भाषा साधन है, साध्य नहीं । अब हमारी भाषा ने वह रूप प्राप्त कर लिया है कि हम भाषा से आगे बढ़कर भाव की और ध्यान दें और इस पर विचार करें कि जिस उद्देश्य से यह निर्माण कार्य आरंभ किया था, वह क्योंकर पूरा हो। वही भाषा, जिसमे आरम्भ में बागोबहार और बैताल-पचीसी की रचना हु सबसे बड़ी साहित्य-सेवा थी , अब इस योग्य ही गई है कि उसमें शास्त्र और विज्ञान के प्रश्नों की भी विवेचना की जा सके और यह सम्मेलन इस सच्चाई की स्पष्ट स्वीकृति है।912

नीति -शास्त्र ओर साहित्य-शास्त्र का लक्ष्य एक ही है-केवल उपदेश की विधि में अंतर है। नीति-शास्त्र तर्कों और उपदेशों के द्वारा बुद्धि और मन पर प्रभाव डालने का यत्न करता है, साहित्य अपने लिए मानसिक अवस्थाओं और भावों का क्षेत्र चुन लिया है। 914

कवि या साहित्यकार में अनुभूति की जितनी तीव्रता होती है, उसकी रचना उतनी ही आकर्षक और उच्चे दर्जे की होती है। जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे,आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें शक्ति और गति न पैदा हो, हमारा सौंदर्य-प्रेम न जाग्रत हो -जो हममें सच्चा संकल्प और कठिनाइयों पर विजय पाने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करे, वह आज हमारे लिए बेकार है, वह साहित्य कहाने का अधिकारी नहीं। 915

हम साहित्यकार से यह भी आशा रखते हैं कि वह अपनी बहुज्ञता और अपने विचारों की विस्तृति से हमें जाग्रत कर, हमारी दृष्टि तथा मानसिक परिधि को विस्तृत करे- उसकी दृष्टि इतनी सूक्ष्म, इतनी गहरी और इतनी विस्तृत हो कि उसकी रचना से हमें आध्यात्मिक आनंद और बल मिले। 916

हम मानसिक और नैतिक गिरावट से उसी तरह संतुष्ट नहीं रहते, जैसे कोई रोगी अपने रोग से संतुष्ट नहीं रहता। जैसे वह सदा किसी चिकित्सक की तलाश में रहता है, उसी तरह हम भी इस फिक्र में रहते है कि किसी तरह अपनी कमजोरियों को परे फेंककर अधिक अच्छे मनुष्य बनें। इसलिए हम साधु-फकीरों की खोज में रहते हैं, पूजा-पाठ करते हैं, बड़े-बूढ़ों के पास बैठते हैं, विद्वानों के व्याख्यान सुनते हैं और साहित्य का अध्ययन करते हैं।916


साहित्य हमारे जीवन को स्वाभाविक और स्वाधीन बनाता है। दूसरे शब्दों में , उसी बदौलत मन का संस्कार होता है। यही उसका मुख्य उद्देश्य है।917

साहित्य कलाकार के आध्यात्मिक सामंजस्य का व्यक्त रूप है और सामंजस्य सौन्दर्य की सृष्टि करता है, नाश नहीं। 917

प्रगतिशील लेखक संघ, यह नाम ही मेरे विचार से गलत है। साहित्यकार या कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है।अगर यह उसका स्वभाव न होता, तो शायद वह साहित्यकार ही न होता। 917

अब तो हमें उस कला की आवश्यकता है, जिसमें कर्म का संदेश हो।918

कला का उद्देश्य सौन्दर्य-वृत्ति की पुष्टि करना है और वह हमारे आध्यात्मिक आनंद की कुंजी है, पर ऐसा कोई रुचिगत मानसिक तथा आध्यात्मिक आनंद नहीं , जो अपनी उपयोगिता का पहलू न रखता हो। 918

प्रकृति से अपने जीवन का सुर मिलाकर रहने में हमें इसलिए आध्यात्मिक सुख मिलता है कि उससे हमारा जीवन विकसित और पुष्ट होता है। 919

आजमाये को आजमाना मूर्खता है, इस कहावत के अनुसार यदि हम अब भी धर्म और नीति का दामन पकड़कर समानता के ऊँचे लक्ष्य पर पहुँचना चाहें, तो विफलता ही मिलेगी। क्या हम इस सपने को उत्तेजित मस्तिष्क की सृष्टि समझकर भूल जाएँ? तब तो मनुष्यता की उन्नति और पूर्णता के लिए कोई आदर्श ही बाकी न रह जायेगा। इससे कहीं अच्छा है कि मनुष्य का अस्तित ही मिट जाए। जिस आदर्श को हमने सभ्यता के आरंभ से पाला है। जिसके लिए मनुष्य ने, ईश्वर जाने कितनी कुर्बानियाँ की है, जिसकी परिणति के लिए धर्मों का आविर्भाव हुआ, मानव-समाज का इतिहास जिस आदर्श की प्राप्ति का इतिहास है, उसे सर्वमान्य समझकर, एक अमिट सचाई समझकर, हमें उन्नति के मैदान में कदम रखना है। हमें एक ऐसे नए संघटन को सर्वांगपूर्ण बनाना है, जहाँ समानता केवल नैतिक बंधनों पर आश्रित न रहकर अधिक ठोस रूप प्राप्त कर ले। हमारे साहित्य को उसी आदर्श को अपने सामने रखना है। 919

साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफ़िल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है- उसका दर्जा इतना न गिराइए। वह देश-भक्ति और राजनीति के पीछे चलनेवाली सचाई भी नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखती हुई चलने वाली सचाई है। 921

इसमें शक नहीं कि साहित्यकार पैदा होता है, बनाया नहीं जाता; पर यदि हम शिक्षा और जिज्ञासा से प्रकृति की इस देन को बढ़ा सकें , तो निश्चय ही हम साहित्य की अधिक सेवा कर सकेंगे। 921

सेवा में जो आध्यात्मिक आनंद है, वही हमारा पुरस्कार है 923

सादी जिंदगी के साथ ऊँची निगाह हमारे जीवन का लक्ष्य है। 923



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