आधे -अधूरे
मोहन राकेश
जन्म -1925
मध्यवर्गीय जीवन और पारिवारिक रिश्तो का दस्तावेज
`मोहन राकेश के नाटक
- आषाढ़ का एक दिन 1958
- लहरों के राजहंस 1963
- आधे -अधूरे 1969
- पैरों तले जमीन 1972 (अधूरा नाटक )
मुख्य पंक्तियाँ
- मैंने कहा था ,यह नाटक तरह ही अनिश्चित है। उसका कारण भी यही है कि मैं इसमें हूँ और मेरे होने से ही इसमें सब कुछ इसमें निर्धारित या अनिर्धारित है। एक विशेष परिवार विशेष परिस्थितिया !परिवार दूसरा होने से परिस्थितिया बदल जाती ,मैं वही रहता। इसी तरह सब कुछ निर्धारित करता है। इस परिवार की स्त्री के स्थान पर कोई दूसरी स्त्री किसी दूसरी तरह से मुझे झेलती या वह स्त्री मेरी भूमिका ले लेती और में उसकी भूमिका लेकर उसे झेलता। नाटक अंत तक फिर भी इतना ही कठिन होता मुख्या भूमिका किसकी थी -मेरी ,उस स्त्री की ,परिस्थतियों की ,या तीनो के बिच उठते कुछ सवालो की।
- कई -कई दिनों के लिए अपने को उस से काट लेती हूँ। पर धीरे-धीरे हर चीज उसी ढर्रे पर लौट आती है। सब -कुछ फिर उसी तरह होने लगता है जब तक की हम ----जब तक की हम नए सिरे से उसी खोह में नहीं पहुँच जाते। में यहाँ आती हूँ तो सिर्फ इसलिए की----
- हर एक के पास एक न एक वजह होती है। इसने इस लिए कहा था। उसने उसलिए कहा था। मैं जानना चाहता हूँ की मेरी क्या हैसियत है इस घर में कि जो जब किसी वजह से कह दे मैं चुप चाप सुन लिया करूँ ?हर वक़्त की धतकार ,हर वक़्त की कोंच ,बस यही कमाई है इतने सालो की ?
- अपनी जिंदगी चौपट काने का जिम्मेदार मैं हूँ। तुम्हारी जिंदगी चौपट करने का जिम्मेदार में हूँ। फिर भी में इस घर से चिपका हूँ क्योंकि अंदर से में आराम तलब हूँ ,घरघुसरा हूँ ,मेरी हड्डियों में जंग लग गया है।
- इसलिए इसी तरह इस घर का कुछ बन सके ,की मेरे अकेले के ऊपर बहुत बोझ ह इस घर का। जिसे साथ धोने वाला हो सके। अगर में कुछ खास साथ सम्बन्ध बनाकर रख सकता हूँ तो अपने लिए नहीं ,तुम लोगो के लिए। पर तुम लोग इस से छोटे होते हो, तो अपने लिए नहीं ,तुम लोगो के लिए। पर तुम लोग इस से छोटे होते हो ,तो मैं छोड़ दूंगी कोशिश ,हाँ इतना कहकर की मैं अकेले दम इस घर की जिम्मेदारियाँ नहीं उठती रह सकती और एक आदमी है जो घर का सारा पैसा डुबोकर हाथ पर हाथ धरे बैठा है। दूसरा होनी कोशिश से कुछ करना तो दूर ,मेरे सर फोड़ने से भी ठिकाने लगता अपमान समझता। ऐसे में मुझ से भी नहीं निभ सकता। जानबी और किसी को यहाँ दर्द नहीं किसी चीज का ,तो अकेली में ही क्यों अपने को चीथती रहूँ रात -दिन ?
- मैं यहाँ थी ,तो मुझे कई बार लगता था कि मैं घर में नहीं ,चिड़ियाघर के किसी पिंजरे में रहती हूँ जहाँ---आप शायद सोच भी नहीं सकते की क्या -क्या होता है यहाँ। डैडी का चीखते हुए ममा के कपड़े तार -तार कर देना---उनके मुँह पर पट्टी बाँधकर उन्हें बंद कमरे में पीटना ---खींचते हुए गुसलखाने में कमोड पर ले जाकर ---(सिहरकर )मैं तो बयान भी नहीं कर सकती कि कितने -कितने भयानक दृश्य देखे है इस घर में मैंने। कोई भी भर का आदमी उन सबको देखता -जानता,तो यही कहता कि क्यों नहीं बहुत पहले ही ये लोग ---?
कई -कई दिनों के लिए अपने को उस से काट लेती हूँ। पर धीरे-धीरे हर चीज उसी ढर्रे पर लौट आती है। सब -कुछ फिर उसी तरह होने लगता है जब तक की हम ----जब तक की हम नए सिरे से उसी खोह में नहीं पहुँच जाते। में यहाँ आती हूँ तो सिर्फ इसलिए की----पंक्तियो की व्याख्या कीजिए
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