उर्वशी के सम्बन्ध में मुख्य कथन

उर्वशी 

रचनाकार -रामधारी सिंह दिनकर रचना काल -1961 
रचनाकार का जन्म -1908 

रचना के लिए ज्ञानपीठ से सम्मानित  वर्ष -1972

उर्वशी कृति पर भगवतशरण उपाध्याय के लेख से विवाद शुरू हुआ जिसमे अनेक आलोचक सम्मिलित हुए नामवर सिंह के शब्दों में -
                                        जनवरी 1964 की कल्पना पत्रिका में प्रकाशित उर्वशी -परिचर्चा ऐसा ऐतिहासिक दस्तावेज है जिससे समकालीन साहित्य में मूल्यों की सीधी टक्कर का पता चलता है। उर्वशी के निमित्त इस चर्चा में विभिन्न पीढ़ियों और विचारो के इतने कवि -आलोचक का भाग लेना एक घटना थी। 


हिंदी साहित्य नेट से सम्बंधित अन्य  जानकारी के लिए फॉलो करे -mukandpr.blogspot.com
  •   भगवतशरण जी बहार से भीतर की यात्रा के पूर्व या अनन्तर यदि सावधानी से भीतर से बाहर की यात्रा भी कर लेते तो उनकी आलोचना में कमजोरियाँ न आ पाती। -मुक्तिबोध 
निसंदेह प्राचीन संस्कृति के सम्बन्ध में मेरा ज्ञान अत्यंत सीमित है। किन्तु जहाँ तक मुझे मालूम है प्राचीन आध्यात्मिक ,सांस्कृतिक और कलात्मक जगत में ,परम तत्व के साक्षात्कार के लिए काम -मार्ग नहीं चुना गया और यह सिद्धों और तांत्रिकों की ,और उनसे प्रभावित अन्य मार्गों की देन  है। -मुक्तिबोध 

कौन सी वह मूल वृत्ति है जिसके फलस्वरूप उन्हें प्राचीन और मध्ययुगीन उत्सों की और जाना पड़ा ?वह है दुर्मम ,एश्वर्य -पूर्ण -काम -विलास  की व्याकुल इच्छा ,और उसकी तृप्ति के औचित्य की स्थापना की आकांक्षा। चूँकि इस प्रकार की इच्छापूर्ति के औचित्य का सर्वोच्य विधान आध्यात्मिक रहस्यवाद ही हो सकता है , इसलिए उन्होंने महासुखवाद   का पल्ला पकड़ा।  -मुक्तिबोध 

उर्वशी एक बृहद कल्पना -स्वप्न है ,जिसके द्वारा और जिसके माध्यम से ,लेखक अपनी कामात्मक स्पृहाओं का आदर्शीकरण करता है और उन्हें एक सर्वोच्च आध्यात्मिक औचित्य प्रदान करता है। कथानक की ऐतिहासिकता केवल एक भ्रम है। -मुक्तिबोध 

उर्वशी की रचना इतिहास -शास्त्रीय दृष्टिकोण से नहीं की गयी है। ---वह एक ऐसा काव्य है ,जिसमे प्राचीन जीवन के मनोहर वातावरण की कवि -प्रणीत कल्पना को बृहद रूप देने का प्रयत्न किया गया है। -मुक्तिबोध 

उर्वशी का कवि 'संस्कृति के चार अध्याय' नमक पुस्तक का लेखक होने के कारण अपने को इतिहासशास्त्री बनाने का आडम्बर भी तो करता है।  -मुक्तिबोध 

सामाजिक प्रतिष्ठा और प्रभाव के परिचालन -द्वारा साहित्यिक प्रतिष्ठा और प्रभाव के विकास और प्रसार के दृश्य हिंदी साहित्य में खूब ही है।  मुक्तिबोध 

उर्वशी के तथाकथित ऐतिहासिक पक्ष की भगवतशरण जी ने जो आलोचना की है वह महत्वपूर्ण और अत्यंत उपयोगी है। -मुक्तिबोध 

उर्वशी का मूल दोष यह है की वह एक कृत्रिम मनोविज्ञान पर आधारित है। -मुक्तिबोध 

हमारा समाज इस समय न मोहनजोदड़ो के युग में है न व्रजयानियों के युग में ,जहाँ अनुभव के क्षणों को धार्मिक -मनोवैज्ञानिक रूप दिया जा सके। -मुक्तिबोध 

कौन है वे प्रज्ञावान भोगी जिन्हे रति -सुख की चरम परिणीति से अतीन्द्रिय सत्ता से साक्षात्कार होता है।-  मुक्तिबोध 

सांस्कृतिक ध्वनियों और प्रतिध्वनियों का निनाद करते है ,मानो पुरुरवा और उर्वशी के रतिकक्ष में भोंपू लगे हो जो शहर बाजार में रति -कक्ष के आडंबरपूर्ण कामात्मक संलाप का प्रसारण -विस्तारण कर रहे हो। -मुक्तिबोध 

वैसे तो में कल्पना भी नहीं कर सकता की रति -सुख की विविध संवेदनाओं की बारीकियाँ और गहराइयाँ नर और नारी के बीच चर्चा का विषय हो सकती है।-मुक्तिबोध  

सच तो यह है की लेखक को ,सिर्फ एक बात छोड़कर ,और कोई खास बात नहीं कहनी है। उसके पास कहने के लिए ज्यादा कुछ है भी नहीं। और जो कहना है वह यही की कामात्मक अनुभव के माध्यम से आध्यात्मिक प्रतीति सिद्ध हो सकती है। किन्तु यह कहने के लिए उसने व्यापक आयोजन किया है ,वह उसे पुरे समारोह के साथ ,अपना समय लेते हुए कहना चाहता है। -मुक्तिबोध 


कल्पना की पुनरावृति होती है ,और प्रतीति होता है की लेखक किसी मनोवैज्ञानिक काम -ग्रंथि से पीड़ित है। -मुक्तिबोध 


पुरुरवा की विवाहिता स्त्री  तपस्या का उपदेश दिया गया किन्तु उसके प्रति दिनकर के ह्रदय में विशेष करुणा नहीं है -मुक्तिबोध 


किसी भी कृति के मूल्य के सम्बन्ध में जितने माथे उतने मत हो सकते है ,लेकिन कोई -न -कोई इतनी निरपेक्ष कसौटी तो होनी ही चाहिए जिस पर उसे कसा जा सके और जिसे सब स्वीकार करें। किसी भी कृति के सम्बन्ध में कम -से -कम इस बात पर मतैक्य होना ही चाहिए की वह साहित्यिक कृति है या नहीं। मतभेद इस बात पर हो सकता है की वह उत्कृष्ट है या नहीं। - नामवर सिंह 


उस रचना को काव्य नहीं  ,इतिहास का ग्रन्थ मानकर उसका मूल्य आँका जाना बिलकुल अनर्गल बात है।  -रघुवीर सहाय

वास्तव में उस लेख की कमी यह है की उन्होंने एक काव्यकृति की समीक्षा उस मनोभूमि से की है जो काव्य की समीक्षा के उपयुक्त ही नहीं है। -धर्मवीर भारती


उपाध्यायजी ने पूरे उर्वशी काव्य को एक दृष्टि की समग्रता में,अंतर्योजना ,मूल्य -साँचे से सम्पृक्ति के आधार पर नहीं जाँचा। वे कभी तो कथा स्रोतों की खोजबीन करके बहुत -कुछ चोरी का मॉल सबित करने पर तुलते है तो कभी कवि के भाषा -सम्बन्धी अज्ञान का मजाक उड़ाने लगते है। कभी वे छंद की चर्चा करते है तो कभी असंगत बिम्ब- विधान की।  उनकी समीक्षा शैली पुराने खानेदार आलोचना से बहुत कुछ भिन्न नहीं है। यहाँ आलोचना और आलोच्य में संवेदनागत धरातल की एक विचित्र एकता है। -देवीशंकर अवस्थी

उर्वशी :दर्शन और काव्य  -गजानन माधव मुक्तिबोध 
मूल्यों का टकराव :'उर्वशी' विवाद - नामवर सिंह 

हिंदी साहित्य नेट से सम्बंधित अन्य  जानकारी के लिए फॉलो करे -mukandpr.blogspot.com
आप हिंदी नेट / जे. आर. एफ की तैयारी करना चाहते है।
ऑनलाइन क्लासेज शुरू की जा रही है।
मात्र 1000  रु. मासिक में
डेमो क्लास के लिए सम्पर्क करे।
व्हाट्सप्प न.- 9555935125
                    7840890357
एक बैच में अधिकतम विद्यार्थियों की संख्या 15 होगी। 
हिंदी के अन्य जानकारी पाने के लिए मेरे ब्लॉग को फॉलो करे। 

उर्वशी के सम्बन्ध में मुख्य कथन 

सहायक ग्रन्थ 

देवकांत सिंह -मोबाईल न-9555935125 

नेट / जे. आर. एफ

blog -mukandpr.blogspot.com


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

हिंदी साहित्य में किन्नर विमर्श -एक पूर्वपीठिका  साहित्य किसी भी स्थिति की तहों में जाकर समाज का सरोकार उन विमर्शो और मुद्दों से करता है जिस...