अंधा युग धर्मवीर भारती 1954

अंधा युग 

धर्मवीर भारती 1954 

मुख्य पंक्तियाँ

यह अजब   युद्ध है नहीं किसी की भी जय
दोनों पक्षों का खोना ही खोना है
अन्धो से सोभित था युग का  सिंहासन 
दोनों पक्षों में विवेक ही हारा 
दोनों पक्षों में जीता अंधापन 
भय का अंधापन ,ममता का अंधापन 
अधिकारों का अंधापन जीत गया 
जो कुछ सुन्दर था ,शुभ था , कोमलतम था 
वह हार गया ---द्वापर युग बीत गया 

संस्कृति  थी यह एक बूढ़े और अंधे की 
जिसकी संतानों ने 
महायुद्ध घोषित किए ,
 जिसके अंधेपन में मर्यादा 
गलित अंग वेश्या -सी 
 प्रजाजनों को भी रोगी बनाती फिरी 
उस अंधी संस्कृति ,
उस रोगी मर्यादा की 
रक्षा हम करते रहे 
सत्रह दिन। 

पर वह संसार 
स्वतः  अपने अंधेपन से उपजा था। 
मैंने अपने ही वैयक्तिक संवेदन से जो जाना था 
केवल उतना ही था मेरे लिए वस्तु -जगत 
इंद्रजाल केकी माया -सृष्टि के समान 
घने गहरे अंधियारे में 
एक काले बिंदु से 
मेरे मन ने सारे भाव किये थे विकसित 
मेरी सब वृत्तियाँ उसी से परिचालित थी !
मेरा स्नेह ,मेरी घृणा ,मेरी नीति ,मेरा धर्म 
बिलकुल मेरा ही वैयक्तिक था। 
उसमे नैतिकता का कोई बाह्य मापदंड था ही नहीं। 
कौरव जो मेरी मांसलता से उपजे थे 
वे ही थे अंतिम सत्य 
मेरी ममता ही वहाँ नीति थी ,
मर्यादा थी 

मेरी वैयक्तिक सीमाओं के बाहर भी 
सत्य हुआ करता है 
आज मुझे भान हुआ। 
सहसा यह उगा कोई बांध टूट गया है 
कोटि -कोटि योजन तक दहाड़ता हुआ समुन्द्र 
मेरे वैयक्तिक अनुमानित सीमित जग को 
लहरों की विषय -जिह्वाओं से निगलता हुआ 
मेरे अंतर्मन में पैठ गया 
सब कुछ बह गया 
मेरे अपने वैयक्तिक मूल्य 
मेरी निश्चित किन्तु ज्ञानहीन आस्थाएं। 

धर्म ,नीति ,मर्यादा ,यह सब केवल आडम्बर मात्र ,
मैंने यह बार -बार देखा था। निर्णय के क्षण में विवेक और मर्यादा 
व्यर्थ सिद्ध होते आये है सदा 
हम सब के मन में कही एक अंध गह्वर है।
 बर्बर पशु ,अँधा पशु वास वही करता है ,
स्वामी जी हमारे विवेक का ,
नैतिकता ,मर्यादा ,अनासक्ति ,कृष्णापर्ण 
यह सब है अंधी प्रवृतियों की पोशाकें 
जिनमे कटे कपड़ों की आँखे सिली रहती हैं 
मुझको इस झूठे आडम्बर से नफरत थी 
इसलिए स्वेछा से मैंने इन आँखों पर पट्टी चढ़ा रक्खी थी 

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