अपना -अपना भाग्य

 अपना -अपना भाग्य 

रचनाकार -जैनेन्द्र 

पात्र 

  • दो मित्र 
  • दो वकील 
  • एक लड़का 

मुख्य  पंक्तियाँ 

  • बहुत कुछ निरुद्देश्य घूम चुकने पर हम सड़क के किनारे की एक बेंच पर बैठ गए.नैनीताल की संध्या धीरे -धीरे उतर रही थी। रुई के रेशे -से भाप से बादल हमारे सिरों को छू -छूकर बेरोक -टोक घूम रहे थे। हल्के प्रकाश और अंधियार से रंगकर कभी वे नीले दीखते कभी सफ़ेद और देर में अरुण पड़ जाते। वे जैसे हमारे साथ खेलना चाह रहे थे। 
  • भागते ,खेलते, हँसते,शरारत करते लाल -लाल अंग्रेज बच्चे थे और पीली -पीली आंखे फाड़े ,पिता ऊँगली  पकड़कर चलते हुए अपने हिंदुस्तानी नौनिहाल भी थे.अंग्रेज पिता थे ,जो अपने बच्चों के साथ भाग रहे थे ,हँस रहे थे। उधर भारतीय पितृदेव भी थे ,जो बुजुर्गी को अपने चारों तरफ लपेटे धन -सम्पन्नता  लक्षणों का प्रदर्शन करते हुए चल रहे थे। 
  • अंग्रेज रमणिया थी ,जो धीरे -धीरे नहीं चलती थी ,तेज चलती थी। उन्हें न चलने में थकावट आती थी ,न हँसने में मौत आती थी ---उधर हमारी भारत की कुल लक्ष्मी ,सड़क के बिलकुल किनारे दामन बचाती  और संभालती हुई ,साड़ी की कई तहों में सिमट -सिमटकर ,लोक लाज स्त्रीत्व और भारतीय गरिमा के आदर्शो को अपने परिवेष्टनों में छिपाकर सहमी -सहमी धरती में आंख गाड़े ,कदम -कदम बढ़ रही थी। 

देवकांत सिंह -मोबाईल न-9555935125 

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एक बैच में अधिकतम विद्यार्थियों की संख्या 15 होगी। 

तीसरी कसम

तीसरी कसम 

रचनाकार -फणीश्वर नाथ रेणु 

पात्र 

  1. हीराबाई हीरामन 
  2. धुन्नीराम 
  3. पलटदास 

मुख्य पंक्तियाँ 

  1. मारंगराज नेपाल से धान और लकड़ी ढो चुका  है 
  2. चार  खेप सीमेंट और लकड़ी की गाठों ,जोगबानी से विराटनगर फॉरबिसगंज का हर चोर व्यापारी उसको पक्का गाड़ीवान मानता था। 
  3. का हो मामला गोल होखी का ?
  4. तिस पर बॉस का अगुआ पकड़ कर चलनेवाला भाड़ेदार का महाभाकुआ नौकर ,लड़की स्कूल की ओर देखने लगा हिरामन को लगता है ,दो वर्ष से चम्पानगर मेले की भगवती मैया उस पर प्रसन्न है। 
  5. इस बार यह जनानी सवारी। औरत है या चंपा का फूल जब से गाड़ी मह- मह महक रही है। 
  6. चम्पानगर से सिंधिया गाँव तक फैला हुआ मैदान ---कहीं डाकिन -पिशाचिन तो नहीं ?
  7. हिरामन की सवारी ने करवट ली। चाँदनी पुरे मुखड़े पर पड़ी तो हिरामन चीखते -चीखते रुक गया अरे बाप !ई तो परी है। 
  8. कुमारी का मतलब हुआ पाँच -सात साल की लड़की। 
  9. बिदागी -नैहर या ससुराल जाती हुई लड़की है। 
  10. जे मैया सरोसती ,अरजी करत बानी 
हमरा पर होखू सही है मैया ,हमरा पर होखू सहाई 

  • बिदेसिया ,बलवाही ,छोकरा ,नाचनेवाला एक से एक गजल खेमटा गाते थे। 
  • सजनवा बैरी हो गय हमारो !सजनवा 
चिठिया हो ते सब कोई बाँचे चिठिया हो तो ---
हाय !करमवा ,होय करमवा 
  • सजन रे झूठ मत बोलो ,खुदा के पास जाना है 
नहीं हाथी ,नहीं घोड़ा ,नहीं गाड़ी 
वहाँ पैदल ही जाना है। सजन रे ----
  • काहे हो गाड़ीवान ,लीक छोड़ कर बेलीक कहा उधर ?
  • इस मुलुक के लोगों की यही आदत बुरी है। रह चलते एक सौ जिरह करेंगे। अरे भाई ,तुमको जाना है ,जाओ ----देहाती भुच्च सब। 
  • समझती हूँ। उगटनमाने उबटन -जो देह में लगाते है। 
  • अरे ,तुमसे किसने कह दिया की कुंवारे आदमी को चाय नहीं पीनी चाहिए ?

देवकांत सिंह -मोबाईल न-9555935125 

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नेट में लगे अन्य गद्य विधाओं का प्रकाशन वर्ष

नेट में लगे अन्य गद्य विधाओं का प्रकाशन वर्ष 

  1. रामवृक्ष बेनीपुरी - माटी की मूरते 1946 
  2. महादेवी वर्मा -ठकुरी बाबा 1943 
  3. तुलसीराम -मुर्दहिया 2010 
  4. शिवरानी देवी -प्रेमचंद घर में 1944 
  5. मन्नू भंडारी -एक कहानी यह भी 2007 
  6. विष्णु प्रभाकर -आवारा मसीहा 1974 
  7. हरिवंशराय बच्चन -क्या भूलू क्या याद करुँ 1969 
  8. रमणिका गुप्ता -आपहुदरी 2016 
  9. हरिशंकर परसाई -भोलाराम का जीव 1980 
  10. कृष्ण चन्दर -जामुन का पेड़ 1970 के आस पास 
  11. रामधारी सिंह दिनकर -संस्कृति के चार अध्याय 1956 
  12. मुक्तिबोध -एक साहित्यिक डायरी 1964
  13.  राहुल सांकृत्यायन -मेरी तिब्बत यात्रा 1937 

  1. अज्ञेय -अरे यायावर रहेगा याद 1953 

देवकांत सिंह -मोबाईल न-9555935125 

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नेट में लगे निबंधों का प्रकाशन वर्ष

नेट में लगे निबंधों का प्रकाशन वर्ष 

  1. भारतेन्दु -दिल्ली दरबार दर्पण 1877 ,भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है 1884 
  2. प्रताप नारायण मिश्र -शिवमूर्ति 
  3. बालमुकुंद गुप्त -शिवशम्भु के चिट्ठे 1905 
  4. रामचंद्र शुक्ल -कविता क्या है 1909 
  5. हजारी प्रसाद द्विवेदी -नाख़ून क्यों बढ़ते है 1951 
  6. विद्यानिवास मिश्र -मेरे राम मुकुट भीग रहा है 1974 
  7. सरदार पूर्ण सिंह - मजदूरी और प्रेम 1904 
  8. कुबेरनाथ राय - उत्तरफाल्गुनी के आस पास 1972 
  9. विवेकी राय -उठ जाग मुसाफिर 2012 
  10. नामवर सिंह -संस्कृति और सौंदर्य 1982 

नेट में लगे नाटक का प्रकाशन वर्ष

नेट में लगे नाटक का प्रकाशन वर्ष 

  1. भारतेन्दु -अंधेर नगरी 1881 ,भारत दुर्दशा 1880 
  2. जयशंकर प्रसाद -स्कंदगुप्त 1928 ,चन्द्रगुप्त 1931 ,धुरुस्वामिनी 1933 
  3. धर्मवीर भारती -अँधा युग 1954 
  4. लक्ष्मीनारायण  मिश्र  -सिंदूर की होली 1934 
  5. मोहन राकेश -आषाढ़ का एक दिन 1958 ,आधे अधूरे 1969 
  6. हबीब तनवीर -आगरा बाजार 1954 
  7. सर्वेश्वरदयाल सक्सेना -बकरी 1974 
  8. शंकर शेष -एक और द्रोणाचार्य 1977 
  9. उपेन्द्रनाथ अश्क -अंजो दीदी 1955 
  10. मन्नू भंडारी -महाभोज 1982 

परिंदे -निर्मल वर्मा

परिंदे -निर्मल वर्मा 

रचना का प्रकाशन वर्ष -1960 
रचनाकार का जन्म -1929

मुख्य पात्र 

  • लतिका -गर्ल्स हॉस्टल की वार्ड 
  • डॉ मुखर्जी -वर्मा से आए हुए डॉक्टर 
  • मि ह्यूबर्ट -
  • करीमुद्दीन -स्कूल और हॉस्टल की देखभाल करने वाला 
  • फादर एल्मण्ड 
  • मिस वुड 
  • गिरीश नेगी 

गौड़ पात्र 

  • सुधा 
  • जुली 
  • हेमंती 
नामवर सिंह के अनुसार नयी कहानी आंदोलन की प्रथम कहानी परिंदे है। यह कहानी  पर लिखे गए अपनी प्रसिद्ध आलोचनात्मक पुस्तक 'कहानी और नयी कहानी' में कहा। 

मुख्य पंक्तियाँ 

  1. होम सिक्नेस ही एक ऐसी बीमारी है जिसका इलाज किसी डॉक्टर के पास नहीं है। 
  2. सुना है अगले दो -तीन वर्षो में यहाँ में यहाँ पर बिजली का इंतजाम हो जायेगा 
  3. इस बचकाना हरकत पर हंसी आयी थी ,उसकी उम्र अभी बीती नहीं है ,अब भी वह दूसरों को अपनी ओर आकर्षित कर सकती है। 
  4. पैरों में स्लीपर को घसीटते हुए वह बड़े आईने तक आयी और उसके सामने स्टूल पर बैठकर बालों को खोलने लगी किन्तु कुछ देर तक कंघी बालों में ही उलझी रही और वह गुमसुम हो शीशे में अपना चेहरा ताकती रही। 
  5. ना ---मैं कुछ भी नहीं सुन रही --किन्तु वह सुन रही है वह नहीं जो गिरीश कह रहा है ,किन्तु वह जो  नहीं  कहा जा रहा है ,जो उसके बाद कभी नहीं कहा गया  ---
  6. कंटोनमेंट के तीन -चार सिपाही लड़कियों को देखते हुए अश्लील मजाक करते हुए हँस रहे है और कभी -कभी किसी लड़की की और जरा झुककर सीटी बजाने लगते है। 
  7. वह पत्र उसके लिए मैं लज्जित। उसे आप वापिस लौटा दे ,समझ ले की मैंने उसे कभी नहीं लिखा था। 
  8. जंगल की आग कभी देखी है ,मिस वुड ---एक अलमस्त नशे की तरह धीरे -धीरे फैलती जाती है। 
  9. लेकिन डॉक्टर ,कुछ भी कह लो ,अपने देश का सुख कही और मिलता। यहाँ तुम चाहे कितने वर्ष रह लो ,अपने को ,हमेशा अजनबी ही पाओगे 
  10. लतिका देर तक जुली को देखती रही ,जब तक वह आँखों से ओझल नहीं हो गयी। क्या मैं किसी खूसट बुढ़िया से कम हूँ ?अपने आभाव का बदला क्या मैं दूसरों से ले रही हूँ ?
  11. शायद ---कौन जाने --शायद जुली का यह प्रथम परिचय हो ,उस अनुभूति से जिसे कोई भी लड़की बड़े चाव से सजोकर ,संभालकर अपने में छिपाये रहती है। अनिवर्चनीय सुख ,जो पीड़ा लिये है,पीड़ा और सुख को डुबोती हुई 
  12. उमड़ते ज्वर की खुमारी --जो दोनों को अपने में समो लेती है एक दर्द ,जो आनंद से उपजा है और पीड़ा देता है ---
  13. वैसे हम सबकी अपनी -अपनी जिद होती है ,कोई छोड़ देता है ,कोई आखिरी तक चिपका रहता है। 

प्रेम से शुरू होने वाली रचनाये

प्रेम से शुरू होने वाली रचनाये 

  1. प्रेम जोगिनी -भारतेन्दु 
  2. प्रेम मालिका -भारतेन्दु 
  3. प्रेम सरोवर -भारतेन्दु 
  4. प्रेम पचासा -भारतेन्दु 
  5. प्रेम फुलवारी -भारतेन्दु 
  6. प्रेम माधुरी -भारतेन्दु 
  7. प्रेम तरंग -भारतेन्दु 
  8. प्रेम प्रलाप -भारतेन्दु 
  9. प्रेम अश्रुवर्णन -भारतेन्दु 
  10. प्रेम पुष्पावली -प्रताप नारायण मिश्र 
  11. प्रेम  सम्पतिमाला- जगमोहन 
  12. प्रेम सागर -लल्लूलाल 
  13. प्रेम सरोज -प्रेमचंद 
  14. प्रेम प्रतिमा -प्रेमचंद 
  15. प्रेम प्रतिज्ञा -प्रेमचंद 
  16. प्रेम पूर्णिमा -प्रेमचंद 
  17. प्रेम चतुर्थी -प्रेमचंद 
  18. प्रेम पच्चीसी -प्रेमचंद 
  19. प्रेम कुंज - प्रेमचंद 
  20. प्रेम प्रसून -प्रेमचंद 
  21. प्रेम द्वादशी -प्रेमचंद 
  22. प्रेमाश्रम -प्रेमचंद 
  23. प्रेम का उदय -प्रेमचंद 
  24. प्रेम की होली -प्रेमचंद 
  25. प्रेम सूत्र -प्रेमचंद 
  26. प्रेम का स्वप्न -प्रेमचंद 
  27. प्रेम चन्द्रिका -देव 
  28. प्रेम दीपिका -देव 
  29. प्रेम दर्शन -देव 
  30. प्रेम वाटिका -रसखान 
  31. प्रेम पत्रिका -घनानंद 
  32. प्रेम राज्य -जयशंकर प्रसाद 
  33. प्रेम पथिक -जयशंकर प्रसाद 
  34. प्रेम विलाप -जयशंकर प्रसाद 
  35. प्रेम सुमार्ग -गोविन्द सिंह 
  36. प्रेम बारहखड़ी -नंददास 
  37. प्रेम कली -

अंधा युग धर्मवीर भारती 1954

अंधा युग 

धर्मवीर भारती 1954 

मुख्य पंक्तियाँ

यह अजब   युद्ध है नहीं किसी की भी जय
दोनों पक्षों का खोना ही खोना है
अन्धो से सोभित था युग का  सिंहासन 
दोनों पक्षों में विवेक ही हारा 
दोनों पक्षों में जीता अंधापन 
भय का अंधापन ,ममता का अंधापन 
अधिकारों का अंधापन जीत गया 
जो कुछ सुन्दर था ,शुभ था , कोमलतम था 
वह हार गया ---द्वापर युग बीत गया 

संस्कृति  थी यह एक बूढ़े और अंधे की 
जिसकी संतानों ने 
महायुद्ध घोषित किए ,
 जिसके अंधेपन में मर्यादा 
गलित अंग वेश्या -सी 
 प्रजाजनों को भी रोगी बनाती फिरी 
उस अंधी संस्कृति ,
उस रोगी मर्यादा की 
रक्षा हम करते रहे 
सत्रह दिन। 

पर वह संसार 
स्वतः  अपने अंधेपन से उपजा था। 
मैंने अपने ही वैयक्तिक संवेदन से जो जाना था 
केवल उतना ही था मेरे लिए वस्तु -जगत 
इंद्रजाल केकी माया -सृष्टि के समान 
घने गहरे अंधियारे में 
एक काले बिंदु से 
मेरे मन ने सारे भाव किये थे विकसित 
मेरी सब वृत्तियाँ उसी से परिचालित थी !
मेरा स्नेह ,मेरी घृणा ,मेरी नीति ,मेरा धर्म 
बिलकुल मेरा ही वैयक्तिक था। 
उसमे नैतिकता का कोई बाह्य मापदंड था ही नहीं। 
कौरव जो मेरी मांसलता से उपजे थे 
वे ही थे अंतिम सत्य 
मेरी ममता ही वहाँ नीति थी ,
मर्यादा थी 

मेरी वैयक्तिक सीमाओं के बाहर भी 
सत्य हुआ करता है 
आज मुझे भान हुआ। 
सहसा यह उगा कोई बांध टूट गया है 
कोटि -कोटि योजन तक दहाड़ता हुआ समुन्द्र 
मेरे वैयक्तिक अनुमानित सीमित जग को 
लहरों की विषय -जिह्वाओं से निगलता हुआ 
मेरे अंतर्मन में पैठ गया 
सब कुछ बह गया 
मेरे अपने वैयक्तिक मूल्य 
मेरी निश्चित किन्तु ज्ञानहीन आस्थाएं। 

धर्म ,नीति ,मर्यादा ,यह सब केवल आडम्बर मात्र ,
मैंने यह बार -बार देखा था। निर्णय के क्षण में विवेक और मर्यादा 
व्यर्थ सिद्ध होते आये है सदा 
हम सब के मन में कही एक अंध गह्वर है।
 बर्बर पशु ,अँधा पशु वास वही करता है ,
स्वामी जी हमारे विवेक का ,
नैतिकता ,मर्यादा ,अनासक्ति ,कृष्णापर्ण 
यह सब है अंधी प्रवृतियों की पोशाकें 
जिनमे कटे कपड़ों की आँखे सिली रहती हैं 
मुझको इस झूठे आडम्बर से नफरत थी 
इसलिए स्वेछा से मैंने इन आँखों पर पट्टी चढ़ा रक्खी थी 

आधे -अधूरे मोहन राकेश

आधे -अधूरे 

मोहन राकेश

जन्म -1925 

मध्यवर्गीय जीवन और पारिवारिक रिश्तो का दस्तावेज  

`मोहन राकेश के नाटक 
  1. आषाढ़ का एक दिन 1958 
  2. लहरों के राजहंस 1963 
  3.  आधे -अधूरे  1969 
  4. पैरों तले जमीन 1972 (अधूरा नाटक )
मुख्य पंक्तियाँ  

  • मैंने कहा था ,यह नाटक  तरह ही अनिश्चित है। उसका  कारण भी यही है कि मैं इसमें हूँ और मेरे होने से ही इसमें सब कुछ इसमें निर्धारित या अनिर्धारित है। एक विशेष परिवार विशेष परिस्थितिया !परिवार दूसरा होने से परिस्थितिया बदल जाती ,मैं वही रहता। इसी तरह सब कुछ निर्धारित करता है। इस परिवार की स्त्री के स्थान पर कोई दूसरी स्त्री किसी दूसरी तरह से मुझे झेलती या वह स्त्री मेरी भूमिका ले लेती और में उसकी भूमिका लेकर उसे झेलता। नाटक अंत तक फिर भी इतना ही कठिन होता  मुख्या भूमिका किसकी थी -मेरी ,उस स्त्री की ,परिस्थतियों की ,या तीनो के बिच उठते कुछ सवालो की। 
  • कई -कई दिनों के लिए अपने को उस से काट लेती हूँ। पर धीरे-धीरे हर चीज उसी ढर्रे  पर लौट आती है। सब -कुछ फिर उसी तरह होने लगता है जब तक की हम ----जब तक की हम नए सिरे से उसी खोह में नहीं पहुँच जाते। में यहाँ आती हूँ तो सिर्फ इसलिए की----
  • हर एक के पास एक न एक वजह होती है। इसने इस लिए कहा था।   उसने उसलिए कहा था। मैं जानना चाहता हूँ की मेरी क्या हैसियत है इस घर में कि जो जब किसी वजह से कह दे मैं चुप चाप सुन लिया करूँ ?हर वक़्त की धतकार ,हर वक़्त की कोंच ,बस यही कमाई है इतने सालो की ?

  • अपनी जिंदगी चौपट काने का जिम्मेदार मैं हूँ। तुम्हारी जिंदगी चौपट करने का जिम्मेदार में हूँ। फिर भी में इस घर से चिपका हूँ क्योंकि अंदर से में आराम तलब हूँ ,घरघुसरा हूँ ,मेरी हड्डियों में जंग लग गया है। 

  • इसलिए इसी तरह इस घर का कुछ बन सके ,की मेरे अकेले के ऊपर बहुत बोझ ह इस घर का। जिसे  साथ धोने वाला हो सके। अगर में कुछ खास  साथ सम्बन्ध बनाकर रख  सकता हूँ तो अपने लिए नहीं ,तुम लोगो के लिए। पर तुम लोग इस से छोटे होते हो, तो  अपने लिए नहीं ,तुम लोगो के लिए। पर तुम लोग इस से छोटे होते हो ,तो मैं छोड़ दूंगी कोशिश ,हाँ  इतना  कहकर की मैं अकेले दम इस घर की जिम्मेदारियाँ  नहीं उठती रह सकती और एक आदमी है जो घर का सारा पैसा डुबोकर हाथ पर हाथ धरे बैठा है। दूसरा होनी कोशिश से कुछ करना तो दूर ,मेरे सर फोड़ने  से भी  ठिकाने लगता  अपमान समझता। ऐसे में मुझ से भी नहीं निभ सकता। जानबी और किसी को यहाँ दर्द नहीं किसी चीज का ,तो अकेली में ही क्यों अपने को चीथती रहूँ रात -दिन ? 


  • मैं यहाँ थी ,तो मुझे   कई बार लगता था कि मैं घर में नहीं ,चिड़ियाघर के किसी पिंजरे में रहती हूँ जहाँ---आप शायद सोच भी नहीं सकते की क्या -क्या होता है यहाँ। डैडी का चीखते हुए ममा के कपड़े तार -तार कर देना---उनके मुँह पर पट्टी बाँधकर उन्हें बंद कमरे में पीटना ---खींचते हुए गुसलखाने में कमोड पर ले जाकर ---(सिहरकर )मैं तो बयान  भी नहीं कर सकती कि कितने -कितने भयानक दृश्य देखे है इस घर में मैंने। कोई भी भर का आदमी उन सबको देखता -जानता,तो यही कहता कि क्यों नहीं बहुत पहले ही ये लोग ---?    

कविता क्या है ?

कविता क्या है ?

आचार्य रामचंद्र शुक्ल 

प्रकाशन वर्ष - 1909 

चिंतामणि भाग -१ में संकलित निबंध जिसका प्रकाशन 1939 में हुआ था। इसमें १७ निबंध है। जिसमे 11 वा निबंध कविता क्या है?संकलित है। 

कविता क्या है निबंध की कुछ मुख्य पंक्तियाँ 

  • मनुष्य अपने भावों ,विचारो और व्यापारों के लिए दूसरों के भावों ,विचार और व्यापारों के साथ कही मिलाता और कही लड़ाता हुआ अंत तक ;चला चलता है और इसी को जीना कहते है। जिस अनंत रूपात्मक क्षेत्र में यह व्यवसाय चलता रहता है उसका नाम है जगत। 
  • जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान दशा कहलाती है ,उसी प्रकार हृदय  मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। ह्रदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है ,उसे कविता कहते है।  इस साधना को हम भावयोग कहते है और कर्मयोग और ज्ञानयोग का समकक्ष  मानते है। 
  • कविता ही मनुष्य के ह्रदय की स्वार्थ सम्बन्धों की स्वार्थ सम्बन्धों के संकुचित मंडल से ऊपर उठाकर लोक -सामान्य भाव -भूमि  जाती है जहाँ जगत के नाना गतियों के मार्मिक स्वरुप का साक्षात्कार और शुद्ध अनुभूतियों का संचार होता है ,इस भूमि पर पहुंचे हुए मनुष्य को कुछ काल के लिए अपना पता नहीं रहता। वह अपनी सत्ता को लोक -सत्ता में लीन किये रहता है। उसकी अनुभूति सबकी अनुभूति होती है या हो सकती है। इस अनुभूति -योग के अभ्यास हमारे  मनोविकार का परिष्कार तथा शेष सृष्टि के साथ हमारे रागात्मक संबंध की रक्षा और निर्वाह होता है। 

इस निबंध को १२ भागो में लिखा है  

हिंदी साहित्य में किन्नर विमर्श -एक पूर्वपीठिका  साहित्य किसी भी स्थिति की तहों में जाकर समाज का सरोकार उन विमर्शो और मुद्दों से करता है जिस...