजस्य सौन्दर्य की सृष्टि करता है, नाश नहीं। 917

प्रगतिशील लेखक संघ, यह नाम ही मेरे विचार से गलत है। साहित्यकार या कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है।अगर यह उसका स्वभाव न होता, तो शायद वह साहित्यकार ही न होता। 917

अब तो हमें उस कला की आवश्यकता है, जिसमें कर्म का संदेश हो।918

कला का उद्देश्य सौन्दर्य-वृत्ति की पुष्टि करना है और वह हमारे आध्यात्मिक आनंद की कुंजी है, पर ऐसा कोई रुचिगत मानसिक तथा आध्यात्मिक आनंद नहीं , जो अपनी उपयोगिता का पहलू न रखता हो। 918

प्रकृति से अपने जीवन का सुर मिलाकर रहने में हमें इसलिए आध्यात्मिक सुख मिलता है कि उससे हमारा जीवन विकसित और पुष्ट होता है। 919

आजमाये को आजमाना मूर्खता है, इस कहावत के अनुसार यदि हम अब भी धर्म और नीति का दामन पकड़कर समानता के ऊँचे लक्ष्य पर पहुँचना चाहें, तो विफलता ही मिलेगी। क्या हम इस सपने को उत्तेजित मस्तिष्क की सृष्टि समझकर भूल जाएँ? तब तो मनुष्यता की उन्नति और पूर्णता के लिए कोई आदर्श ही बाकी न रह जायेगा। इससे कहीं अच्छा है कि मनुष्य का अस्तित ही मिट जाए। जिस आदर्श को हमने सभ्यता के आरंभ से पाला है। जिसके लिए मनुष्य ने, ईश्वर जाने कितनी कुर्बानियाँ की है, जिसकी परिणति के लिए धर्मों का आविर्भाव हुआ, मानव-समाज का इतिहास जिस आदर्श की प्राप्ति का इतिहास है, उसे सर्वमान्य समझकर, एक अमिट सचाई समझकर, हमें उन्नति के मैदान में कदम रखना है। हमें एक ऐसे नए संघटन को सर्वांगपूर्ण बनाना है, जहाँ समानता केवल नैतिक बंधनों पर आश्रित न रहकर अधिक ठोस रूप प्राप्त कर ले। हमारे साहित्य को उसी आदर्श को अपने सामने रखना है। 919

साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफ़िल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है- उसका दर्जा इतना न गिराइए। वह देश-भक्ति और राजनीति के पीछे चलनेवाली सचाई भी नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखती हुई चलने वाली सचाई है। 921

इसमें शक नहीं कि साहित्यकार पैदा होता है, बनाया नहीं जाता; पर यदि हम शिक्षा और जिज्ञासा से प्रकृति की इस देन को बढ़ा सकें , तो निश्चय ही हम साहित्य की अधिक सेवा कर सकेंगे। 921

सेवा में जो आध्यात्मिक आनंद है, वही हमारा पुरस्कार है 923

सादी जिंदगी के साथ ऊँची निगाह हमारे जीवन का लक्ष्य है। 923



मलवे का मालिक (कहानी)- मोहन राकेश,

  लेखक :   मोहन राकेश पूरे साढ़े सात साल के बाद लाहौर से अमृतसर आए थे. हॉकी का मैच देखने का तो बहाना ही था, उन्हें ज़्यादा चाव उन घरों और बा...