हिंदी साहित्य में किन्नर विमर्श -एक पूर्वपीठिका 

साहित्य किसी भी स्थिति की तहों में जाकर समाज का सरोकार उन विमर्शो और मुद्दों से करता है जिसका समाज पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समाज को हितकर बनाये। साहित्य अच्छे या बुरे सभी मुद्दों को सामने लाकर रख देता है जिस से मनुष्य  बिंदुओं को परख कर वास्तविकता से परिचित करवाता है। इसीलिए महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कहा है साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्य समाज के मानसिक प्रक्रिया को पढ़ता रहता है उसकी बुनावट देखता है। दबे ,कुचले शोषितो के प्रति आवाज उठाता है। साहित्य समतामूलक समाज की स्थापना करने के लिए निरंतर संघर्षशील रहता है ,उसे समाज में चल रहे असमानता से नफरत होती है। इसीलिए एक साहित्यकार अपनी जागरूकता से दलित ,स्त्री ,आदिवासी ,किसान ,किन्नर ,अल्पसंख्यक सभी वंचितों और असमानता का दंश झेलते समुदाय को न्याय दिलाने की लिए अपनी लेखनी को गतिशील रखता है। इन हासिये के समाज पर निरंतर विचार किया जा रहा है। 

साहित्य अपने समय से आगे की और ही देखता है। जहाँ वह एक नदी  भांति ही निरन्तर गतिशील रहती है। उसमे रुकावट नहीं आती क्योंकि साहित्यकार निर्भीक भी होता है। साहित्य नयी  दिशाओ में निरन्तर अनुसन्धान करता रहता है। साहित्य मुद्दों की प्रवृतियों पर अपना मुख्य उद्देश्य रखते हुए व्यक्ति के अंदर मनोरंजन ढंग से संवेदना को विकसित करता है। हिंदी साहित्य के विषय में भी यह बात युक्तियुक्त प्रतीति होती है।   

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

हिंदी साहित्य में किन्नर विमर्श -एक पूर्वपीठिका  साहित्य किसी भी स्थिति की तहों में जाकर समाज का सरोकार उन विमर्शो और मुद्दों से करता है जिस...