हिंदी साहित्य में किन्नर विमर्श -एक पूर्वपीठिका 

साहित्य किसी भी स्थिति की तहों में जाकर समाज का सरोकार उन विमर्शो और मुद्दों से करता है जिसका समाज पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समाज को हितकर बनाये। साहित्य अच्छे या बुरे सभी मुद्दों को सामने लाकर रख देता है जिस से मनुष्य  बिंदुओं को परख कर वास्तविकता से परिचित करवाता है। इसीलिए महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कहा है साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्य समाज के मानसिक प्रक्रिया को पढ़ता रहता है उसकी बुनावट देखता है। दबे ,कुचले शोषितो के प्रति आवाज उठाता है। साहित्य समतामूलक समाज की स्थापना करने के लिए निरंतर संघर्षशील रहता है ,उसे समाज में चल रहे असमानता से नफरत होती है। इसीलिए एक साहित्यकार अपनी जागरूकता से दलित ,स्त्री ,आदिवासी ,किसान ,किन्नर ,अल्पसंख्यक सभी वंचितों और असमानता का दंश झेलते समुदाय को न्याय दिलाने की लिए अपनी लेखनी को गतिशील रखता है। इन हासिये के समाज पर निरंतर विचार किया जा रहा है। 

साहित्य अपने समय से आगे की और ही देखता है। जहाँ वह एक नदी  भांति ही निरन्तर गतिशील रहती है। उसमे रुकावट नहीं आती क्योंकि साहित्यकार निर्भीक भी होता है। साहित्य नयी  दिशाओ में निरन्तर अनुसन्धान करता रहता है। साहित्य मुद्दों की प्रवृतियों पर अपना मुख्य उद्देश्य रखते हुए व्यक्ति के अंदर मनोरंजन ढंग से संवेदना को विकसित करता है। हिंदी साहित्य के विषय में भी यह बात युक्तियुक्त प्रतीति होती है।   

 स्त्री के गर्भ धारण करते ही यह निश्चित हो जाता है की लड़की होगी या लड़का। अगर xx क्रोमोसोम होते है तब लड़की का जन्म होता है और xy से लड़का जन्म लेता है परन्तु छह सप्ताह तक लड़की और लड़के दोनों के लिंग का स्वरुप एक जैसा ही रहता है। उसके बाद y क्रोमोसोम पर का sry नामक जीन कार्यरत होता है। उसमे फिर जननेन्द्रियों का विकास होने लगता है और हार्मोन्स तैयार होने की शुरुवात होती है। इसी तरह जैसे -जैसे गर्भ विकसित होता है बच्चा अपने शारीरिक संरचना में स्थायित्व प्राप्त कर लेता है। पुरुष हार्मोन्स एंड्रोजेन तैयार होता है। उसमे टेस्टास्टरोन हार्मोन की बड़ी मात्रा  होती है। इसी प्रकार बच्चों की संरचना रूप धारण करती है। 

यह प्रक्रिया सामान्यतः ऐसी ही चलती है और स्त्री पुरुष का जन्म होता रहता है। मगर बहुत बार इस प्रक्रिया में गड़बड़ी होने से लिंग निर्धारण पाता। इसके भी चार प्रकार के सिंड्रोम है पहले सिंड्रोम को टर्नर सिंड्रोम कहा जाता है। उसमे गर्भ का सिंड्रोम xx या xy न होकर इस से उलट xo होता है। पिता से आने वाले ,गर्भ को पुरुषत्व देनेवाला u क्रोमोसोम के न होने की वजह से बाहर के जननेन्द्रियों का विकास स्त्री जैसा ही होता है। इसी वजह से गर्भाशय का आभाव हो जाता है और वह बच्चा जन्म देने में असमर्थ होते है। इसमें स्त्री के विकास  के लिए दो x की जरुरत होती है। इस वजह से उसका पूरा स्वरुप स्त्री का होने के बावजूद उसमे मातृत्व गुण से वंचित रहना पड़ता है। 

दूसरा प्रकार होता है एंड्रोजन इंसेन्सिटिव सिंड्रोम। इसमें टेस्टा स्टारॉन हार्मोन को गर्भ रेस्पॉन्स नहीं देता। गर्भ अगर पुरुष का है ,xy तो इस वजह से उसकी पुरुष जननेन्द्रियों का विकास नहीं होता। नवजात बच्ची की जननेंद्रिय स्त्री की होती है,पर अण्डकोश ,गर्भशय नहीं होता। लेकिन स्तनों का विकास होता है। उसे मासिक धर्म नहीं होता,उनके बच्चे नहीं होते। जेनेटकली उसमे लड़के का प्रभाव होता है।

तीसरे प्रकार में पुरुष हार्मोन का ,एंड्रोजन का स्तर बहुत बढ़ता है गर्भ अगर लड़के का हो तो कोई सवाल पैदा नहीं होता ,पर लड़की का हो तो जन्मी हुई लड़की पुरुष ,टॉमबोइश पद्यति की होती है। 

चौथे प्रकार में पुरुष हार्मोन ,टेस्टास्टरोन काफी कम मात्रा में तैयार होते है। स्त्री का गर्भ हो तो कोई दिक्कत नहीं ,लेकिन गर्भ पुरुष का हो तो जननेंद्रिय पुरुषों की होने के बावजूद सोच और भावना आदि उसमे स्त्रीत्व की मिलती है। उसे स्त्री जैसा रहना ,बर्ताव करना अच्छा लगता है। किशोरावस्था में आने के बाद ये लड़के पुरुषों की ओर आकर्षित होते है। 

हिजड़ा का सम्बन्ध इसी चौथे प्रकार से है। हिजड़ा में शारीरिक रूप से वह पुरुष होते है लेकिन भावनाये स्त्रियों की निहित होती है। किसी के पास शरीर स्त्री का और भावनाये पुरुष की हो जाती है। हमारे यहाँ पुरुषों का विद्रोह स्त्रियों से आसान होता है। कई पुरुषों की भावना स्त्रियों की तरह होने के कारण उन्हें मउगा कह कर चिढ़ाया जाता है।   


meera ke kavya me krishn ka swaroop

 विषय -  मीरा के काव्य में कृष्ण का स्वरुप   


भक्ति मनुष्य की अंतर्मन की वह आंतरिक चेतना है ,जो उसकी लघुता को विरातत्व में परिवर्तित करने की क्षमता रखता है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है की यह विराटत्व अर्थात अलौकिक धरातल की और ले जाने में सक्षम है और तब मनुष्य अपने भीतर की रिक्तता को पूर्णता में बदलने देने की कल्पना करता है। जो आत्मा और परमात्मा के मध्य एक तादात्म्य स्थापित करने का सूत्र बनता है। ईश्वर के प्रति आत्मा का सर्वस्व अर्पित कर देने का नाम ही भक्ति है। 

भक्ति भावना मन की उन अंतर्लहरियों से उत्पन्न होती है,जो प्रेम और श्रद्धा से होते हुए अपने वास्तविक स्वरुप को प्राप्त करती है। भक्ति का स्वरुप स्पष्ट  करते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते है -

"श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति हैं" | (1)                                                                                                                   

क्योंकि भक्ति से श्रद्धा और प्रेम को अलग नहीं किया जा सकता। भक्ति का आधार नारदीय पंचरात्र तथा शांडिल्य सूत्र जैसी प्राचीन रचनाए है परन्तु यह कहना की भक्ति का अस्तित्त्व इससे पूर्व नहीं था सर्वथा अनुचित होगा ,भारत में भक्ति मार्ग प्राचीन काल से प्रशस्त था। नारद ने भक्ति  को परिभाषित इस प्रकार किया - सा त्वस्मिन परम् प्रेमरूपा अमृत स्वरूपा चा। 

भारत के मध्यकाल का एक महत्वपूर्ण अध्याय है ,भक्ति आंदोलन का उदय और विकास। भक्ति के माध्यम से मनुष्य की मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वप्रमुख साधन भगवत सेवा ही है। जॉर्ज ग्रियर्सन ने भक्तिकाल को स्वर्णयुग कहा है जिसका प्रमुख कारण इस काल की विराटता है। तेरहवी से सोलहवीं शताब्दी के मध्य देशों के विभिन्न भागों में कृष्ण काव्य को रचने वाले कवि , कवयित्री हुई है उनमे से एक प्रमुख नाम है मीराबाई का जिनका माधुर्यमयी कृष्ण काव्य भक्ति का श्रेष्ट रूप है। 

 मीरा मध्यकाल के कृष्ण उपासक भक्तों में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करती है। उत्तर भारत में भक्ति का जो स्रोत अपने पूर्व वेग से प्रवाहित हुआ उसमें मीरा का अतुलनीय वह अविस्मरणीय योगदान है। भक्ति काल में भक्ति की दो धाराएं प्रमुख रूप से दृष्टिगत होती है सगुण तथा निर्गुण। मीरा सगुण भक्ति धारा को आधार बनाकर श्री कृष्ण काव्य में भक्ति के पदों की रचना की। कृष्ण काव्य में भक्ति के सिद्धांतों को बहुलता से प्रचार कर जन -सामान्य में लोकप्रिय बनाया। मीरा का काव्य का क्षेत्र सीमित है परंतु जितना भी लिखा उसे कालातीत बनाया जिनमें प्रमुख है राग सोरठा, नरसी जी का मायरा, मीरा की मल्हार ,मीरा पदावली, राग गोविंद ,गीत गोविंद ,गोविंद टीका। 

 मध्यकाल में स्त्री को एक परंपरागत यथास्थिति में रहने पर विवश किया जाता था। ऐसे समय में मीरा राजवंश की परंपरागत सामंती व्यवस्थाओं से संबंध विच्छेद करती है और तत्कालीन समय व समाज के समक्ष एक चुनौती बनकर प्रस्तुत  होती है। तत्कालीन समय और समाज में भक्ति से आत्मसात कर पूर्ण हृदय से अपने आराध्य देव श्री कृष्ण के समक्ष भक्ति रूपी नैवेध लेकर समर्पित हो गयी। 

 मीरा कृष्ण के रूप माधुर्य में इतनी डूब गयी कि अन्य किसी की कोई परवाह ही नहीं करती-

 "बरजी मैं काहू की नाहिं रहूँ" | (2)

माधुर्य काव्य की आत्मा भी और प्राण भी। मीरा की समस्त भक्ति साधना कृष्ण के अवतारी रूप केंद्रित है क्योंकि मीरा ने कृष्ण की भक्ति पति के रूप में की है उन्होंने तो अपनी मां के आदेशानुसार श्री कृष्ण को बचपन में ही अपना पति मान लिया था। गिरधर के अतिरिक्त उन्होंने किसी का वरण  नहीं किया वह स्पष्ट कहती है-

                                       "म्हारे री गिरिधर गोपाल दूसरौ न कोई |

                                       जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई" | (3)             

 मीरा का प्रेमी जगत का प्राणी नहीं है, यही मीरा की भक्ति अलौकिक रहस्यमयी रूप धारण कर लेती है इसे लौकिक प्रेम में परिवर्तन करना चाहती है। वह तो सृष्टि करता है, मीरा अपना संबंध कृष्ण से जन्म जन्मांतर का बताती है- 

 "मीरा के प्रभु कब रे मिलोगे, पूरब जणम के साथी" | (4)

 मीरा का प्रेम मीरा का प्रेम संयोग- वियोग दोनों पक्षों को लेकर चलता है, परंतु मीरा के संयोग प्रेम पक्ष में भी  विरानुभूति है। वहां अपने इष्ट श्री कृष्ण के प्रति दर्द का उत्कर्ष दिखता है। मीरा का विरह तो परंपरागत है परंतु कहीं भी उसका पृष्ट प्रेषण मात्र नहीं है, विरहणी  के अंतर्मन की व्याकुलता मिलती है-

"मैं हरि बिन न जीऊं माई |

पान ते पीरी भई मीरा, विथातन छाई ||

लाल गिरिधर की दासी मीरा उपजी सुखदाई |

अबके दरसन देहु मोहि न मुक्ति है जाई |

मैं हरि बिन न जीऊं माई" | (5)

मीरा के आविर्भाव काल में संतमत काफी प्रचलित थे परंतु मीरा में भक्ति भाव बाल्यकाल से ही जागृत हुआ।मीरा का पित्र कुल, यशस्वी मेड़तिया राठौड़ वंश, परम वैष्णव था। भक्ति का सूत्रपात मीरा में अनुवांशिकता के आधार पर हुआ। एक छोटी सी बालिका का प्रेम बीज रूप में उत्पन्न हुआ और समय के साथ-साथ युवावस्था में पल्लवित पुष्पित हुआ। इसी कारण उन्हें किसी गुरु के प्रति समर्पित नहीं होना पड़ा और उनकी भक्ति भावना संप्रदायों से मुक्त रही। 

 काव्यशास्त्र में वर्णित विरह की दस दशाएं का वर्णन मीरा के काव्य में लक्षित हुआ हैं,परंतु मीरा की कविता दर्द, पीड़ा, शोषण की नहीं अपितु स्त्री आकांक्षा, इच्छा और आत्मविश्वास की है। मीरा का जीवन और उनकी कविता दोनों ही पुरुष सत्तात्मक सामंती व्यवस्था के सामने प्रश्नचिन्ह लगाती है, उनके अस्वीकार का भाव कदम- कदम पर दिखता है, कृष्ण को खुले रुप से पति स्वीकार करना, पारंपरिक पर्दा ठुकरा कर एक तारे पर कृष्ण के पद गाना, साधु संगति में शामिल होना। समाज के खिलाफ मीरा का विद्रोह था, विरोध समाज से नहीं था समाज की विकृत मानसिकता, रूढ़ियों से था जो भक्ति के मार्ग में स्त्री पुरुष में अलगाव उत्पन्न करती है। प्रेम करना ही स्वतंत्रता का प्रथम लक्षण है और इसका सशक्त उदाहरण मीरा का काव्य है। मीरा की भक्ति भावना एक समर्पित साधक की भांति थी,जिसमें उनकी एक ही प्रबल इच्छा थी, श्री कृष्ण की आराधना में जीवन आहुति का अर्पण ही था। 

"मीराबाई अत्यंत उदार, मनोभावापन्न भक्त थी| उन्हें किसी पंथ विशेष का आग्रह नहीं था | जहाँ कही भी उन्हें भक्ति या चरित्र मिला वहीं उन्होंने उसे सिर माथे चढ़ाया हैं" |  (6)

  मीरा की भक्ति कृष्ण उपासक भक्त या कृष्ण संप्रदाय के भक्त कवि ही नहीं अपितु राम उपासक भक्त कवि भी मानते हैं, जब नाभादास कहते हैं-

 "लोक - लाज कुल श्रंखला तजि मीरा गिरिधर को भजि" | (7)

 मीरा के परिवारिक गृह क्लेश  से उनके भगवत भजन में बाधा पड़ती थी, वह गृह त्याग करना चाहती थी परंतु गृह त्याग तत्कालीन समय में एक स्त्री का अनैतिक कार्य था और नैतिक समर्थन मिलना और असंभव था परंतु मीरा द्वारा गृह त्याग भी होता है तब मीरा घर छोड़कर वृंदावन चली जाती है।  स्थितियों को झेलते हुए मीराबाई दिन- प्रतिदिन भगवत भक्ति में अधिकाधिक लीन  होती चली गई। मीरा गिरधर भक्ति में मगन श्री कृष्ण की प्रतिमा के समक्ष कृष्ण भक्तों के साथ भाव भक्ति में लीन होकर नृत्य करती क्योंकि कृष्ण के अतिरिक्त मीरा के लिए अन्य कोई पुरुष था ही नहीं-

"म्हाँ गिरिधर आंगा नाच्यारी (टेक)

णाच णाच म्हा रसिक रिझावा, प्रीत पुरातन जच्याँ री |

साधा ढिग बैठ - बैठ लोक लाज खूया |

भगत देखयाँ राजी हवयां जगत देखयाँ रुयां" | (8)

  "जिस तरह गोपियों की आसक्ति गोपीकृष्ण के प्रति थी, मीरा का प्रेम भी उन्हीं जैसा था| प्रेम के आलम्बन भी श्रीकृष्ण ही थे, परन्तु मीरा के इस भाव पर किसी का प्रभाव नहीं था| कृष्णभक्ति परम्परा में श्रीकृष्ण की प्रेममय मूर्ति को लेकर प्रेमतत्त्व की विशद रूप से अभिव्यंजना हुई हैं | कृष्ण भक्तों को उपास्य गोपीकृष्ण उन गोपिकाओं से घिरे हुए गोकुल के श्रीकृष्ण हैं, जो गोपिकायें प्रेमोनमत्त हैं कृष्ण के जिस मधुर रूप को लेकर भक्त कवियों की टोली चले, वह हास - विलास की तरंगों से परिपूर्ण अनंत सौन्दर्य का समुद्र हैं" | (9)

  मीरा का वास्तविक संघर्ष पति भोजराज की मृत्यु के उपरांत शुरू हुआ। जब एक राजघराने की बहू अपने पति की मृत्यु के पश्चात प्रचलित परंपरागत अवधारणाओं का सीधा सटीक विरोध करते हुए सती नहीं होती अपितु भक्तिन  हो गई। पति की मृत्यु उपरांत भी मीरा ने अपना शृंगार नहीं उतारा क्योंकि मीरा स्वयं को गिरधर की परिणीता मानती है। मीरा चाहती तो राजघराने का सुख में जीवन व्यतीत करती परन्तु उन्हें धुन थी तो अपने सांवरे श्री कृष्ण की। मीरा को पूर्ण विश्वास है कि उनके पति अजर- अमर है -

"जग सुहाग मिथ्या री सजनी, होवाँ हो मिट जाती|

वरन करयां अविनाशी म्हारो, काल व्याल रण खासी" | (10)

 मीराबाई ने भक्ति को एक नया आयाम दिया है एक ऐसा स्थान जहां भगवान ही मनुष्य  का सब कुछ होता है यही उनकी भक्ति का लक्ष्य और अभीष्ट है।

"नारी का वैधव्य होना भारतीय समाज में सबसे बड़ा अभिशाप है|खासकर रूप और यौवन से भरे अवस्था में वैधव्य का शिकार होना| मीरा के साथ ही यही हुआ | वह विषाद में डूब गयी और उन्होंने अपना मन गिरिधर की ओर मोड़ दिया|उनका मार्ग रोका गया, विरोध तो उत्कर्ष पर था, वर्जनाओं का मीरा को सामना करना पड़ा, लेकिन यह सारी विघ्न- बाधाएँ मीरा को डिगा नहीं सका...... मीरा मैं उस निर्मम बाल व्याल के प्रति रोष था, जिसने असमय ही उसे वैधव्य रूपी काल के गाल मैं धकेल दिया | मारने को उद्यत उनके स्वजन ने उन्हें सांप विष का प्याला ही नहीं भेजा, साँप का पिटारा भी भेंट किया | इन अन्यायपूर्ण अत्याचार के प्रति रोष का होना स्वाभाविक ही था, 'जिसमें मूरख जण सिंहासन राजा' पंडित फिरता द्वारा' की स्थिति थी" | (11)

 मीरा को भौतिक बंधन अर्थात सांसारिकता कोई लालसा नहीं है, मोह माया के भंवर रूपी जाल से पूर्णता मुक्त है -

"भोसागर जग बंधन झूठो, झूठाँ कुलराँ न्याती |

पल - पल थारा रूप निहाराँ, निरख - निरख मदमाती" | (12)

 प्रेम का परिष्कृत एवं शुद्ध रूप भक्ति है। जो भक्ति सोद्देश्य तथा निस्वार्थ, निश्चल भाव से की जाती है, वह भक्ति आराधना के उच्चतम सोपानों पर विराजमान होती है। ऐसी भक्ति का भाव उसका स्वरूप अनिर्वचनीय हो जाता है।  मीरा को किसी भांति चैन नहीं, केवल कृष्ण का नामोच्चारण करती है।  श्रीकृष्ण की मोहनी मूरत ,सांवली सूरत ह्रदय में बसी हुई है, इस कारण मीरा के प्राण श्री कृष्ण दर्शन के प्रति आकुल हैं। मीरा का यह विरह दिव्य भी है और पार्थिव भी, इसे भक्ति भी कह सकते हैं और प्रेम भी -

 "घड़ी एक नहीं आवड़े

तुम दरसन बिन मोय |

धान न भावै, नींद न आवै

बिरह सतावै मोय" |(13)

मीरा के मन में मिलन के तीव्र उत्कंठा है। बादल के उमड़ने पर, कोयल की कूकने पर, फागुन की चांदनी में हृदय प्रिय मिलन पर आतुर हो जाता है। प्रकृति से मानव का घनिष्ठ संबंध है, इसी कारण जब प्रेमी या प्रियसी अपने प्रिय से दूर हो तब प्रकृति ही एकमात्र साथी प्रतीत होती है, प्रेमी हृदय  उसे ही अपना दुख- दर्द बताता है क्योंकि प्रकृति मानव की सहचरणी है, वह उसका उपहास नहीं करेगी। ऐसे ही मीरा अपने गिरधर की अनुपस्थिति में प्रकृति में ही अपने प्रीतम कृष्ण को ढूंढती है। मीरा अपने गिरधर गोपाल को पति स्वरूप मानती है। एक और उन्हें उलाहने देती है, दूसरी ओर उनसे प्रेम निवेदन करती है-

  "तनक हरि चितवाँ म्हारी ओर |

हम चितवाँ थे चितवों ना,

हरि हिवड़ो बड़ो कठोर,

म्हारो आसा चितवण थारी, ओर णा दूजा ओर,

उभयाँ ठाढ़ी अरज करूँ हूँ, करताँ - करताँ भोर" | (14)


 मीरा को श्री कृष्ण कंत रूप में प्राप्त हो चुके हैं। प्रेम की मर्यादा का निर्वाह करती है, जब प्रियतम मिलने आते हैं तब वह लाज से छिप जाती है। समाज की रीति -नीति का पूर्ण ध्यान रखती है। उनके अनुभव सौंदर्य को अनुभव कर  प्रेमाशक्ति बढाती है। नित नई अभिलाषा मीरा के हृदय में उत्पन्न होती है, यही भाव प्रेम आलिंगन की प्रगाढ़ता की चरम स्थिति को दर्शाता है-

"मैं गिरधर रंग रीत, सैया मैं गिरधर रंग रीत |

पंचरंग चोला पहन सखी मैं झिरमिट खेलन जाती |

ओह झिरमिट मां मिल्यो सांवरो, खोल मिली तन गाती" | (15)


 मीरा हर उस बाधा को त्याग देना चाहती है, जो प्रिय मिलन में रुकावट बने। मीरा केवल कृष्ण का सानिध्य चाहती है  यही उनके प्रेम की ललक, उत्साह और आकर्षक है। बिना किसी लांछनाओं की परवाह किए मीरा सहयोग सुख से श्री कृष्ण के रूप -रस -मुग्ध छवि का मनोरम लोक में विचरण करने लगी। मीरा के संयोग के चित्र मधुर हैं, जिनमें विविधता है, कहीं कृष्ण के सगुण रूप का चित्रण है तो कहीं निर्गुण ब्रह्म के रूप में झलक मिलती है। 

मीरा ,श्रीकृष्ण की भक्ति में प्रेम दीवानी हो गई, उनके इस दीवानेपन की उत्कर्ष एवं अलौकिकता  को उनके स्वजन भी न पहचान सके, पहचाने तो मीरा को 'कुलनाशी' की संज्ञा से अभिहित न करते। मीरा इस बात की परवाह नहीं करती की कृष्ण उनसे प्रेम करते हैं या नहीं वह तो बस कृष्ण प्रेम दीवानी है, मीरा में कृष्ण की लगन है, अपने गिरधर के बिना मीरा जीवन का व्यर्थ मानती है। तभी कहती है-'नागर नंदकुमार लाग्यो थारो नेह' वस्तुतः भक्त शिरोमणि मीराबाई की भक्ति प्रेमा भक्ति है। इनके साध्य  केवल मात्र कृष्ण है, तो साधन भी कृष्ण है। वह अपने साध्य  के प्राप्ति हेतु अन्य किसी अवलंबन को आवश्यक नहीं मानती। इस तरह की भक्ति जहाँ साध्य  और साधन का भेद नष्ट हो जाता है वह भक्ति पराभक्ति में परिवर्तित हो जाती है। मीरा की भक्ति की यही आधारशिला है इस दृष्टि से मीराबाई की भक्ति का अवलोकित दृष्टि द्वारा  विश्लेषण किया जाए तो वह भक्ति प्रेमा भक्ति की कसौटी पर  पूर्णतः खरी उतरती है।  

मीरा ने  गिरधर नागर की भक्ति माधुर्य  भाव से की जिसमें  भक्त ईश्वर को अपने पति के सर्वोच्च रूप में देखता है।  इसी रूप में ईश्वर का स्मरण,वंदन करता है। मीरा की भक्ति का स्वरूप का निर्धारण प्रेमा भक्ति है, प्रेमा भक्ति का आकर्षण अलौकिक होता है अर्थात स्वयं ही भगवत स्वरूप होता है। यही मीरा की भक्ति की विशेषता है। 

 मीरा ने अन्य कृष्ण भक्त कवियों की तरह राधा गोपी की पीड़ा या विरह  का वर्णन नहीं किया अपितु अपने ही व्याकुल विरह वेदना का वर्णन किया है।मीरा कृष्ण भक्ति में स्वयं राधा बन गई। मीरा ने अपने इष्ट देव कृष्ण की उपासना राधात्मक भाव से की है, इसलिए मीरा स्वयं को राधा का अवतार भी मानती है-

"कोई म्हारो जन्म बारम्बार | रास पूणों जनमिया री राधिका अवतार" | (16)

 मीरा स्वयं में एक आदर्शवादी धर्म परायण हिंदू स्त्री है। भावनात्मक दृष्टि से पतिव्रता स्त्री के कर्तव्य का पालन करती है मीरा के नारीत्व में विलास एवं भोग की वृति नहीं है ,अपने अंतर्मन में प्रियतम गिरधर का अनुभव हर क्षण  करती है। विषम परिस्थितियों में भी कृष्ण भक्ति से विमुख नहीं हुई। अपने कृष्ण की भक्ति को ही एकनिष्ठ भाव से किया शेष  संसार को क्षणभंगुर ही माना। श्री कृष्ण के श्री चरणों में ही अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया, कहा जाता है कि रणछोड़ जी की मूर्ति ने इन्हें अंतर्लीन कर लिया-

"अब मिली विछुरन नहिं कीजै" | (17)

श्री कृष्ण के स्वरुप में एकाकार होना ही मीरा की अंतिम चेष्टा है। डॉ. कृष्णदेव शर्मा के अनुसार -

"समर्पण भाव स्वयं में प्रेम की पराकाष्ठा हैं | हिन्दू नारी के प्रेम का सर्वाधिक आलोकमय धरातल समर्पण भाव का धरातल होता हैं | अपने प्रियतम के लिए लोक - लाज और कुल मर्यादा की भी आहुति दे देती हैं | लौकिक जगत में सामान्य आकर्षण अपना अस्तित्व खो बैठते है | केवल एक ही भाव, एक ही लक्ष्य बचा रहता है ओर वह है प्रियतम को रिझाना, उसके साथ एकाकार हो जाना | इस लक्ष्य का भाव स्वभावतः समर्पण और त्याग से ही संभव हैं" | (18)

 मीरा का प्रेम कृष्ण भक्ति लौकिक और अलौकिक दोनों रूपों में दिखाई देता है इस कारण पत्नी रूप की नवीन व्याख्या नवीन संदेश देती है। 

 निष्कर्ष

 मीरा कृष्ण भक्तों में सर्वश्रेष्ठ स्थान रखती है।  मीराबाई भारतीय जनमानस में आस्था व श्रद्धा का प्रतीक है। इनकी प्रासंगिकता इसी तथ्य को उजागर करती है कि अपनी प्रगतिशील व्यक्तित्व से जनमानस का मार्ग प्रशस्त करती है साथ ही भक्ति में प्रेम में होकर श्री कृष्ण के प्रति अपनी अद्भुत अनन्य प्रेम भावना को व्यापक व उदात्त भाव प्रदान करती है। मीरा के प्रेम तथा भक्ति भावना का स्वरूप अत्यंत समृद्ध है। श्री कृष्ण के प्रेम में उत्कंठित होकर मीरा का गृह त्याग देना एक ऐसी घटना है जो उनके प्रेम की प्रगाढ़ता को दर्शाती है। 'कुलकानि ,कलंकिनी'  जैसे संबोधन से भी मीरा की भक्ति में रंच मात्र भी परिवर्तन नहीं आता अपितु  भक्ति दिन -प्रतिदिन बढ़ती ही जाती है।

 मीरा तत्कालीन समय में निर्भीकता से अपनी गिरधर भक्ति का पक्ष रखती है। इस निडरता  ने जो वैधव्य  मीरा के हृदय में प्रेम को जन्म दिया, वही कृष्ण के प्रति माधुर्य प्रेम था। 

मीरा की गिरधर भक्ति विवशता नहीं थी ,मीरा ने श्री कृष्ण के विविध रूपों के दर्शन किये थे अब अन्य किसी का वह अपनी दृष्टि में स्थान नहीं चाहती क्योकि इन नेत्रों ने गिरधर के दर्शन किये है। मीरा विपरीत परिस्थितियों में भी एकमात्र गिरधर को ही अपना प्राणतत्व मानती है। अनेक प्रकार की यातनाये तथा निंदा से भी विचलित नहीं होती और कृष्ण के प्रति अपनी  भक्ति का आह्वान करती है। मीरा का जीवन संघर्षमय है,मीरा के विष का प्याला,अमृत में बदल जाता है यही भक्ति मीरा की अपने इष्टदेव के प्रति भक्ति वैशिष्ट्य को नया  आयाम देती है। 

मीरा और मीरा की भक्ति  गिरधर नागर के प्रति दोनों ही अविस्मरणीय है ,मीरा युगों - युगों तक हिंदी साहित्य में अपनी कृष्ण भक्ति के लिए अमर हो गई। 


 • संदर्भ ग्रन्थ सूची


1) चिंतामणि भाग -1 -आचार्य रामचंद्र शुक्ल ,पृ -19 ,इंडियन प्रेस लिमटेड                                                  

2) मीराबाई की पदावली, परशुराम चतुर्वेदी, पद संख्या - 46 

3) मीरा का काव्य और भक्ति आंदोलन, डॉ. शेखर कुमार, पृ. सं -47

4) उपरोक्त पृ. सं - 62

5) उपरोक्त पृ. सं - 53

6) हिंदी साहित्य उद्भव और विकास, आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ. सं - 121

7) मीरा का काव्य और भक्ति आंदोलन, डॉ. शेखर कुमार, पृ. सं - 68

8) उपरोक्त पृ. सं - 64

9) हिंदी साहित्य का इतिहास, आ. रामचंद्र शुक्ल, पृ. सं - 151

10) मीराबाई की पदावली, परशुराम चतुर्वेदी, पृ. सं - 156

11) उपरोक्त पृ. सं - 190

12) मीरा का काव्य और भक्ति आंदोलन, डॉ. शेखर कुमार, पृ. सं -52

13) प्रेम की प्रतीत: आण्डाल, मीरा और महादेवी की रचनाओं का अध्ययन, गीता सिन्हा, पृ. सं - 91

14) उपरोक्त पृ. सं - 92

15) मीराबाई की पदावली, परशुराम चतुर्वेदी, पद संख्या - 20

16) मीरा दर्शन, प्रो. मुरलीधर श्रीवास्तव, पृ. सं - 79

17) हिंदी साहित्य युग एवं प्रवृत्तियां, शिवकुमार शर्मा, पृ. सं - 290

18) मीराबाई पदावली, डॉ. कृष्णदेव शर्मा, पृ. सं - 66

didik

डॉ. कमलकिशोर गोयनका ने प्रेमचंद को भारतीयता से जोड़कर भारतीय चिंतन परंपरा में व्याख्यायित किया है।

प्रेमचंद ने बार-बार भारतीयों को सनातन संस्कृति पर चलने की सीख दी लेकिन प्रेमचंद के मूल्यांकन में इन चीजों को शामिल नहीं किया जाता है।

प्रेमचंद पर कब तक काफी लिखा-पढ़ा गया है, लेकिन डॉ. 

 लेखक ने भारतीय जीवनादर्शों एवं मूल्यों की तुलना में पाश्चात्य जीवनादर्शों एवं मूल्यों को हीन और निम्नकोटि का मानते हुए भारतीय मूल्यों की स्थापना की हैं।23

इस उपन्यास में प्रेमचंद ने मुख्यतः किसानों औऱ जमींदारों के प्रश्न को उठाया है, परन्तु इसमें इन दोनों वर्गों से संबंधित अन्य व्यवसायों तथा निहित स्वार्थों के लोगों का भी चित्रण हुआ है।24

पश्चिमी जीवन दृष्टि , संस्कार और मूल्यों की अनिष्टकरिता और भारतीय जीवन-दृष्टि , संस्कार और मूल्यों की श्रेष्ठता दिखाना ही लेखक का उद्देश्य रहा है। 28
भाषा साधन है, साध्य नहीं । अब हमारी भाषा ने वह रूप प्राप्त कर लिया है कि हम भाषा से आगे बढ़कर भाव की और ध्यान दें और इस पर विचार करें कि जिस उद्देश्य से यह निर्माण कार्य आरंभ किया था, वह क्योंकर पूरा हो। वही भाषा, जिसमे आरम्भ में बागोबहार और बैताल-पचीसी की रचना हु सबसे बड़ी साहित्य-सेवा थी , अब इस योग्य ही गई है कि उसमें शास्त्र और विज्ञान के प्रश्नों की भी विवेचना की जा सके और यह सम्मेलन इस सच्चाई की स्पष्ट स्वीकृति है।912

नीति -शास्त्र ओर साहित्य-शास्त्र का लक्ष्य एक ही है-केवल उपदेश की विधि में अंतर है। नीति-शास्त्र तर्कों और उपदेशों के द्वारा बुद्धि और मन पर प्रभाव डालने का यत्न करता है, साहित्य अपने लिए मानसिक अवस्थाओं और भावों का क्षेत्र चुन लिया है। 914

कवि या साहित्यकार में अनुभूति की जितनी तीव्रता होती है, उसकी रचना उतनी ही आकर्षक और उच्चे दर्जे की होती है। जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे,आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें शक्ति और गति न पैदा हो, हमारा सौंदर्य-प्रेम न जाग्रत हो -जो हममें सच्चा संकल्प और कठिनाइयों पर विजय पाने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करे, वह आज हमारे लिए बेकार है, वह साहित्य कहाने का अधिकारी नहीं। 915

हम साहित्यकार से यह भी आशा रखते हैं कि वह अपनी बहुज्ञता और अपने विचारों की विस्तृति से हमें जाग्रत कर, हमारी दृष्टि तथा मानसिक परिधि को विस्तृत करे- उसकी दृष्टि इतनी सूक्ष्म, इतनी गहरी और इतनी विस्तृत हो कि उसकी रचना से हमें आध्यात्मिक आनंद और बल मिले। 916

हम मानसिक और नैतिक गिरावट से उसी तरह संतुष्ट नहीं रहते, जैसे कोई रोगी अपने रोग से संतुष्ट नहीं रहता। जैसे वह सदा किसी चिकित्सक की तलाश में रहता है, उसी तरह हम भी इस फिक्र में रहते है कि किसी तरह अपनी कमजोरियों को परे फेंककर अधिक अच्छे मनुष्य बनें। इसलिए हम साधु-फकीरों की खोज में रहते हैं, पूजा-पाठ करते हैं, बड़े-बूढ़ों के पास बैठते हैं, विद्वानों के व्याख्यान सुनते हैं और साहित्य का अध्ययन करते हैं।916


साहित्य हमारे जीवन को स्वाभाविक और स्वाधीन बनाता है। दूसरे शब्दों में , उसी बदौलत मन का संस्कार होता है। यही उसका मुख्य उद्देश्य है।917

साहित्य कलाकार के आध्यात्मिक सामंजस्य का व्यक्त रूप है और सामंजस्य सौन्दर्य की सृष्टि करता है, नाश नहीं। 917

प्रगतिशील लेखक संघ, यह नाम ही मेरे विचार से गलत है। साहित्यकार या कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है।अगर यह उसका स्वभाव न होता, तो शायद वह साहित्यकार ही न होता। 917

अब तो हमें उस कला की आवश्यकता है, जिसमें कर्म का संदेश हो।918

कला का उद्देश्य सौन्दर्य-वृत्ति की पुष्टि करना है और वह हमारे आध्यात्मिक आनंद की कुंजी है, पर ऐसा कोई रुचिगत मानसिक तथा आध्यात्मिक आनंद नहीं , जो अपनी उपयोगिता का पहलू न रखता हो। 918

प्रकृति से अपने जीवन का सुर मिलाकर रहने में हमें इसलिए आध्यात्मिक सुख मिलता है कि उससे हमारा जीवन विकसित और पुष्ट होता है। 919

आजमाये को आजमाना मूर्खता है, इस कहावत के अनुसार यदि हम अब भी धर्म और नीति का दामन पकड़कर समानता के ऊँचे लक्ष्य पर पहुँचना चाहें, तो विफलता ही मिलेगी। क्या हम इस सपने को उत्तेजित मस्तिष्क की सृष्टि समझकर भूल जाएँ? तब तो मनुष्यता की उन्नति और पूर्णता के लिए कोई आदर्श ही बाकी न रह जायेगा। इससे कहीं अच्छा है कि मनुष्य का अस्तित ही मिट जाए। जिस आदर्श को हमने सभ्यता के आरंभ से पाला है। जिसके लिए मनुष्य ने, ईश्वर जाने कितनी कुर्बानियाँ की है, जिसकी परिणति के लिए धर्मों का आविर्भाव हुआ, मानव-समाज का इतिहास जिस आदर्श की प्राप्ति का इतिहास है, उसे सर्वमान्य समझकर, एक अमिट सचाई समझकर, हमें उन्नति के मैदान में कदम रखना है। हमें एक ऐसे नए संघटन को सर्वांगपूर्ण बनाना है, जहाँ समानता केवल नैतिक बंधनों पर आश्रित न रहकर अधिक ठोस रूप प्राप्त कर ले। हमारे साहित्य को उसी आदर्श को अपने सामने रखना है। 919

साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफ़िल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है- उसका दर्जा इतना न गिराइए। वह देश-भक्ति और राजनीति के पीछे चलनेवाली सचाई भी नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखती हुई चलने वाली सचाई है। 921

इसमें शक नहीं कि साहित्यकार पैदा होता है, बनाया नहीं जाता; पर यदि हम शिक्षा और जिज्ञासा से प्रकृति की इस देन को बढ़ा सकें , तो निश्चय ही हम साहित्य की अधिक सेवा कर सकेंगे। 921

सेवा में जो आध्यात्मिक आनंद है, वही हमारा पुरस्कार है 923

सादी जिंदगी के साथ ऊँची निगाह हमारे जीवन का लक्ष्य है। 923



हिंदी साहित्य में किन्नर विमर्श -एक पूर्वपीठिका  साहित्य किसी भी स्थिति की तहों में जाकर समाज का सरोकार उन विमर्शो और मुद्दों से करता है जिस...