हिंदी साहित्य में किन्नर विमर्श -एक पूर्वपीठिका 

साहित्य किसी भी स्थिति की तहों में जाकर समाज का सरोकार उन विमर्शो और मुद्दों से करता है जिसका समाज पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समाज को हितकर बनाये। साहित्य अच्छे या बुरे सभी मुद्दों को सामने लाकर रख देता है जिस से मनुष्य  बिंदुओं को परख कर वास्तविकता से परिचित करवाता है। इसीलिए महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कहा है साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्य समाज के मानसिक प्रक्रिया को पढ़ता रहता है उसकी बुनावट देखता है। दबे ,कुचले शोषितो के प्रति आवाज उठाता है। साहित्य समतामूलक समाज की स्थापना करने के लिए निरंतर संघर्षशील रहता है ,उसे समाज में चल रहे असमानता से नफरत होती है। इसीलिए एक साहित्यकार अपनी जागरूकता से दलित ,स्त्री ,आदिवासी ,किसान ,किन्नर ,अल्पसंख्यक सभी वंचितों और असमानता का दंश झेलते समुदाय को न्याय दिलाने की लिए अपनी लेखनी को गतिशील रखता है। इन हासिये के समाज पर निरंतर विचार किया जा रहा है। 

साहित्य अपने समय से आगे की और ही देखता है। जहाँ वह एक नदी  भांति ही निरन्तर गतिशील रहती है। उसमे रुकावट नहीं आती क्योंकि साहित्यकार निर्भीक भी होता है। साहित्य नयी  दिशाओ में निरन्तर अनुसन्धान करता रहता है। साहित्य मुद्दों की प्रवृतियों पर अपना मुख्य उद्देश्य रखते हुए व्यक्ति के अंदर मनोरंजन ढंग से संवेदना को विकसित करता है। हिंदी साहित्य के विषय में भी यह बात युक्तियुक्त प्रतीति होती है।   

 स्त्री के गर्भ धारण करते ही यह निश्चित हो जाता है की लड़की होगी या लड़का। अगर xx क्रोमोसोम होते है तब लड़की का जन्म होता है और xy से लड़का जन्म लेता है परन्तु छह सप्ताह तक लड़की और लड़के दोनों के लिंग का स्वरुप एक जैसा ही रहता है। उसके बाद y क्रोमोसोम पर का sry नामक जीन कार्यरत होता है। उसमे फिर जननेन्द्रियों का विकास होने लगता है और हार्मोन्स तैयार होने की शुरुवात होती है। इसी तरह जैसे -जैसे गर्भ विकसित होता है बच्चा अपने शारीरिक संरचना में स्थायित्व प्राप्त कर लेता है। पुरुष हार्मोन्स एंड्रोजेन तैयार होता है। उसमे टेस्टास्टरोन हार्मोन की बड़ी मात्रा  होती है। इसी प्रकार बच्चों की संरचना रूप धारण करती है। 

यह प्रक्रिया सामान्यतः ऐसी ही चलती है और स्त्री पुरुष का जन्म होता रहता है। मगर बहुत बार इस प्रक्रिया में गड़बड़ी होने से लिंग निर्धारण पाता। इसके भी चार प्रकार के सिंड्रोम है पहले सिंड्रोम को टर्नर सिंड्रोम कहा जाता है। उसमे गर्भ का सिंड्रोम xx या xy न होकर इस से उलट xo होता है। पिता से आने वाले ,गर्भ को पुरुषत्व देनेवाला u क्रोमोसोम के न होने की वजह से बाहर के जननेन्द्रियों का विकास स्त्री जैसा ही होता है। इसी वजह से गर्भाशय का आभाव हो जाता है और वह बच्चा जन्म देने में असमर्थ होते है। इसमें स्त्री के विकास  के लिए दो x की जरुरत होती है। इस वजह से उसका पूरा स्वरुप स्त्री का होने के बावजूद उसमे मातृत्व गुण से वंचित रहना पड़ता है। 

दूसरा प्रकार होता है एंड्रोजन इंसेन्सिटिव सिंड्रोम। इसमें टेस्टा स्टारॉन हार्मोन को गर्भ रेस्पॉन्स नहीं देता। गर्भ अगर पुरुष का है ,xy तो इस वजह से उसकी पुरुष जननेन्द्रियों का विकास नहीं होता। नवजात बच्ची की जननेंद्रिय स्त्री की होती है,पर अण्डकोश ,गर्भशय नहीं होता। लेकिन स्तनों का विकास होता है। उसे मासिक धर्म नहीं होता,उनके बच्चे नहीं होते। जेनेटकली उसमे लड़के का प्रभाव होता है।

तीसरे प्रकार में पुरुष हार्मोन का ,एंड्रोजन का स्तर बहुत बढ़ता है गर्भ अगर लड़के का हो तो कोई सवाल पैदा नहीं होता ,पर लड़की का हो तो जन्मी हुई लड़की पुरुष ,टॉमबोइश पद्यति की होती है। 

चौथे प्रकार में पुरुष हार्मोन ,टेस्टास्टरोन काफी कम मात्रा में तैयार होते है। स्त्री का गर्भ हो तो कोई दिक्कत नहीं ,लेकिन गर्भ पुरुष का हो तो जननेंद्रिय पुरुषों की होने के बावजूद सोच और भावना आदि उसमे स्त्रीत्व की मिलती है। उसे स्त्री जैसा रहना ,बर्ताव करना अच्छा लगता है। किशोरावस्था में आने के बाद ये लड़के पुरुषों की ओर आकर्षित होते है। 

हिजड़ा का सम्बन्ध इसी चौथे प्रकार से है। हिजड़ा में शारीरिक रूप से वह पुरुष होते है लेकिन भावनाये स्त्रियों की निहित होती है। किसी के पास शरीर स्त्री का और भावनाये पुरुष की हो जाती है। हमारे यहाँ पुरुषों का विद्रोह स्त्रियों से आसान होता है। कई पुरुषों की भावना स्त्रियों की तरह होने के कारण उन्हें मउगा कह कर चिढ़ाया जाता है।   


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