मुर्दहिया
लेखक - तुलसीराम
जन्म -1 जुलाई 1949
माता का नाम - धीरजा
मुर्दहिया हमारे गाँव धरमपुर आजमगढ़ की बहुउद्देशीय कर्मस्थली थी। चरवाही से लेकर हरवाही तक के सारे रास्ते वही से गुजरते थे। इतना ही नहीं स्कूल से दुकान ,बाजार हो या मंदिर यहाँ तक की मजदूरी के लिए कलकत्ता वाली रेलगाड़ी पकड़ना हो तो भी मुर्दहिया से गुजरना पड़ता था। हमारे गांव के जिओ पॉलटिक्स यानि भू -राजनीती में दलितों के लिए एक सामरिक केंद्र जैसी थी। जीवन से लेकर मरण तक की सारी गतिविधिया मुर्दहिया समेट लेती थी। सबसे रोचक तथ्य यह है की मुर्दहिया मानव और पशु में कोई फर्क नहीं करती थी।
मुर्दहिया सही मायनो में हमारी दलित बस्ती की जिंदगी थी। इस जिंदगी को मुर्दहिया से खोदकर लेन का पूरा श्रेय तद्भव के मुख्य संपादक अखिलेश को जाता है।
प्रवासी मजदूरों से ही पता चला की मुर्दहिया से होकर जाने वाली सड़क ने हमारे गांव को तीन जिलों -आजमगढ़ ,गाजीपुर तथा बनारस से जोड़ दिया है। ..... सम्भवतः मुर्दहिया से सड़क निकल जाने के कारण वहाँ के भूत -पिशाचो का भी पलायन अवश्य हो गया होगा। जाहिर है ,अब पहले जैसी उनकी पूजा नहीं होती। बढ़ते हुए शरीकरण ने हर एक के जीवन को प्रभावित किया है। भूत भी इससे अछूते नहीं है।
मुर्दहिया को सात अध्याय में विभक्त किया गया है।
- भूतही पारिवारिक पृष्टभूमि
- मुर्दहिया तथा स्कूली जीवन
- अकाल में अन्धविश्वास
- मुर्दहिया के गिद्ध तथा लोकजीवन
- भूतिनिया नागिन
- चले बुद्ध की राह
- आजमगढ़ की फाकाकशी
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लगभग 23 सौ वर्ष पूर्व यूनान देश से भारत आए मिनांदर ने कहा की आम भारतीयों को लिपि का ज्ञान नहीं है ,इस लिए वह पढ़ लिख नहीं सकते।
सदियों पुरानी इस अशिक्षा का परिणाम यह हुआ की मूर्खता और मूर्खता के चलते अंधविश्वासों का बोझ मेरे पूर्वजों के सिर से कभी नहीं हटा।
शुरुवात अगर दादाजी से करूँ जी के अनुसार उन्हें एक भूत ने लाठियों से पीट- पीटकर मार डाला था।
माँ ने बताया था की उसके कई बच्चे पैदा हुए किन्तु थोड़ा बड़ा हो -होकर सबके सब मरते चले गए। इसलिए जब में पैदा हुआ तो पिताजी मुझे अपनी गोद में लेकर गाँव से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर एक शिव मंदिर ,जिसे शेरपुर कुटी कहते थे ,पहुंचे और मंदिर के महंत हरिहर दास से आशीर्वाद देने के लिए विनती की।
भारत के अन्धविश्वास समाज में ऐसे व्यक्ति अशुभ की श्रेणी के लिए सूचीबद्ध हो जाता है। ऐसी श्रेणी में मेरा प्रवेश मात्र तीन वर्ष की अवस्था में हो गया। अतः घर से लेकर बाहर तक सबके लिए मैं अपशगुन बन गया।
बारह गांव के चमारो के चौधरी -सोम्मर - तुलसी राम के पिता के 5 भाइयो में सबसे बड़े
तीसरे नंबर के नग्गर जो बोहोत गुस्सैल स्वाभाव के थे और मुझे कनवा कह कर पुकारते।
बारह गांव के चौधरी के समक्ष जो समस्याए लाई जाती ,उनमे दो मामले बड़े विचित्र ढंग से सुलझाए जाते थे। इनमे से एक मामला होता था किसी युवती का गांव के किसी अन्य व्यक्ति के साथ यौन -सम्बन्ध या उसका बिन विवाह गर्भवती होना तथा दूसरा था किसी चमार द्वारा मरे हुए पशु [गाय ,बैल या भैंस ] माँस खाया जाना।
डांगर -मर हुए पशुओ का माँस
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