कुछ प्रमुख रचनाये

कुछ प्रमुख रचनाये 

महादेवी वर्मा 

  • श्रृंखला की कड़ियाँ -1942 
  • क्षणदा -1957 
  • साहित्यकार की आस्था -1964 
  • सम्भाषण -1975 
  • भारतीय संस्कृति के स्वर -1984 
  • संकल्पिता -1964 
  • विवेचनात्मक गद्य 
हरिवंश राय बच्चन 
  • नये पुराने झरोखे -1962 
  • टूटी फूटी कड़िया -1973 
रामवृक्ष बेनीपुरी 
  • गेहूँ और गुलाब -1950 
  • वन्दे वाणी विनायको -1954 
विद्यानिवास मिश्र 
  • छितवन की छाँह -1953 
  • कदम की फूली डाल  -1956 
  • तुम चन्दन हम पानी -1957 
  • मैंने सिल पहुंचाई -1966 
  • मेरे राम का मुकुट भीग रहा हैं -1974 
  • कौन तू फुलवा बीनन हारी -1980 
कुबेरनाथ राय 
  • प्रिया नीलकण्ठी -1968 
  • रस आखेटक -1970 
  • गंध मादन -1972
  •  विषाद योग-1973 
  • पर्ण मुकुट -1978 
  • कामधेनु -1980 
  • मराल -1993 

दिनकर  
  • मिट्टी की ओर -1946 
  • अर्धनारीश्वरी -1952 
  • रेती के फूल -1954 
  • हमारी सांस्कृतिक एकता -1956 
  • वेणुवन -1958 
  • वट पीपल -1961 
  • आधुनिकता बोध -1973 
अज्ञेय 

नेट के लिए कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न

नेट के लिए कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न 


 प्रश्न१  -अपने सूखी लकड़ी के तख्तो पर उसे सुलाते हो ,आप कीचड़ में पड़े रहते हो। कही तुम न मांदे पड़ जाना। जाड़ा क्या  है,मौत है और निमोनिया से मरने वाले को मुरब्बा  मिला करते -किस कहानी की पंक्ति है 
1 -कानो में कगना 
2 -तीसरी कसम 
3 -अपना अपना भाग्य 
4 -उसने कहा था 

प्रश्न२  -ऐश्वर्य और निर्वासन दोनों साथ साथ चलते है। जिसे ऐश्वर्य सौपा जाना है। उसको निर्वासन पहले से बड़ा है जिन लोगो के बीच रहता हूँ ,वे सभी मगल नाना के नाती है। किस निबंध की पंक्ति है 
1 -मजदूरी और प्रेम 
2 मेरे राम का मुकुट भीग रहा है 
3 -उत्तर फाल्गुनी के आस पास 
4 -उठ जाग मुसाफिर 

प्रश्न ३ -ऐसा चाँद ,जिसके प्रकाश से संस्कृत कवियों  हुआ क्षयी नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी की बाणभट्ट की आशा में दंतवीणोपदेशाचार्य कहलाती है - पंक्ति है 
1 बाणभट्ट की आत्मकथा 
2 -जिंदगीनामा 
3 अमृतसर आ  गया 
4 उसने कहा था 

प्रश्न४  -पहले से किसी बात का मनसूबा नहीं बांधना चाहिए किसी को। भगवन ने मनसूबा तोड़ दिया। उसे सबसे पहले भगवन से पूछना है भोले बाबा --
1 - तीसरी कसम 
2 -लाल पान की बेगम 
3 -उसने कहा था 
4 -कोशी का घटवार 

प्रश्न५  -मृत्यु के कुछ पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जन्म -भर की घटनाएँ एक -एक करके सामने आती है। सारे दृश्यों के रंग साफ होते है ,समय की धुंध बिल्कुल उनपर से हट जाती है। -पंक्ति है 
 -1 - तीसरी कसम 
2 -लाल पान की बेगम 
3 -उसने कहा था 
4 -कोशी का घटवार

प्रश्न ६ -बोझिल अनिश्चित -से वातावरण में सफर कटने लगा। रात गहराने लगी थी। -पंक्ति है 
1  - तीसरी कसम 
2 -अमृतसर आ गया 
3 -उसने कहा था 
4 -कोशी का घटवार

प्रश्न ७ -मूल्य भी क्या तोड़ने की चीज है जो तोड़ोगे ?वह बदला जा सकता है तोडा नहीं जा सकता। -पंक्ति है 
1 -मजदूरी और प्रेम 
2 मेरे राम का मुकुट भीग रहा है 
3 -उत्तर फाल्गुनी के आस पास 
4 -उठ जाग मुसाफिर 

प्रश्न८  -न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे  हुए है या घास की पतियों में छुपे रहते है। 
 - तीसरी कसम 
2 -अमृतसर आ गया 
3 -उसने कहा था 
4 -कोशी का घटवार

प्रश्न९  -मीठी छुरी  तरह महीन मर करती है। यदि कोई बुढ़िया बार बार चेतावनी देने पर भी लीक से नहीं हटती तो --
 - तीसरी कसम 
2 -अमृतसर आ गया 
3 -उसने कहा था 
4 -कोशी का घटवार

प्रश्न१०  -दूध की तरह अपमान की ज्वाला में चित्त कूद पड़ने के लिए उफनता है और बच्चो की प्यारी और मासूम सूरत देखते ही उस पर पानी के छींटे पद जाते है ,उफान दब  है। 
1 -मजदूरी और प्रेम 
2 मेरे राम का मुकुट भीग रहा है 
3 -उत्तर फाल्गुनी के आस पास 
4 -उठ जाग मुसाफिर 

प्रश्न११  --- भाई ,हम तो हिंदुस्तानी भारतवर्ष की बात नहीं जानते। हम अपने गांव की बात जानते है। आप भला तो जग भला है। हम तो इसी गांव का कल्याण देखते है की सभी भाई ,क्या गरीब क्या अमीर सब भाई मिल कर एकता से रहे। 
1 -राग दरबारी 
2 -मैला आँचल 
3 -गोदान 
4 -बाणभट्ट की आत्मकथा 


उत्तर १ -4 
२ -2 
३- 4 
४ -2 
५ -3 
६ -2 
७ -3 
८ -3 
९ -3 
१० -2 
११ -2 

देवकांत सिंह 

नेट जे आर एफ 

नेट में लगे नाटककारों का जन्म

नेट में लगे नाटककारों का जन्म 

  • भारतेन्दु -1850 
  • जयशंकर प्रसाद -1889 
  • धर्मवीर भारती -1926 
  • लक्ष्मीनारायण लाल -1903 
  • मोहन राकेश -1925 
  • हबीब तनवीर -1923 
  • सर्वेश्वर दयाल सक्सेना -1927 
  • शंकर शेष -1933 
  • उपेन्द्रनाथ अश्क -1910 
  • मन्नु भण्डारी -1931 

देवकांत सिंह -मोबाईल न-9555935125 

नेट / जे. आर. एफ

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सिंघलदीप खंड

सिंघलदीप  खंड 

राजै कहा दरस जौ पावौं । परबत काह, गगन कहँ धाावौं॥
जेहि परबत पर दरसन लहना । सिर सौं चढ़ौं, पाँव का कहना॥
मोहूँ भावै ऊँचै ठाऊँ । ऊँचै लेउँ पिरीतम नाऊँ॥
पुरुषहि चाहिय ऊँच हियाऊ । दिन दिन ऊँचे राखै पाऊ॥
सदा ऊँच पै सेइय बारा । ऊँचै सौं कीजिय बेवहारा॥
ऊँचे चढ़ै, ऊँच खंड सूझा । ऊँचै पास ऊँच मति बूझा॥
ऊँचे सँग संगति नित कीजै । ऊँचे काज जीउ पुनि दीजै॥

दिन दिन ऊँच होइ सो, झेहि ऊँचे पर चाउ।

ऊँचे चढ़त जो सखि परै, ऊँच न छाड़िय काउ॥5॥


सन्दर्भ -प्रस्तुत पंक्तियाँ पद्मावत के सिंघल द्वीप खंड से लिया गया है। इसके रचनाकार मालिक मोहम्मद जायसी  है। इसका रचनाकाल 1540 ई है। 

प्रसंग -इसमें कवि ने तोते द्वारा रत्नसेन को सिंघल द्वीप की राजकुमारी की सुंदरता का वर्णन किया है। हिरामन तोता रत्नसेन को  पद्मावती से मिलने के बारे में बताता है। 

व्याख्या -पद्मावती सिंघल द्वीप की राजकुमारी है। राजा रत्नसेन उस पर मोहित हो गया है। हिरामन ने उसके बारे में ऐसा वर्णन किया की वह अपना राज्य छोड़ कर उसके लिए यहाँ पर आ गया। हिरामन राजा से कहता है। की अगर आपको उसका दरसन करना है तो पर्वत पर जाना होगा। वह उच्चाई से आप दर्शन कर सकोगे। पुरुष को उच्च होना चाहिए।  व्यक्ति को अच्छा व्यव्हार भी करना चाहिए। उच्चा  संगती करनी चाहिए। उच्चे विचार रखने चाहिए। 
जो हमेशा दिन प्रतिदिन उच्चा होता है। अथार्थ अपने को उस योग्य बनाता है। वही अपने कार्यों में सदा सफल होता है। अगर उच्चै चढ़ने में गिर भी जाते है तो हमे फिर से पर्यटन करना चाहिए। उस से भागना नहीं चाहिए

काव्यगत विशेषता -
  •  नायक का नायिका के प्रति पूर्वानुराग 
  • अवधी भाषा  का प्रयोग 
  • दोहा -चौपाई   शैली का प्रयोग 
  • नीति की बातो का प्रयोग 
रजनीकांत सिंह 

नेट में लगी कहानियों के पात्र

नेट में लगी कहानियों के पात्र 
उसने कहा था 

  • लहना सिंह 
  • सूबेदारनी 
  • सूबेदार 
  • हजारा सिंह 
  • बोधा 
  • वजीरा सिंह 
  • कीरत सिंह 
तीसरी कसम 
  • हीरामन 
  • हीराबाई 
लाल पान की बेगम -रेणु 
  • बिरजू 
  • माँ 
  • चंपिया 
  • जंगी की पतोहू 
चीफ की दावत 
  • शामनाथ 
  • बूढी माँ 
  • पत्नी 
परिंदे 
  • लतिका 
  • डॉक्टर मुखर्जी 
  • मिस्टर ह्यूबर्ट 
  • गिरीश 
  • फादर एलमंड 
  • मिस वुड 
ईदगाह 
  • हामिद 
  • अमीना 
  • मोहसीन 
  • सम्मी 
  • नूरे 
  • महमूद 
कफ़न 
  • घीसू 
  • माधव 
कोशी का घटवार 
  • गुसाई -मुख्य पात्र 
  • लक्ष्मा -नायिका 
  • रमुवा -लक्ष्मा का पति 
राजा निरबंसिया 
  • जगपति -मुख्या पात्र 
  • चंदा -जगपति की पत्नी  
  • बचन सिंह -कम्पाउंडर 
  • जमना सुनार 
  • मुंशीजी 

देवकांत सिंह -मोबाईल न-9555935125 

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sindur ki holi ki pdf

सिंदूर की होली -लक्ष्मीनारायण मिश्र 

सिंदूर की होली -1934 

लक्ष्मीनारायण मिश्र -1903 

पात्र 

  • रजनीकांत 
  • मनोजशंकर 
  • मुरारीलाल -डिप्टी कलेक्टर 
  • माहिर अली -मुरारी का मुंशी 
  • भगवंत सिंह 
  • हरनन्दन सिंह 
  • चन्द्रकला -मुरारी लाल की बेटी 
  • मनोरमा 
  • डॉक्टर और कुछ अन्य जन 
मुख्य कथन 
  • आजकल का कानून ही ऐसा है। इसमें सजा उसको नहीं दी जाती जो की अपराध करता है ----सजा तो केवल उसको होती है। जो अपराध छिपाना नहीं जानता -मुरारी लाल ,महिराअली से 
  • प्रेम तो दो चार से हो नहीं सकता और अब प्रथम प्रदर्शन में प्रेम का समय भी नहीं रहा  युग दूसरा था ,जब ह्रदय का रस संचित रहता था और अनायास किसी और वह बाह उठता था। अब तो व्यय की मात्रा संचय से अधिक हो गई है। -चन्द्रकला ,मनोरमा से 
  • समय पर स्वादिष्ट भोजन और सुख की नीद ,सुन्दर वस्त्र --संसार का सुख तो इन्ही वस्तुओ में सीमित है। -मनोरमा ,मुरारीलाल से 
  • कानून और कला का साथ नहीं हो सकता न ?कानून दंड देगा ,कला क्षमा करेगी। कानून संदेह करेगा ,कला विश्वास करेगी। -मनोरमा ,मुरारीलाल से 
  • पुरुष आँख  लोलुप होते है , विशेषतः स्त्रियों  सम्बन्ध ,में मृत्यु सय्या   पर भी सुन्दर स्त्री इनके लिए सबसे बड़ा लोभ हो जाती है। -मनोरमा ,मुरारीलाल से 
  • जिसके लिए चोरी करे वही कहे चोर -मुरारीलाल ,मनोजशंकर से 
  • पुरुष का सबसे बड़ा रोग स्त्री है। और स्त्री का सबसे बड़ा रोग है पुरुष -मनोरमा ,मनोजशंकर से 
  • प्लेटो के प्रजातंत्र में कवि को कोई स्थान नहीं मिला था ---स्त्री की प्रेम तंत्र में बुद्धि और  ज्ञान को कोई स्थान नहीं मिला है -मनोजशंकर ,मुरारीलाल से 
  • प्रेम  करना विशेषतः स्त्री के लिए कभी बुराई नहीं --स्त्री जाती की स्त्रुति केवल इसलिए होती है। की वे प्रेम करती है। --प्रेम के लिए ही उनका जन्म होता है। --स्त्री चरित्र की सबसे बड़ी विभूति , उसका सबसे बड़ा तत्व प्रेम माना गया है। -मनोजशंकर मुरारी लाल से 
  • कवि और गायक भावुक जीव होते है। -डॉक्टर ,मनोजशंकर से 
  • स्वास्थ के कृत्रिम साधनो और बोतल की दवाओं ने स्वास्थ की जड़ काट दी। स्वास्थ तो आपलोगो की अलमारियों में बंद है। लेकिन यह बहुत दिन नहीं चलेगा प्रकृति अपना बदला लेगी। प्रकृति के रास्ते पर लौट आना। 
  • देहातों में अधिकांशः रोग पूजा पाठ और तंत्र मन्त्र से अच्छे किये जाते है।  इन चीजों का प्रभाव सीधा मस्तिष्क पर होता है। --रोगी की इच्छा शक्ति जग जाती है। और प्रकृति की शक्तियों को काम करने का अवसर मिलता है। -मनोजशंकर ,डॉक्टर से 
  • पुरुष के लिए प्राश्चित करना पड़ता है। स्त्री को। स्त्री जीवन का सबसे सुन्दर और सबसे कठोर सत्य यही है। स्त्री इसलिए दुखी है और पुरुष इसी को अधिकार समझता है। -मनोरमा ,मनोजशंकर से 

स्कंदगुप्त -1928

स्कंदगुप्त -1928 

जयशंकरप्रसाद 

पात्र 

  • स्कंदगुप्त -युवराज (विक्रमादित्य )
  • कुमार गुप्त -मगध का सम्राट 
  • गोविन्दगुप्त -कुमारगुप्त का भाई 
  • पर्णदत्त -मगध का महानायक 
  • चक्रपालित -पर्णदत्त का पुत्र 
  • बंधू वर्मा -मालवा का राजा 
  • भीमवर्मा -बंधुवर्मा का भाई 
  • मातृगुप्त -काव्यकर्ता कालिदास 
  • प्रपंच बुद्धि -बौद्ध कापालिक 
  • शर्वनाग -अंतर्वेद का विषयपति 
  • कुमारदास (धातुसेन )-सिंघल का राजकुमार 
  • पुरगुप्त -कुमारगुप्त का छोटा पुत्र 
  • भटार्क - नवीन महाबलाधिकृत 
  • पृथ्वीसेन -मंत्री कुमारामात्य 
  • खिगिल -हूण आक्रमणकारी 
  • मृदुगल -विदूषक 
  • प्रख्यातकीर्ति -लंकारज कुल का श्रमण ,महाबोध विहार -स्थविर 
अधिकार सुख कितना मादक और सारहीन है। अपने को नियामक और कर्त्ता समझने की बलवती स्पृहा उससे बेगार करवाती है। 

स्त्री पात्र 
  • देवकी -कुमारगुप्त की बड़ी रानी ,स्कन्द की माता 
  • अनन्तदेवी -कुमारगुप्त की छोटी रानी पुरगुप्त की माता 
  • जयमाला -बंधुवर्मा की स्त्री ,मालवा की रानी 
  • देवसेना -बंधुवर्मा की बहन 
  • विजया -मालवा के धनकुबेर की कन्या 
  • कमला -भटार्क की जननी 
  • रामा -शर्वनाग की स्त्री 
  • मालिनी -मातृगुप्त की प्रणयनी 
मुख्य कथन 
  • राष्ट्रनीति ,दार्शनिकता और कल्पना  लोक नहीं है।  इस कठोर प्रत्यक्षवाद की समस्या बड़ी कठिन  है। -पर्णदत्त ,स्कंदगुप्त से 
  • शरणागत -रक्षा भी क्षत्रिय का धर्म है। -स्कंदगुप्त ,दूत से 
  • युद्ध करना ही पड़ता है। अपनी सत्ता बनाये रखने के लिए ये आवश्यक है -कुमारगुप्त ,धातुसेन से 
  • कविता करना अत्यंत पुण्य का फल है। -मातृगुप्त ,स्वयं से 
  • कवित्य -वर्णमय चित्र है। जो स्वर्गीय भावपूर्ण संगीत गया करता है। अंधकार का अलोक से ,असत का सत्य से ,जड़ का चेतन से और वाह्य जगत का अंतर जगत से सम्बन्ध कौन कराती है ?कविता ही न ?-मातृगुप्त ,मुदगल से
  • धर्म को बचाने के लिए तुम्हे राजभक्ति की आवश्यकता हुई। धर्म इतना निर्बल  है की वह पाशव बल के द्वारा सुरक्षित होगा। -धातुसेन ,ब्राम्हण से 
  • जो अपने कर्मो को ईश्वर का कर्म समझकर करता है ,वही ईश्वर का अवतार है। -कमला ,स्कंदगुप्त से 
  • आवश्यकता ही संसार के व्यवहारों की दलाल है। -विजया ,मृदुगल से 
  • कष्ट ह्रदय की कसौटी है ,तपस्या अग्नि है। -देवसेना ,स्कंदगुप्त से 
  • अपनी घोर आवश्यकताओं में कृत्रिमता बढ़ाकर ,सभ्य और पशु से कुछ उच्चा द्विपद मनुष्य पशु बनने से बच जाता है। -मृदुगल ,मातृगुप्त से 

आँसू (कविता ) 1925 - जयशंकर प्रसाद google.com, pub-3432266382142715, DIRECT, f08c47fec0942fa0

नेट में लगी कविताओं की मुख्य पंक्तियाँ 


आँसू (कविता )   1925 - जयशंकर प्रसाद 

इस करुणा कलित ह्रदय में 
अब विकल रागनी बजती 
क्यों हाहाकार स्वरों में 
वेदना असीम गरजती ?

मानस सागर के तट पर 
क्यों लोल लहर की घाते 
कल कल ध्वनि से कहती 
कुछ विस्मृत बीती बातें ?

आती है शून्य क्षितिज से 
क्यों लोट प्रतिध्वनि मेरी 
टकराती बिलखती सी 
पगली सी देती फेरी ? 

जो घनीभूत पीड़ा थी 
मस्तक में स्मृति सी छायी 
दुर्दिन में ऑंसू बनकर 
वह आज बरसने आयी 

रो रोकर सिसक सिसक कर 
कहता में करुण कहानी 
तुम सुमन नोचते सुनते 
करते जानी अनजानी 

झंझा झकोर गर्जन था 
बिजली सी नीरद माला 
पा कर इस शून्य ह्रदय की 
सब ने आ डेरा डाला। 

घिर जाती प्रलय घटाए 
कुटिया पर आ कर मेरी 
तम चूर्ण बरस जाता था 
छा जाती अधिक अँधेरी। 

तुम सत्य रहे चिर सुन्दर !
मेरे इस मिथ्या जग के 
थे केवल जीवन संगी 
कल्याण कलित इस मन के। 

गौरव था , नीचे आये 
प्रियतम मिलने को मेरे 
मैं इठला उठा अकिञ्चन 
देखे जो स्वप्न सबेरे। 

मैं अपलक इन नयनो से 
निरखा करता उस छवि को 
प्रतिभा डाली भर लाता 
कर देता दान सुकवि को। 


देवकांत सिंह 
नेट  जे आर एफ 

नेट में लगे हुए कवियों का जन्म

नेट में लगे हुए कवियों का जन्म 

  1. अमीर खुसरो -1255 
  1. विद्यापति -1360 
  1. कबीर -1398 
  1. जायसी -1492 
  1. सूरदास -1478 
  1. तुलसीदास -1532 
  1. बिहारी -1595 
  1. घनानंद -1689 
  1. मीरा -1503 
  1. अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध -1865 
  1. मैथिलीशरण गुप्त -1886 
  1. जयशंकर प्रसाद -1889 
  1. निराला -1896 
  1. सुमित्रानंदन पंत -1900 
  1. महादेवी वर्मा -1907 
  1. रामधारी सिंह दिनकर -1908 
  1. नागार्जुन -1911 
  1. सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन अज्ञेय -1911 
  1. भवानी प्रसाद मिश्र -1913 
  1. -मुक्तिबोध -1917 
  1. धूमिल -1936 

देवकांत सिंह -मोबाईल न-9555935125 

नेट / जे. आर. एफ

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कुकुरमुत्ता

कुकुरमुत्ता -निराला

एक थे नव्वाब,फ़ारस से मंगाए थे गुलाब।बड़ी बाड़ी में लगाएदेशी पौधे भी उगाएरखे माली, कई नौकरगजनवी का बाग मनहरलग रहा था।एक सपना जग रहा थासांस पर तहजबी की,गोद पर तरतीब की।क्यारियां सुन्दर बनीचमन में फैली घनी।फूलों के पौधे वहाँलग रहे थे खुशनुमा।बेला, गुलशब्बो, चमेली, कामिनी,जूही, नरगिस, रातरानी, कमलिनी,चम्पा, गुलमेंहदी, गुलखैरू, गुलअब्बास,गेंदा, गुलदाऊदी, निवाड़, गन्धराज,और किरने फ़ूल, फ़व्वारे कई,रंग अनेकों-सुर्ख, धनी, चम्पई,आसमानी, सब्ज, फ़िरोज सफ़ेद,जर्द, बादामी, बसन्त, सभी भेद।फ़लों के भी पेड़ थे,आम, लीची, सन्तरे और फ़ालसे।चटकती कलियां, निकलती मृदुल गन्ध,लगे लगकर हवा चलती मन्द-मन्द,चहकती बुलबुल, मचलती टहनियां,बाग चिड़ियों का बना था आशियाँ।साफ़ राह, सरा दानों ओर,दूर तक फैले हुए कुल छोर,बीच में आरामगाहदे रही थी बड़प्पन की थाह।कहीं झरने, कहीं छोटी-सी पहाड़ी,कही सुथरा चमन, नकली कहीं झाड़ी।आया मौसिम, खिला फ़ारस का गुलाब,बाग पर उसका पड़ा था रोब-ओ-दाब;वहीं गन्दे में उगा देता हुआ बुत्तापहाड़ी से उठे-सर ऐंठकर बोला कुकुरमुत्ता-“अब, सुन बे, गुलाब,भूल मत जो पायी खुशबु, रंग-ओ-आब,खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,डाल पर इतरा रहा है केपीटलिस्ट!कितनों को तूने बनाया है गुलाम,माली कर रक्खा, सहाया जाड़ा-घाम,हाथ जिसके तू लगा,पैर सर रखकर वो पीछे को भागाऔरत की जानिब मैदान यह छोड़कर,तबेले को टट्टू जैसे तोड़कर,शाहों, राजों, अमीरों का रहा प्यारातभी साधारणों से तू रहा न्यारा।वरना क्या तेरी हस्ती है, पोच तूकांटो ही से भरा है यह सोच तूकली जो चटकी अभीसूखकर कांटा हुई होती कभी।रोज पड़ता रहा पानी,तू हरामी खानदानी।चाहिए तुझको सदा मेहरून्निसाजो निकाले इत्र, रू, ऐसी दिशाबहाकर ले चले लोगो को, नही कोई किनाराजहाँ अपना नहीं कोई भी सहाराख्वाब में डूबा चमकता हो सितारापेट में डंड पेले हों चूहे, जबां पर लफ़्ज प्यारा।देख मुझको, मैं बढ़ाडेढ़ बालिश्त और ऊंचे पर चढ़ाऔर अपने से उगा मैंबिना दाने का चुगा मैंकलम मेरा नही लगतामेरा जीवन आप जगतातू है नकली, मै हूँ मौलिकतू है बकरा, मै हूँ कौलिकतू रंगा और मैं धुलापानी मैं, तू बुलबुलातूने दुनिया को बिगाड़ामैंने गिरते से उभाड़ातूने रोटी छीन ली जनखा बनाकरएक की दी तीन मैने गुन सुनाकर।
काम मुझ ही से सधा हैशेर भी मुझसे गधा हैचीन में मेरी नकल, छाता बनाछत्र भारत का वही, कैसा तनासब जगह तू देख लेआज का फिर रूप पैराशूट ले।विष्णु का मैं ही सुदर्शनचक्र हूँ।काम दुनिया मे पड़ा ज्यों, वक्र हूँ।उलट दे, मैं ही जसोदा की मथानीऔर लम्बी कहानी-सामने लाकर मुझे बेंड़ादेख कैंडातीर से खींचा धनुष मैं राम का।काम का-पड़ा कन्धे पर हूँ हल बलराम का।सुबह का सूरज हूँ मैं हीचांद मैं ही शाम का।कलजुगी मैं ढालनाव का मैं तला नीचे और ऊपर पाल।मैं ही डांड़ी से लगा पल्लासारी दुनिया तोलती गल्लामुझसे मूछें, मुझसे कल्लामेरे उल्लू, मेरे लल्लाकहे रूपया या अधन्नाहो बनारस या न्यवन्नारूप मेरा, मै चमकतागोला मेरा ही बमकता।लगाता हूँ पार मैं हीडुबाता मझधार मैं ही।डब्बे का मैं ही नमूनापान मैं ही, मैं ही चूना
मैं कुकुरमुत्ता हूँ,पर बेन्जाइन (Bengoin) वैसेबने दर्शनशास्त्र जैसे।ओमफ़लस (Omphalos) और ब्रहमावर्तवैसे ही दुनिया के गोले और पर्तजैसे सिकुड़न और साड़ी,ज्यों सफ़ाई और माड़ी।कास्मोपालिटन और मेट्रोपालिटनजैसे फ़्रायड और लीटन।फ़ेलसी और फ़लसफ़ाजरूरत और हो रफ़ा।सरसता में फ़्राडकेपिटल में जैसे लेनिनग्राड।सच समझ जैसे रकीबलेखकों में लण्ठ जैसे खुशनसीब
मैं डबल जब, बना डमरूइकबगल, तब बना वीणा।मन्द्र होकर कभी निकलाकभी बनकर ध्वनि छीणा।मैं पुरूष और मैं ही अबला।मै मृदंग और मैं ही तबला।चुन्ने खां के हाथ का मैं ही सितारदिगम्बर का तानपूरा, हसीना का सुरबहार।मैं ही लायर, लिरिक मुझसे ही बनेसंस्कृत, फ़ारसी, अरबी, ग्रीक, लैटिन के जनेमन्त्र, गज़लें, गीत, मुझसे ही हुए शैदाजीते है, फिर मरते है, फिर होते है पैदा।वायलिन मुझसे बजाबेन्जो मुझसे सजा।घण्टा, घण्टी, ढोल, डफ़, घड़ियाल,शंख, तुरही, मजीरे, करताल,करनेट, क्लेरीअनेट, ड्रम, फ़्लूट, गीटर,बजानेवाले हसन खां, बुद्धू, पीटर,मानते हैं सब मुझे ये बायें से,जानते हैं दाये से।
ताताधिन्ना चलती है जितनी तरहदेख, सब में लगी है मेरी गिरहनाच में यह मेरा ही जीवन खुलापैरों से मैं ही तुला।कत्थक हो या कथकली या बालडान्स,क्लियोपेट्रा, कमल-भौंरा, कोई रोमान्सबहेलिया हो, मोर हो, मणिपुरी, गरबा,पैर, माझा, हाथ, गरदन, भौंहें मटकानाच अफ़्रीकन हो या यूरोपीयन,सब में मेरी ही गढ़न।किसी भी तरह का हावभाव,मेरा ही रहता है सबमें ताव।मैने बदलें पैंतरे,जहां भी शासक लड़े।पर हैं प्रोलेटेरियन झगड़े जहां,मियां-बीबी के, क्या कहना है वहां।नाचता है सूदखोर जहां कहीं ब्याज डुचता,नाच मेरा क्लाईमेक्स को पहुचंता।
नहीं मेरे हाड़, कांटे, काठ कानहीं मेरा बदन आठोगांठ का।रस-ही-रस मैं हो रहासफ़ेदी का जहन्नम रोकर रहा।दुनिया में सबने मुझी से रस चुराया,रस में मैं डूबा-उतराया।मुझी में गोते लगाये वाल्मीकि-व्यास नेमुझी से पोथे निकाले भास-कालिदास ने।टुकुर-टुकुर देखा किये मेरे ही किनारे खड़ेहाफ़िज-रवीन्द्र जैसे विश्वकवि बड़े-बड़े।कहीं का रोड़ा, कही का पत्थरटी.एस. एलीयट ने जैसे दे मारापढ़नेवाले ने भी जिगर पर रखकरहाथ, कहां,’लिख दिया जहां सारा’।ज्यादा देखने को आंख दबाकरशाम को किसी ने जैसे देखा तारा।जैसे प्रोग्रेसीव का कलम लेते हीरोका नहीं रूकता जोश का पारायहीं से यह कुल हुआजैसे अम्मा से बुआ।मेरी सूरत के नमूने पीरामेडमेरा चेला था यूक्लीड।रामेश्वर, मीनाछी, भुवनेश्वर,जगन्नाथ, जितने मन्दिर सुन्दरमैं ही सबका जनकजेवर जैसे कनक।हो कुतुबमीनार,ताज, आगरा या फ़ोर्ट चुनार,विक्टोरिया मेमोरियल, कलकत्ता,मस्जिद, बगदाद, जुम्मा, अलबत्तासेन्ट पीटर्स गिरजा हो या घण्टाघर,गुम्बदों में, गढ़न में मेरी मुहर।एरियन हो, पर्शियन या गाथिक आर्चपड़ती है मेरी ही टार्च।पहले के हो, बीच के हो या आज केचेहरे से पिद्दी के हों या बाज के।चीन के फ़ारस के या जापान केअमरिका के, रूस के, इटली के, इंगलिस्तान के।ईंट के, पत्थर के हों या लकड़ी केकहीं की भी मकड़ी के।बुने जाले जैसे मकां कुल मेरेछत्ते के हैं घेरे।
सर सभी का फ़ांसनेवाला हूं ट्रेपटर्की टोपी, दुपलिया या किश्ती-केप।और जितने, लगा जिनमें स्ट्रा या मेट,देख, मेरी नक्ल है अंगरेजी हेट।घूमता हूं सर चढ़ा,तू नहीं, मैं ही बड़ा।”
(२)बाग के बाहर पड़े थे झोपड़ेदूर से जो देख रहे थे अधगड़े।जगह गन्दी, रूका, सड़ता हुआ पानीमोरियों मे; जिन्दगी की लन्तरानी-बिलबिलाते किड़े, बिखरी हड्डियांसेलरों की, परों की थी गड्डियांकहीं मुर्गी, कही अण्डे,धूप खाते हुए कण्डे।हवा बदबू से मिलीहर तरह की बासीली पड़ी गयी।रहते थे नव्वाब के खादिमअफ़्रिका के आदमी आदिम-खानसामां, बावर्ची और चोबदार;सिपाही, साईस, भिश्ती, घुड़सवार,तामजानवाले कुछ देशी कहार,नाई, धोबी, तेली, तम्बोली, कुम्हार,फ़ीलवान, ऊंटवान, गाड़ीवानएक खासा हिन्दु-मुस्लिम खानदान।एक ही रस्सी से किस्मत की बंधाकाटता था जिन्दगी गिरता-सधा।बच्चे, बुड्ढे, औरते और नौजवानरह्ते थे उस बस्ती में, कुछ बागबानपेट के मारे वहां पर आ बसेसाथ उनके रहे, रोये और हंसे।
एक मालिनबीबी मोना माली की थी बंगालिन;लड़की उसकी, नाम गोलीवह नव्वाबजादी की थी हमजोली।नाम था नव्वाबजादी का बहारनजरों में सारा जहां फ़र्माबरदार।सारंगी जैसी चढ़ीपोएट्री में बोलती थीप्रोज में बिल्कुल अड़ी।गोली की मां बंगालिन, बहुत शिष्टपोयट्री की स्पेशलिस्ट।बातों जैसे मजती थीसारंगी वह बजती थी।सुनकर राग, सरगम तानखिलती थी बहार की जान।गोली की मां सोचती थी-गुर मिला,बिना पकड़े खिचे कानदेखादेखी बोली मेंमां की अदा सीखी नन्हीं गोली ने।इसलिए बहार वहां बारहोमासडटी रही गोली की मां केकभी गोली के पास।सुबहो-शाम दोनों वक्त जाती थीखुशामद से तनतनाई आती थी।गोली डांडी पर पासंगवाली कौड़ीस्टीमबोट की डोंगी, फ़िरती दौड़ी।पर कहेंगे-‘साथ-ही-साथ वहां दोनो रहती थींअपनी-अपनी कहती थी।दोनों के दिल मिले थेतारे खुले-खिले थे।हाथ पकड़े घूमती थींखिलखिलाती झूमती थीं।इक पर इक करती थीं चोटहंसकर होतीं लोटपोट।सात का दोनों का सिनखुशी से कटते थे दिन।महल में भी गोली जाया करती थीजैसे यहां बहार आया करती थी।
एक दिन हंसकर बहार यह बोली-“चलो, बाग घूम आयें हम, गोली।”दोनों चली, जैसे धूप, और छांहगोली के गले पड़ी बहार की बांह।साथ टेरियर और एक नौकरानी।सामने कुछ औरतें भरती थीं पानीसिटपिटायी जैसे अड़गड़े मे देखा मर्द कोबाबू ने देखा हो उठती गर्दन को।निकल जाने पर बहार के, बोलीपहली दूसरी से, “देखो, वह गोलीमोना बंगाली की लड़की ।भैंस भड़्की,ऎसी उसकी मां की सूरतमगर है नव्वाब की आंखों मे मूरत।रोज जाती है महल को, जगे भागआखं का जब उतरा पानी, लगे आग,रोज ढोया आ रहा है माल-असबाबबन रहे हैं गहने-जेवरपकता है कलिया-कबाब।”झटके से सिर-आंख पर फ़िर लिये घड़ेचली ठनकाती कड़े।बाग में आयी बहारचम्पे की लम्बी कतारदेखती बढ़्ती गयीफ़ूल पर अड़ती गयी।मौलसिरी की छांह मेंकुछ देर बैठ बेन्च परफ़िर निगाह डाली एक रेन्ज परदेखा फ़िर कुछ उड़ रही थी तितलियांडालों पर, कितनी चहकती थीं चिड़ियां।भौरें गूंजते, हुए मतवाले-सेउड़ गया इक मकड़ी के फ़ंसकर बड़े-से जाले से।फ़िर निगाह उठायी आसमान की ओरदेखती रही कि कितनी दूर तक छोरदेखा, उठ रही थी धूप-पड़ती फ़ुनगियों पर, चमचमाया रूप।पेड़ जैसे शाह इक-से-इक बड़ेताज पहने, है खड़े।आया माली, हाथ गुलदस्ते लियेगुलबहार को दिये।गोली को इक गुलदस्तासूंघकर हंसकर बहार ने दिया।जरा बैठकर उठी, तिरछी गलीहोती कुन्ज को चली!देखी फ़ारांसीसी लिलीऔर गुलबकावली।फ़िर गुलाबजामुन का बाग छोड़ातूतो के पेड़ो से बायें मुंह मोड़ा।एक बगल की झाड़ीबढ़ी जिधर थी बड़ी गुलाबबाड़ी।देखा, खिल रहे थे बड़े-बड़े फ़ूललहराया जी का सागर अकूल।दुम हिलाता भागा टेरियर कुत्ताजैसे दौड़ी गोली चिल्लाती हुई ‘कुकुरमुत्ता’।सकपकायी, बहार देखने लगीजैसे कुकुरमुत्ते के प्रेम से भरी गोली दगी।भूल गयी, उसका था गुलाब पर जो कुछ भी प्यारसिर्फ़ वह गोली को देखती रही निगाह की धार।टूटी गोली जैसे बिल्ली देखकर अपना शिकारतोड़कर कुकुरमुत्तों को होती थी उनके निसार।बहुत उगे थे तब तकउसने कुल अपने आंचल मेंतोड़कर रखे अब तक।घूमी प्यार सेमुसकराती देखकर बोली बहार से-“देखो जी भरकर गुलाबहम खायंगे कुकुरमुत्ते का कबाब।”कुकुरमुत्ते की कहानीसुनी उससे जीभ में बहार की आया पानी।पूछा “क्या इसका कबाबहोगा ऎसा भी लजीज?जितनी भाजियां दुनिया मेंइसके सामने नाचीज?”गोली बोली-”जैसी खुशबूइसका वैसा ही स्वाद,खाते खाते हर एक कोआ जाती है बिहिश्त की यादसच समझ लो, इसका कलियातेल का भूना कबाब,भाजियों में वैसाजैसा आदमियों मे नव्वाब”
“नहीं ऎसा कहते री मालिन कीछोकड़ी बंगालिन की!”डांटा नौकरानी ने-चढ़ी-आंख कानी ने।लेकिन यह, कुछ एक घूंट लार केजा चुके थे पेट में तब तक बहार के।“नहीं नही, अगर इसको कुछ कहा”पलटकर बहार ने उसे डांटा-“कुकुरमुत्ते का कबाब खाना है,इसके साथ यहां जाना है।”“बता, गोली” पूछा उसने,“कुकुरमुत्ते का कबाबवैसी खुशबु देता हैजैसी कि देता है गुलाब!”गोली ने बनाया मुंहबाये घूमकर फ़िर एक छोटी-सी निकाली “उंह!”कहा,”बकरा हो या दुम्बामुर्ग या कोई परिन्दाइसके सामने सब छू:सबसे बढ़कर इसकी खुशबु।भरता है गुलाब पानीइसके आगे मरती है इन सबकी नानी।”चाव से गोली चलीबहार उसके पीछे हो ली,उसके पीछे टेरियर, फ़िर नौकरानीपोंछती जो आंख कानी।चली गोली आगे जैसे डिक्टेटरबहार उसके पीछे जैसे भुक्खड़ फ़ालोवर।उसके पीछे दुम हिलाता टेरियर-आधुनिक पोयेट (Poet)पीछे बांदी बचत की सोचतीकेपीटलिस्ट क्वेट।झोपड़ी में जल्दी चलकर गोली आयीजोर से ‘मां’ चिल्लायी।मां ने दरवाजा खोला,आंखो से सबको तोला।भीतर आ डलिये मे रक्खेमोली ने वे कुकुरमुत्ते।देखकर मां खिल गयी।निधि जैसे मिल गयी।कहा गोली ने, “अम्मा,कलिया-कबाब जल्द बना।पकाना मसालेदारअच्छा, खायेंगी बहार।पतली-पतली चपातियांउनके लिए सेख लेना।”जला ज्यों ही उधर चूल्हा,खेलने लगीं दोनों दुल्हन-दूल्हा।कोठरी में अलग चलकरबांदी की कानी को छलकर।टेरियर था बरातीआज का गोली का साथ।हो गयी शादी कि फ़िर दूल्हन-बहार से।दूल्हा-गोली बातें करने लगी प्यार से।इस तरह कुछ वक्त बीता, खाना तैयारहो गया, खाने चलीं गोली और बहार।कैसे कहें भाव जो मां की आंखो से बरसेथाली लगायी बड़े समादर से।खाते ही बहार ने यह फ़रमाया,“ऎसा खाना आज तक नही खाया”शौक से लेकर सवादखाती रहीं दोनोकुकुरमुत्ते का कलिया-कबाब।बांदी को भी थोड़ा-सागोली की मां ने कबाब परोसा।अच्छा लगा, थोड़ा-सा कलिया भीबाद को ला दिया,हाथ धुलाकर देकर पान उसको बिदा किया।
कुकुरमुत्ते की कहानीसुनी जब बहार सेनव्वाब के मुंह आया पानी।बांदी से की पूछताछ,उनको हो गया विश्वास।माली को बुला भेजा,कहा,”कुकुरमुत्ता चलकर ले आ तू ताजा-ताजा।”माली ने कहा,”हुजूर,कुकुरमुत्ता अब नहीं रहा है, अर्ज हो मन्जूर,रहे है अब सिर्फ़ गुलाब।”गुस्सा आया, कांपने लगे नव्वाब।बोले;”चल, गुलाब जहां थे, उगा,सबके साथ हम भी चाहते है अब कुकुरमुत्ता।”बोला माली,”फ़रमाएं मआफ़ खता,कुकुरमुत्ता अब उगाया नही उगता 

कुछ मुख्य बिंदु 

  1. कुकुरमुत्ता कविता निराला ने 1942 ई में लिखा था।  
  2. यह मार्क्सवाद से प्रभावित रचना है। 
  3. इसमें गुलाब शोषक और कुकुरमुत्ता शोषित का प्रतीक है। 

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