नाखून क्यों बढ़ते हैं


                                       नाखून क्यों बढ़ते हैं

 विधा - निबंध

रचनाकार- हजारी प्रसाद द्विवेदी

  निबंध संग्रह कल्पलता से निबंध लिया गया है। 

 निबंध की मुख्य पंक्तियाँ 

 नाखून क्यों बढ़ते हैं निबंध में हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने मनुष्य के हिंसात्मक प्रवृत्ति के बढ़ने तथा प्रेम संबंधों के कटु होने का वर्णन व्यंग्यात्मक तथा ललित ढंग से किया है निबंध के शुरुआत में ही द्विवेदी जी ने रचनात्मक ढंग से इस निबंध की शुरुआत करते हैं कि बच्चे के पूछने पर के नाखून क्यों बढ़ते हैं एक पुत्र द्वारा पूछे जाने पर पिता इसका उत्तर देने में लोग असमर्थ दिखाई देता है। प्राचीन काल में नाखून रखने का महत्व भी वे दिखाते हैं कि पहले मनुष्य जानवर था उसे अपनी रक्षा के लिए अपने नाखूनों का इस्तेमाल करना होता था मगर आज वह अपने बाहरी नाखूनों को तो काट लेता है लेकिन जो उसके अंदर हिंसात्मक प्रवृत्ति है उसे नहीं मिटाता नाखूनों का स्थान अब हथियारों  ने ले लिया है।  हथियार दिन- प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे हैं यह मनुष्य को पशुता की ओर ही अग्रेषित करना है। 

इंडिपेंडेंस का अर्थ है अनधीनता या किसी अधीनता का अभाव स्वाधीनता शब्द का अर्थ है अपने अधीन रहना। 

  सोचना तो क्या उसे इतना भी पता नहीं चलता कि उसके भीतर नख  बढ़ा लेने की जो सहजात प्रवृत्ति है, वह उसके पशुत्व का प्रमाण है उन्हें काटने की जो प्रवृत्ति है, वह उसकी मनुष्यता की निशानी है और यद्यपि पशुत्व  के चिन्ह उसके भीतर रह गए हैं, पर वह पशुत्व को छोड़ चुका है पशु बनकर आगे नहीं बढ़ सकता। उसे कोई रास्ता खोजना चाहिए अस्त्र बढ़ाने की प्रवृत्ति मनुष्यता की विरोधिनी है

  मैं ऐसा तो नहीं मानता कि जो कुछ हमारा पुराना है, जो कुछ हमारा विशेष है, उससे हम चिपटे ही रहे।  पुराने का मोह सब समय वांछनीय ही नहीं होता। मरे बच्चे को गोद में दबाए रहने वाली बंदरिया मनुष्य का आदर्श नहीं बन सकती परंतु ऐसा भी नहीं सोचा जा सकता कि हम नई अनुसन्धित्सा के नशे में चूर होकर अपना  सर्वस्व खो  दें। 

  कालिदास ने कहा था कि सब पुराने अच्छे नहीं होते, सब नए खराब नहीं होते।भले लोग दोनों की जांच कर लेते हैं ,जो हितकर होता है, उसे ग्रहण करते हैं और मूढ़ लोग दूसरों के इशारे पर भटकते रहते हैं। सो हमें परीक्षा करके हितकर वस्तु निकल आए, तो इससे बढ़कर और क्या हो सकता है। 

  मनुष्य पशु से किस बात में भिन्न है ,आहार- निद्रा आदि पशु- सुलभ स्वभाव उससे ठीक वैसे ही है, जैसे अन्य प्राणियों के लेकिन वह फिर भी पशु से भिन्न है उसमें संयम है, दूसरे के सुख-दुख के प्रति संवेदना है श्रद्धा है तब है त्याग है।  यह मनुष्य के स्वयं के उद्बभावित बंधन है। इसलिए मनुष्य झगड़े टंटे को अपना आदर्श नहीं मानता, गुस्से में आकर चढ़ दौड़ने वाली अविवेकी को बुरा समझता है और वचन , मन और शरीर से किए गए असत्याचरण को गलत आचरण मानता है। 

 बृहत्तर जीवन में अस्त्र -शस्त्रों का बढ़ने देना मनुष्य की पशुता की निशानी है और उसे नहीं बढ़ने देना मनुष्यत्व का तकाजा है।  मनुष्य में जो घृणा  है, वह अनायास बिना सिखाया जाती है वह सतपुरा  अशोक तंवर का घोतक है और अपने को संयत रखना दूसरे के मनोभाव का आदर करना मनुष्य का स्वधर्म है

उर्वशी के सम्बन्ध में मुख्य कथन

उर्वशी 

रचनाकार -रामधारी सिंह दिनकर रचना काल -1961 
रचनाकार का जन्म -1908 

रचना के लिए ज्ञानपीठ से सम्मानित  वर्ष -1972

उर्वशी कृति पर भगवतशरण उपाध्याय के लेख से विवाद शुरू हुआ जिसमे अनेक आलोचक सम्मिलित हुए नामवर सिंह के शब्दों में -
                                        जनवरी 1964 की कल्पना पत्रिका में प्रकाशित उर्वशी -परिचर्चा ऐसा ऐतिहासिक दस्तावेज है जिससे समकालीन साहित्य में मूल्यों की सीधी टक्कर का पता चलता है। उर्वशी के निमित्त इस चर्चा में विभिन्न पीढ़ियों और विचारो के इतने कवि -आलोचक का भाग लेना एक घटना थी। 


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  •   भगवतशरण जी बहार से भीतर की यात्रा के पूर्व या अनन्तर यदि सावधानी से भीतर से बाहर की यात्रा भी कर लेते तो उनकी आलोचना में कमजोरियाँ न आ पाती। -मुक्तिबोध 
निसंदेह प्राचीन संस्कृति के सम्बन्ध में मेरा ज्ञान अत्यंत सीमित है। किन्तु जहाँ तक मुझे मालूम है प्राचीन आध्यात्मिक ,सांस्कृतिक और कलात्मक जगत में ,परम तत्व के साक्षात्कार के लिए काम -मार्ग नहीं चुना गया और यह सिद्धों और तांत्रिकों की ,और उनसे प्रभावित अन्य मार्गों की देन  है। -मुक्तिबोध 

कौन सी वह मूल वृत्ति है जिसके फलस्वरूप उन्हें प्राचीन और मध्ययुगीन उत्सों की और जाना पड़ा ?वह है दुर्मम ,एश्वर्य -पूर्ण -काम -विलास  की व्याकुल इच्छा ,और उसकी तृप्ति के औचित्य की स्थापना की आकांक्षा। चूँकि इस प्रकार की इच्छापूर्ति के औचित्य का सर्वोच्य विधान आध्यात्मिक रहस्यवाद ही हो सकता है , इसलिए उन्होंने महासुखवाद   का पल्ला पकड़ा।  -मुक्तिबोध 

उर्वशी एक बृहद कल्पना -स्वप्न है ,जिसके द्वारा और जिसके माध्यम से ,लेखक अपनी कामात्मक स्पृहाओं का आदर्शीकरण करता है और उन्हें एक सर्वोच्च आध्यात्मिक औचित्य प्रदान करता है। कथानक की ऐतिहासिकता केवल एक भ्रम है। -मुक्तिबोध 

उर्वशी की रचना इतिहास -शास्त्रीय दृष्टिकोण से नहीं की गयी है। ---वह एक ऐसा काव्य है ,जिसमे प्राचीन जीवन के मनोहर वातावरण की कवि -प्रणीत कल्पना को बृहद रूप देने का प्रयत्न किया गया है। -मुक्तिबोध 

उर्वशी का कवि 'संस्कृति के चार अध्याय' नमक पुस्तक का लेखक होने के कारण अपने को इतिहासशास्त्री बनाने का आडम्बर भी तो करता है।  -मुक्तिबोध 

सामाजिक प्रतिष्ठा और प्रभाव के परिचालन -द्वारा साहित्यिक प्रतिष्ठा और प्रभाव के विकास और प्रसार के दृश्य हिंदी साहित्य में खूब ही है।  मुक्तिबोध 

उर्वशी के तथाकथित ऐतिहासिक पक्ष की भगवतशरण जी ने जो आलोचना की है वह महत्वपूर्ण और अत्यंत उपयोगी है। -मुक्तिबोध 

उर्वशी का मूल दोष यह है की वह एक कृत्रिम मनोविज्ञान पर आधारित है। -मुक्तिबोध 

हमारा समाज इस समय न मोहनजोदड़ो के युग में है न व्रजयानियों के युग में ,जहाँ अनुभव के क्षणों को धार्मिक -मनोवैज्ञानिक रूप दिया जा सके। -मुक्तिबोध 

कौन है वे प्रज्ञावान भोगी जिन्हे रति -सुख की चरम परिणीति से अतीन्द्रिय सत्ता से साक्षात्कार होता है।-  मुक्तिबोध 

सांस्कृतिक ध्वनियों और प्रतिध्वनियों का निनाद करते है ,मानो पुरुरवा और उर्वशी के रतिकक्ष में भोंपू लगे हो जो शहर बाजार में रति -कक्ष के आडंबरपूर्ण कामात्मक संलाप का प्रसारण -विस्तारण कर रहे हो। -मुक्तिबोध 

वैसे तो में कल्पना भी नहीं कर सकता की रति -सुख की विविध संवेदनाओं की बारीकियाँ और गहराइयाँ नर और नारी के बीच चर्चा का विषय हो सकती है।-मुक्तिबोध  

सच तो यह है की लेखक को ,सिर्फ एक बात छोड़कर ,और कोई खास बात नहीं कहनी है। उसके पास कहने के लिए ज्यादा कुछ है भी नहीं। और जो कहना है वह यही की कामात्मक अनुभव के माध्यम से आध्यात्मिक प्रतीति सिद्ध हो सकती है। किन्तु यह कहने के लिए उसने व्यापक आयोजन किया है ,वह उसे पुरे समारोह के साथ ,अपना समय लेते हुए कहना चाहता है। -मुक्तिबोध 


कल्पना की पुनरावृति होती है ,और प्रतीति होता है की लेखक किसी मनोवैज्ञानिक काम -ग्रंथि से पीड़ित है। -मुक्तिबोध 


पुरुरवा की विवाहिता स्त्री  तपस्या का उपदेश दिया गया किन्तु उसके प्रति दिनकर के ह्रदय में विशेष करुणा नहीं है -मुक्तिबोध 


किसी भी कृति के मूल्य के सम्बन्ध में जितने माथे उतने मत हो सकते है ,लेकिन कोई -न -कोई इतनी निरपेक्ष कसौटी तो होनी ही चाहिए जिस पर उसे कसा जा सके और जिसे सब स्वीकार करें। किसी भी कृति के सम्बन्ध में कम -से -कम इस बात पर मतैक्य होना ही चाहिए की वह साहित्यिक कृति है या नहीं। मतभेद इस बात पर हो सकता है की वह उत्कृष्ट है या नहीं। - नामवर सिंह 


उस रचना को काव्य नहीं  ,इतिहास का ग्रन्थ मानकर उसका मूल्य आँका जाना बिलकुल अनर्गल बात है।  -रघुवीर सहाय

वास्तव में उस लेख की कमी यह है की उन्होंने एक काव्यकृति की समीक्षा उस मनोभूमि से की है जो काव्य की समीक्षा के उपयुक्त ही नहीं है। -धर्मवीर भारती


उपाध्यायजी ने पूरे उर्वशी काव्य को एक दृष्टि की समग्रता में,अंतर्योजना ,मूल्य -साँचे से सम्पृक्ति के आधार पर नहीं जाँचा। वे कभी तो कथा स्रोतों की खोजबीन करके बहुत -कुछ चोरी का मॉल सबित करने पर तुलते है तो कभी कवि के भाषा -सम्बन्धी अज्ञान का मजाक उड़ाने लगते है। कभी वे छंद की चर्चा करते है तो कभी असंगत बिम्ब- विधान की।  उनकी समीक्षा शैली पुराने खानेदार आलोचना से बहुत कुछ भिन्न नहीं है। यहाँ आलोचना और आलोच्य में संवेदनागत धरातल की एक विचित्र एकता है। -देवीशंकर अवस्थी

उर्वशी :दर्शन और काव्य  -गजानन माधव मुक्तिबोध 
मूल्यों का टकराव :'उर्वशी' विवाद - नामवर सिंह 

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उर्वशी के सम्बन्ध में मुख्य कथन 

सहायक ग्रन्थ 

देवकांत सिंह -मोबाईल न-9555935125 

नेट / जे. आर. एफ

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रीतिकाल ritikal

 रीतिकाल 

समय सीमा -संवत 1700 से 1900 

रीतिकाल के प्रथम कवि 

केशवदास -डॉ नगेन्द्र 
चिंतामणि - रामचंद्र शुक्ल

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रीतिकाल के अन्य नाम 

रीतिकाव्य -डॉ. जार्ज ग्रियर्सन 
अलंकृतकाल - मिश्रबन्धु 
रीतिकाल -रामचंद्र शुक्ल 
श्रृंगारकाल -विश्वनाथ प्रसाद मिश्र 
कला काल -डॉ. रमाशंकर शुक्ल रसाल 
अन्धकारकाल - त्रिलोचन 

मिश्रबन्धु तीन भाई थे -श्याम बिहारी मिश्र ,सुखदेव बिहारी , गणेश बिहारी मिश्र 

रीतिकालीन कवियों का जन्म 

  1. चिंतामणि -1609
  2. भूषण -1613
  3. मतिराम -1617
  4. बिहारी -1595
  5. रसनिधि -1603
  6. जसवंत सिंह -1627
  7. कुलपति मिश्र  -1630
  8. देव -1673
  9. नृप सम्भु -1657
  10. घनानंद -1689
  11. रसलीन -1699
  12. सोमनाथ -1700
  13. भिखारीदास -1705
  14. पद्माकर -1753
  15. ;ग्वाल कवि -1791
  16. द्विजदेव -1820
  17. सेनापति -1589
  18. केशवदास -1560
  19. ठाकुर -1766 

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मुख्य कथन 

हिंदी में  लक्षण ग्रंथों की परिपाटी पर रचना करने वाले जो सैकड़ो कवि हुए है। वे आचार्य के कोटि में नहीं आ सकते। वे वास्तव में कवि ही थे।- रामचंद्र शुक्ल 

इन्होंने शास्त्रीय मत को श्रेष्ठ और अपने मत को गौण मान लिया ,इसलिए स्वाधीन चिंतन के प्रति अवज्ञा का भाव आ गया। -हजारीप्रसाद द्विवेदी 

हिंदी के रीती आचार्य निश्चय ही किसी नवीन सिद्धांत का आविष्कार नहीं कर सके। किसी ऐसे व्यापक आधारभूत सिद्धांत का जो काव्य चिंतन को एक नई दिशा प्रदान करता है ,सम्पूर्ण रीतिकाल में आभाव है। -डॉ. नगेन्द्र 

संस्कृत में अलंकार को लेकर जैसी सूक्ष्म विवेचना हो रही थी ,उसकी कुछ भी झलक इसमें नहीं पाई जाती। शास्त्रीय विवेचना तो बहुत कम कवियों को इष्ट थी ,वे तो लक्षणों को कविता करने का बहाना भर समझते थे। वे इस बात की परवाह नहीं करते थे की उनका निर्दिष्ट कोई अलंकार किसी दूसरे में अंतर्भुक्त हो जाता है ,या नहीं। -       हजारीप्रसाद द्विवेदी 

 रीतिकाल का कोई भी कवि भक्तिभावना से हीन नहीं है -हो भी नहीं सकता था ,क्योंकि भक्ति उसके लिए मनोवैज्ञानिक आवश्यकता थी। भौतिक रस की उपासना करते हुए उनके विलास जर्जर मन में इतना नैतिक बल नहीं था की भक्ति रस में अनास्था प्रकट करें अथवा सैद्धांतिकी निषेध कर सके। - डॉ. नगेंद्र 

रीतिकाल में एक बड़े भाव की पूर्ति हो जनि चाहिए थी पर वह नहीं हुई। भाषा जिस सैकड़ों कवियों द्वारा परिमार्जित हो कर प्रौढ़ता  को पहुंची ,उसी समय व्याकरण द्वारा उसकी व्यवस्था होनी चाहिए थी। ... यदि शब्दों के रूप स्थिर हो जाते और शुद्ध रूपों के प्रयोग पर जोर दिया जाता , तो शब्दों को तोड़ -मरोड़कर विकृत करने का साहस कवियों को न होता , पर इस प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं हुई ,जिससे भाषा में बहुत कुछ  गड़बड़ी बनी रही। -रामचंद्र शुक्ल 

भाषा के लक्षक और व्यंजक बल की सीमा कहाँ तक है ,इसकी पूरी परख इन्ही को थी। -रामचंद्र शुक्ल (घनांनद के लिए )

प्रेममार्ग का ऐसा प्रवीण और धीर पथिक तथा जवादानी का ऐसा दवा रखने वाला ब्रजभाषा का दूसरा कवि नहीं हुआ - रामचंद्र शुक्ल (घनांनद के लिए )

घनानंद ने न तो बिहारी की तरह तप को बाहरी पैमाने से मापा है , न बाहरी उछल- कूद  दिखाई देती है। जो कुछ हलचल है ,वह भीतर की है ,बाहर से वह वियोग प्रशांत और गम्भीर है। रामचंद्र शुक्ल (घनांनद के लिए )

प्रणय विभोर मन की ऐसी कोई वृत्ति नहीं है जिसका सहज स्वाभाविक चित्रण घनानंद ने न किया हो। रामचंद्र शुक्ल (घनांनद के लिए )

इनकी सी विशुद्ध ,सरस और शक्तिशाली ब्रजभाषा लिखने में और कोई कवि समर्थ नहीं हुआ। रामचंद्र शुक्ल (घनांनद के लिए )

ठाकुर ने लोकोक्तियों  प्रयोग द्वारा ,रसखान ने मुहावरों द्वारा ,आनंदघन ने लक्षणा , मुहावरों व्याकरण -शुद्धि आदि गुणों से भाषा का स्वरुप को सुसंस्कृत बनाया। -डॉ मोहन लाल गौण

केशव को कवि ह्रदय नहीं मिला था। उनमे वह सहृदयता और भावुकता न थी जो एक कवि में होनी चाहिए। कवी कर्म में सफलता के लिए  भाषा पर जैसा अंधकार चाहिए वैसा उन्हें न प्राप्त था। केशव केवल उक्ति वैचित्र्य एवं शब्द क्रीड़ा के प्रेमी थे। -रामचंद्र शुक्ल

रीतिकाल के प्रतिनिधि कवियों में पद्माकर को छोड़ और किसी कवि में मतिराम सी चलती भाषा और सरल व्यंजना नहीं मिलती। उनकी भाषा में नाद सौंदर्य भी विद्यमान है। -रामचंद्र शुक्ल (मतिराम के सम्बन्ध में )

इन दो वीरों का जिस उत्साह के साथ सारी हिन्दू जनता स्मरण करती है,उसी की व्यंजना भूषण ने की है। वे हिन्दू जाती के प्रतिनिधि कवि है।

 जिस कवि में कल्पना की समाहार शक्ति के साथ भाषा की समास शक्ति जितनी ही अधिक होगी उतना ही वह मुक्तक की रचना में सफल होगा। यह क्षमता बिहारी में पूर्णरूप से विद्यमान थी।- रामचंद्र शुक्ल

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आपहुदरी

आपहुदरी 

लेखिका -रमणिका गुप्ता
जन्म -1930
मृत्यु -2019
प्रकाशन वर्ष -2016
विधा -आत्मकथा 

स्त्री आत्मकथा लेखन इस समय जोरों  पर है। 1990 के दशक के बाद महिला आत्मकथाओं की एक क़तार सी लग गई। जिसमें महिलाओं के ऊपर हो रहे अत्याचारों का वर्णन था। वह अपने अधिकार को पाना चाहती थी। उन्हें लड़कों से नीचा देखना , गर्भ में ही मार देना।  ऐसे ही अनेक परिस्थितियों से एक नारी को गुजरना पड़ता था। ऐसे में कई नारी को उनके अधिकारों को प्रेरित करने वाली साहित्यिक रचनाये लिखी गई। उसमे सबसे सशक्त रूप में उभरा आत्मकथा लेखन जो स्त्री की एक सच्ची कथा थी। जो उन लोगों को भी जवाब देती थी जो यह नहीं मानते थे की स्त्रियों के साथ गलत नहीं होता। काफी लेखिकाएँ तो शादी जैसी दाम्पत्य जीवन का सफल निर्वाह करने वाले कारकों को ही गलत ठहराने में लग गई। ऐसी ही लेखिकाओं में है -रमणिका गुप्ता जो शारीरिक यौन संबंधो का कही शिकार हुई तो कही इसके रास्ते वह कई जगह पहुंची। उनके लिए एक से अधिक शारीरिक सम्बन्ध बनाना कोई गलत बात नहीं है। उन्होंने अपने जीवन में अनेक शारीरिक सम्बन्ध बनाए। उन्ही सम्बन्धों की दास्तान  है आपहुदरी। यहाँ उन्होंने उन पारिवारिक रिश्तों को भी खंगाला है जो पवित्र कहलाता है लेकिन अगर वही सम्बन्ध अपवित्र हो जाये तो क्या करे? उन पर विश्वास करना मुश्किल हो जाता है।

रमणिका गुप्ता की पहली आत्मकथा है 'हादसे' जिसमे उनके राजनैतिक ,सामाजिक यथार्थ को दिखाया गया है।
वही आपहुदरी उसके पारिवारिक जीवन की कथा है।

आपहुदरी का अर्थ होता है 'स्वछंद' यह पंजाबी भाषा का शब्द है। लेखिका कहती है -
                                                                                                       
                                                                                                                     " मैं औरत के लिए स्वछंद शब्द को स्वतंत्र से बेहतर मानती हूँ. मैं स्वछन्द होना श्रेयस्कर समझती हूँ चूँकि इसमें छद्म नहीं है , दम्भ भी नहीं है।"

रमणिका गुप्ता अपने वयःसंधि का वर्णन करते हुए बताती है।
                                                                                         "कभी -कभी मैं स्वयं अपने शरीर में होते बदलाव को देखती छूती और अपने अंगो को सहलाती। मुझे कुछ बदला -बदला नजर आता।"

                   "अपने वक्ष को देखकर मुस्कराती। कनखियों से अपने उभार को देखती।"

बलराम रमणिका गुप्ता का पहला प्यार था। वह उसके द्वारा उसके प्यार का अहसास करती है।
                                                                                                                                            "उस दिन मानों  किसी ने हमारी पोर -पोर में बलराम लिख दिया। यह हम दोनों के लिए प्रेम का पहला एहसास था।"

रमणिका गुप्ता का बचपन से ही शारीरिक शोषण होता है। उसका नौकर रामू ही ऐसा करता है।
                                                                                                                                            "मुझे रात भर ऐसा लगता रहा था , जैसे कोई साँप मुझे लपेटे जा रहा है। एक डर -सा मन में समा गया। अगले दिन मैंने जिद्द ठान ली थी कि मैं बीबी जी के पास सोऊंगी ,रामु के पास नहीं।"

एक शिक्षक का दर्जा हमारी संस्कृति और समाज में हमेशा आदर के पात्र रहा है। माता -पिता के बाद गुरु का स्थान  ही सर्वोपरि है।  भक्तिकाल में गुरु को  समाज का सच्चा रूप दिखानेवाला , परमात्मा से साक्षात्कार करवाने वाला माना गया है।

                "सतगुरु की महिमा अनंत ,अनंत किया उपगार।
                 लोचन अनंत उघाड़िया , अनंत दिखावण हार।"

कबीर ने इस दोहे में उन्हें नेत्रों को खोलने वाला बताया है।  सत्य से साक्षात्कार की बात की है।  वही पूज्य समझे जाने वाले गुरु में , ऐसे भी गुरु छुपे हुए है जो अपने स्वार्थों में लिप्त है। हवस के पुजारी है जिन्हें समय मिलने पर वह किसी भी औरत और लड़की को बस एक ही निगाह से देखते है। अपनी यौन इच्छा पूरी करने की ललक उनमे हमेशा समाहित रहती है। रमणिका गुप्ता ने ऐसे ही सत्य को उजागर किया है। यह सह शिक्षक को रमणिका गुप्ता के माता -पिता से ही मिला। वह उनके सामने भी रमणिका गुप्ता के साथ रजाई में बैठ जाता था।

                                                                                                                "वह पापा जी और बीबी जी  की नाक तले मेरी रजाई में घुसकर बैठ जाता था पर उस मास्टर पर पापा जी और बीबी जी का इतना विश्वास था की अगर मैं उसके बारे में कुछ बोलती भी ,तो वह झूठ माना जाता।  उसके खिलाफ बोलने का मतलब था मार खाना।"

यौन इच्छा अब लेखिका की खुद की भी चाह बन गई थी। अब वह इन्ही ख्यालों में खोई रहती थी।
                                                                                                                                        "फिर मास्टर का चेहरा गौण होता गया और रह गया साँप। तब से मैं बिना चेहरे वाली उस हरकत में इतना लिप्त हो गयी की वह एक आदत बन गयी ,जो छूटती न थी।"

लेखिका का यह कथन इस आत्मकथा को और प्रमाणित करता है। आत्मकथा के मुख्य लक्ष्य उसकी सत्यता उसे उजागर करता है की लेखिका ने अपने मन की बात को भी दिखाया है जो मनोवैज्ञानिक सच्चाई है।

रमणिका गुप्ता अपने पारिवारिक सच्चाई  को भी उजागर करती है कि  पिता  , माँ के बाद भी अन्य स्त्रियों से सम्बन्ध रखते थे । वह संतरा नाम के एक हरियाणवी स्त्री के सम्बन्ध में बताती है। संतरा की शादी को 10 साल हो गए थे उसका बच्चा भी नहीं था। घर वाले उसे इसके लिए प्रताड़ित करते थे वह हिस्टीरिया रोग से ग्रसित हो गई। वह ईलाज करने इनके पिता के पास आने लगी।  लेखिका उनके इस सम्बन्ध को यौन सम्बन्ध से जोड़ती हुई दिखाती है।
                   "सुई लगवा के आती हूँ ,कह कर वह पापा जी के कमरे में घुस जाती थोड़ी देर में बाहर आती ,तो चोली बांधती या घघरी संभालती। उसका हिस्टीरिया और बाँझपन दोनों खत्म हो गए।"

वह अपने नाना और मौसी के सम्बन्ध को भी समझ नहीं पाती है की वह कैसा सम्बन्ध है। रमणिका गुप्ता की मौसी शादी के बाद पति को छोड़कर मायके ही रहती है। -
                                                                                    "मुझे नहीं भूलता कभी मौसी का नाना के बाहर वाले कमरे में चुपचाप चले जाना और सलवार टूंगते या गाल पोछते बाहर आना।"

बच्चों के उनके परिवेश का असर उन पर पड़ता है। माता- पिता के सम्बन्ध उनके सामने उनके मनोवैज्ञानिक रूप से निर्माण में सहायक होते है। अगर उनके सामने थोड़ा खुलापन होता है तो उसका नकारात्मक असर बच्चे पर पड़ता है।  'आपका बंटी' उपन्यास में भी यह दिखाया गया है। बंटी अपने माँ और डॉक्टर के कमरे में चला जाता है। तब उसे एक अलग सा अहसास होता है। वही  इसका जिक्र 'शेखर एक जीवनी' में भी है। ऐसे ही स्थिति में 'रमणिका गुप्ता' का भी मनोवैज्ञानिक धरातल तैयार हो रहा था। एक सामान्य खेल है जो अधिकांशतः बच्चे खेलते है बचपन में -शादी का खेल। उसी खेल का जिक्र रमणिका गुप्ता करती है। उस खेल का मनोवैज्ञानिक धरातल हमारा कहा से बना होता है। वही जो हम घर में देखते है क्योंकि इसका खुलापन आपकी गलियों में नहीं होता , न ही हमे 5 क्लास तक ऐसा कुछ पढ़ाया जाता है। यह संस्कार हमे घर से ही प्राप्त होते है। जिसमे गलत सही का ज्ञान नहीं होता बस करने की इच्छा होती है और घर वाले कर रहे है तो अच्छा ही होगा। लेखिका यह खेल अपनी दोस्त खातून के साथ खेलती है।
                                                                 "हमसे तो आपने हमारी कच्छी खुलवा ली ,अब आपकी बारी है। अपनी सलवार खोलो। खातून की सलवार भी मैंने खोल दी। कुछ खास  फर्क न था। सिर्फ बाल उग आये थे। 'यह बनेगी मम्मी' मैं बोली -बीबी जी जब नहाती है तो उनके बाल भी ऐसे होते है।"

रमणिका गुप्ता ने अपनी शादी अपने मन पसंद लड़के से की। जिसका नाम है  वेदप्रकाश , वेदप्रकाश सहायक एम्प्लॉयमेंट ऑफिसर है। रमणिका गुप्ता अपने परिवार से विद्रोह करके अंतर्जातीय विवाह करती है। वेदप्रकाश जाती से बनिया है और रमणिका गुप्ता राजपूत। लेकिन इनका भी परिवार नहीं चल पाया। दोनों एक दूसरे पर शक करते थे।  रमणिका गुप्ता बताती है की वेदप्रकाश अपने छोटे भाई और रमणिका गुप्ता का सम्बन्ध बताते है। लेखिका कहती  है  -

                                        "यशपाल तो मुझे बच्चे जैसा नजर आता था।  मेरे सामने उसके व्यक्तित्व का कोई अंश नहीं था ,जो मेरे अनुरूप या समकक्ष हो। मैं फुट -फुटकर रोई  थी उस दिन।"

वही लेखिका वेदप्रकाश गुप्ता का  सम्बन्ध  उनकी भाभी से जोड़ती है। वह यहाँ तक कह देती है की उनकी भाभी की छोटी लड़की वेदप्रकाश गुप्ता की ही है।

                                                                          "भी प्रकाश के कॉलेज से आने की  राह  ताकती रहती। उनके आते ही चुपचाप टेबल पर चाय लेकर रख देती थी। स्नेह से नाश्ता भी परोस देती थी। कभी प्यार से मुँह में खिला देती और उनका जूठन खुद खा लेती। भाभी के पति बाहर ही रहते थे। उनके पास प्रकाश ही होता था। भाभी की छोटी बेटी तो प्रकाश की ही बेटी थी।"

यहाँ से शुरू होती है रमणिका गुप्ता के शारीरिक इच्छा पूर्ति की दास्तान जो शुरू हुई और अलग अलग लोगो से बनती भी रही। कभी अपने नृत्य शिक्षक के साथ , आहूजा के साथ , और जो भी उन्हें अच्छा लगा उनके साथ चाहे अच्छी उपाधि प्राप्त करनी हो तो मुख्यमंत्री या फिर कैबिनेट मंत्री के साथ।

आहूजा के साथ बनाए गए सम्बन्ध के बारे में लेखिका बताती है-                         
                                                                                                   "अपने को पहचानने , अपनी पहचान बनाने और कुछ कर गुजरने के इरादे से लैस ,लक्ष्य स्पष्ट नहीं था पर कुछ छटपटाहट थी ,एक असंतोष था ,एक बौखलाहट भी और कुछ हासिल करने की ललक ,हदे छू रही इच्छा। यह इच्छा ही मेरे जीने की इच्छा शक्ति थी। शायद जो अच्छे ,बुरे सब रास्ते टटोलने से गुजर नहीं सकती थी।"

वही लेखिका यह भी दिखती है की आहूजा किस प्रकार उनके अंगो की व्याख्या करता था। -
                                                                                                                                           "वह मेरे एक- एक अंग  की व्याख्या करता , एक -एक अंग का एहसास मुझे कराता उसकी तेज साँस मुझे छूती और मेरी साँसे पी जाती।"   

बिहार के मुख्यमंत्री के साथ बनाये सम्बन्ध के बारे में बताती है।      
                                                                                           "तुम कॉंग्रेस पार्टी का काम करो। मेरा मन तो तुमने जीत  ही लिया है। यह कहते हुए उन्होंने मुझे आगोश में लेकर चुम लिया। मैं विरोध नहीं कर सकी या शायद में अपना देख रही थी।"

रमणिका गुप्ता की  आत्मकथा कितना सार्थक प्रभाव डालेगी यह में नहीं कह सकता। यह आत्मकथा बचपन तक के दौर में काफी प्रभावी है। लेकिन जैसे यह शादी के बाद अपने अन्य सम्बन्धों के स्तर पर  गलत होती है और लेखिका उसी का पल्ला पकड़ कर ऊपर चढ़ी है। मेरा तो उनसे यह प्रश्न है की वो आपहुदड़ी है तो तब उनका स्वर कहा चुप हो जाता है जब उनका शिक्षक उनके साथ गलत करता है ,रामू उनके साथ गलत करता है। यहाँ रमणिका गुप्ता की इच्छा ही सम्बन्ध बनाना है जो  वह अलग -अलग व्यक्तियों से सम्बन्ध बनाती है लेकिन इनकी इसी सच्चाई से दूसरी तरफ वह भी पुरुष नग्न होता है जो स्त्रियों को इसी दृष्टि से देखते है।

अंततः यह आत्मकथा मेरे हिसाब से उन पारिवारिक जीवन मूल्यों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। इस आत्मकथा को लोगों को मनोरंजन के लिए पढ़ने के लिए सही है। अपने जीवन पर लागु करने के लिए नहीं। कुछ चीजे सिखने लायक है ,मगर पुरे आत्मकथा को देखने पर यह अन्य  दैहिक स्वतंत्रता की माँग करने वाली आत्मकथा है। नेट के पाठ्यक्रम में लगने वाली तो कतई नहीं।

आपहुदड़ी आत्मकथा के बारे में कथन -

  • आपहुदड़ी एक दिलचस्प और दिलकश आत्मकथा है। यह एक स्त्री की आत्मकथा है। इसमें विभाजन के समय दंगे दर्ज है , इसमें बिहार राजनेताओं के चेहरे की असलियत दर्ज है। इसमें संवादधर्मिता और नाटकीयता दोनों है।  आत्मकथा इसलिए भी  विशिष्ट है की रमणिका जी ने जैसा जीवन जिया महसूस किया है , वैसा ही लिखा। -      मैनेजर पाण्डेय 

  • एक पाठक के तौर पर में इस आत्मकथा को एक स्त्री की मुक्ति या आजादी के तौर पर नहीं देखता। यह स्त्री वैचारिकी भी नहीं है। आत्मकथा में अद्भुत अपूर्व स्मृतिया है। इस आत्मकथा के माध्यम से अपने साहस की कथा कही है।आपहुदड़ी आत्मकथा के रूप में एक मोड़ भी है।  -लीलाधर मंडलोई 

  • आपबीती के इस बयां में ऐसा है क्या जो मुझे स्तब्ध कर रहा है -नैतिक निर्णयों को इसका ठेंगा ,इसका तथा कथित पारिवारिक पवित्रता के ढकोसलों का उद्धघाटन ,इसकी बेबाकबयानी ,इसकी निसंकोच निडरता ,सच बोलने का इसका आग्रह और साहस या अपने बचाव पक्ष के प्रति लापरवाही। -अर्चना वर्मा 

देवकांत सिंह -मोबाईल न-9555935125 

नेट / जे. आर. एफ

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जामुन का पेड़

जामुन का पेड़ 

व्यंग रचना 

लेखक -कृष्ण चन्दर 

जन्म- 1914 

देहावसान -1977 

प्रकाशन वर्ष -1960 के दशक  में 

लोकतांत्रिक ढांचे में शासन प्रशासन में व्याप्त भ्र्ष्टाचार को उजागर करने वाली व्यंग रचना 

जामुन का पेड़ व्यंग्यात्मक रचना एक जामुन के पेड़ के नीचे दबे व्यक्ति का दर्द , जो अंततः शासन , प्रशासन के लापरवाही के कारण दम तोड़ देता है।  उसकी कथा है कहानी की शुरुवात होती है व्यक्ति के जामुन के पेड़ के नीचे दबने से जो सेक्रेटेरिएट के लॉन में लगी हुई थी।  माली जब एक व्यक्ति को उसके नीचे दबा हुआ देखता है तो वह दौड़ता हुआ चपरासी के पास जाता है।  चपरासी क्लर्क के पास और क्लर्क सुपरिंटेंडेंट के पास।  सभी लोग फिर उस व्यक्ति को देखने आते है। देखने पर क्लर्क उस व्यक्ति के दबने का ध्यान न  देकर वह जामुन के पेड़ के प्रति अपना दर्द बयान करते है।
                            "बेचारा जामुन का पेड़ कितना फलदार था। पहला क्लर्क" 

दूसरे क्लर्क को जामुन का रसीलापन याद आता है। 

                                "इसकी जामुन कितनी रसीली होती थी। दूसरा क्लर्क" 

तीसरे क्लर्क को अपने साथ अपने बच्चों की भी याद आ गयी की कितने खुशी से वह जामुन खाते थे।

"मैं फलों के मौसम में झोली भर के ले जाता था।  मेरे बच्चे इसकी जामुन कितनी खुसी से कहते थे।  तीसरा क्लर्क यह कहते हुए उसका गला भर आया।" 

माली सबको जामुन से ध्यान हटाकर उसके नीचे दबे व्यक्ति के प्रति केंद्रित करता है। तब सुपरिंटेंडेंट,  अंडर सेक्रेटरी के पास ,अंडर सेक्रेटरी ,डिप्टी सेक्रेटरी के पास ,डिप्टी सेक्रेटरी , जॉइंट सेक्रेटरी के पास जॉइंट सेक्रेटरी चीफ सेक्रेटरी के पास जाते है।  इन सब कामों में ही वह अपना आधा दिन बिता देते है। 

इसे वाणिज्य विभाग से , कृषि विभाग को भेजा जाता है क्योंकि यह खेती बाड़ी से सम्बंधित है।  वह यह कहकर इसे हार्टिकल्चर विभाग में भेज देते है की इस पर फल लगा हुआ है इसका आदेश वही से मिलेगा की इसका क्या करना है।  

तीसरे दिन हार्टिकल्चर विभाग अपना सन्देश देते है। 

                                                                     "हैरत है , इस समय जब पेड़ उगाओ स्किम बड़े पैमाने पर चल रही है , हमारे मुल्क में ऐसे सरकारी अफसर मौजूद है। जो पेड़ काटने की सलाह दे रहे है। वह भी फलदार पेड़ को !और वह भी जामुन के पेड़ को !जिसके फल जनता बड़े चाव से खाती है हमारा विभाग किसी भी हालत में पेड़ को काटने की इजाजत नहीं दे सकता।" 

 एक मनचले व्यक्ति ने आदमी को काट कर निकलने की बात कही और बाद में प्लास्टिक सर्जरी के जरिये जोड़ने की। 

                  "आप जानते नहीं है।  आजकल प्लास्टिक सर्जरी के जरिये धड़ की जगह से , इस आदमी को फिर से जोड़ा जा सकता है।"

इसे बिच से काट कर फिर से जोड़ने पर यह जिन्दा रहेगा या नहीं इस लिए रिपोर्ट मेडिकल डिपार्टमेंट में भेजी जाती है। 
बाद में पता चलता है की पेड़ के नीचे दबा हुआ व्यक्ति कवि है। उसने 'ओस के फूल' कविता लिखी है।  फिर वहाँ कवियों का जमावड़ा लग जाता है।  वहाँ कविता होने लगती है।  

अंततः फॉरेस्ट डिपार्टमेंट वाले आरी ले कर उसे काटने आते है। 

                                                                                "दूसरे दिन जब फॉरेस्ट डिपार्टमेंट में आदमी आरी कुल्हाड़ी लेकर चहुंचे तो उनको पेड़ काटने से रोक दिया गया।  विदेश विभाग से हुक्म आया की इसे न कटा जाये।" 

पेड़ को न काटने का कारण था -
                                                 "इस पेड़ को दस साल पहले पिटोनिया राज्य के प्रधानमंत्री ने सेक्रेटेरिएट के लॉन में लगाया था।"  

अंत में जब आदेश आता है तब सुपरिटेंडेंट उस व्यक्ति को बताने जाता है की कल तुम्हे बचा लिया जायेगा तब तक वह
व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त हो चूका होता है।

                                                       "सुनते हो ?आज तुम्हारी फाइल मुक्कमल हो गई है। सुप्रीटेंडेट ने शायर के बाजू  को हिलाकर कहा मगर शायर का हाथ सर्द था।  आँखों की पुतलियाँ बेजान थी और चीटियों की एक लम्बी कतार उसके मुँह में जा रही थी।"
"उसकी जिंदगी की फाइल भी मुकम्मल हो चुकी थी।"

अन्य जानकारी 

आई सी एस सी  के पाठ्यक्रम से इसे 2020 में हटा दिया गया। 
यह 2015  से उनके पाठ्यक्रम में लगी हुई थी।

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बैच शुरू - 2  जुलाई   2020
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हिंदी साहित्य में किन्नर विमर्श -एक पूर्वपीठिका  साहित्य किसी भी स्थिति की तहों में जाकर समाज का सरोकार उन विमर्शो और मुद्दों से करता है जिस...