आपहुदरी

आपहुदरी 

लेखिका -रमणिका गुप्ता
जन्म -1930
मृत्यु -2019
प्रकाशन वर्ष -2016
विधा -आत्मकथा 

स्त्री आत्मकथा लेखन इस समय जोरों  पर है। 1990 के दशक के बाद महिला आत्मकथाओं की एक क़तार सी लग गई। जिसमें महिलाओं के ऊपर हो रहे अत्याचारों का वर्णन था। वह अपने अधिकार को पाना चाहती थी। उन्हें लड़कों से नीचा देखना , गर्भ में ही मार देना।  ऐसे ही अनेक परिस्थितियों से एक नारी को गुजरना पड़ता था। ऐसे में कई नारी को उनके अधिकारों को प्रेरित करने वाली साहित्यिक रचनाये लिखी गई। उसमे सबसे सशक्त रूप में उभरा आत्मकथा लेखन जो स्त्री की एक सच्ची कथा थी। जो उन लोगों को भी जवाब देती थी जो यह नहीं मानते थे की स्त्रियों के साथ गलत नहीं होता। काफी लेखिकाएँ तो शादी जैसी दाम्पत्य जीवन का सफल निर्वाह करने वाले कारकों को ही गलत ठहराने में लग गई। ऐसी ही लेखिकाओं में है -रमणिका गुप्ता जो शारीरिक यौन संबंधो का कही शिकार हुई तो कही इसके रास्ते वह कई जगह पहुंची। उनके लिए एक से अधिक शारीरिक सम्बन्ध बनाना कोई गलत बात नहीं है। उन्होंने अपने जीवन में अनेक शारीरिक सम्बन्ध बनाए। उन्ही सम्बन्धों की दास्तान  है आपहुदरी। यहाँ उन्होंने उन पारिवारिक रिश्तों को भी खंगाला है जो पवित्र कहलाता है लेकिन अगर वही सम्बन्ध अपवित्र हो जाये तो क्या करे? उन पर विश्वास करना मुश्किल हो जाता है।

रमणिका गुप्ता की पहली आत्मकथा है 'हादसे' जिसमे उनके राजनैतिक ,सामाजिक यथार्थ को दिखाया गया है।
वही आपहुदरी उसके पारिवारिक जीवन की कथा है।

आपहुदरी का अर्थ होता है 'स्वछंद' यह पंजाबी भाषा का शब्द है। लेखिका कहती है -
                                                                                                       
                                                                                                                     " मैं औरत के लिए स्वछंद शब्द को स्वतंत्र से बेहतर मानती हूँ. मैं स्वछन्द होना श्रेयस्कर समझती हूँ चूँकि इसमें छद्म नहीं है , दम्भ भी नहीं है।"

रमणिका गुप्ता अपने वयःसंधि का वर्णन करते हुए बताती है।
                                                                                         "कभी -कभी मैं स्वयं अपने शरीर में होते बदलाव को देखती छूती और अपने अंगो को सहलाती। मुझे कुछ बदला -बदला नजर आता।"

                   "अपने वक्ष को देखकर मुस्कराती। कनखियों से अपने उभार को देखती।"

बलराम रमणिका गुप्ता का पहला प्यार था। वह उसके द्वारा उसके प्यार का अहसास करती है।
                                                                                                                                            "उस दिन मानों  किसी ने हमारी पोर -पोर में बलराम लिख दिया। यह हम दोनों के लिए प्रेम का पहला एहसास था।"

रमणिका गुप्ता का बचपन से ही शारीरिक शोषण होता है। उसका नौकर रामू ही ऐसा करता है।
                                                                                                                                            "मुझे रात भर ऐसा लगता रहा था , जैसे कोई साँप मुझे लपेटे जा रहा है। एक डर -सा मन में समा गया। अगले दिन मैंने जिद्द ठान ली थी कि मैं बीबी जी के पास सोऊंगी ,रामु के पास नहीं।"

एक शिक्षक का दर्जा हमारी संस्कृति और समाज में हमेशा आदर के पात्र रहा है। माता -पिता के बाद गुरु का स्थान  ही सर्वोपरि है।  भक्तिकाल में गुरु को  समाज का सच्चा रूप दिखानेवाला , परमात्मा से साक्षात्कार करवाने वाला माना गया है।

                "सतगुरु की महिमा अनंत ,अनंत किया उपगार।
                 लोचन अनंत उघाड़िया , अनंत दिखावण हार।"

कबीर ने इस दोहे में उन्हें नेत्रों को खोलने वाला बताया है।  सत्य से साक्षात्कार की बात की है।  वही पूज्य समझे जाने वाले गुरु में , ऐसे भी गुरु छुपे हुए है जो अपने स्वार्थों में लिप्त है। हवस के पुजारी है जिन्हें समय मिलने पर वह किसी भी औरत और लड़की को बस एक ही निगाह से देखते है। अपनी यौन इच्छा पूरी करने की ललक उनमे हमेशा समाहित रहती है। रमणिका गुप्ता ने ऐसे ही सत्य को उजागर किया है। यह सह शिक्षक को रमणिका गुप्ता के माता -पिता से ही मिला। वह उनके सामने भी रमणिका गुप्ता के साथ रजाई में बैठ जाता था।

                                                                                                                "वह पापा जी और बीबी जी  की नाक तले मेरी रजाई में घुसकर बैठ जाता था पर उस मास्टर पर पापा जी और बीबी जी का इतना विश्वास था की अगर मैं उसके बारे में कुछ बोलती भी ,तो वह झूठ माना जाता।  उसके खिलाफ बोलने का मतलब था मार खाना।"

यौन इच्छा अब लेखिका की खुद की भी चाह बन गई थी। अब वह इन्ही ख्यालों में खोई रहती थी।
                                                                                                                                        "फिर मास्टर का चेहरा गौण होता गया और रह गया साँप। तब से मैं बिना चेहरे वाली उस हरकत में इतना लिप्त हो गयी की वह एक आदत बन गयी ,जो छूटती न थी।"

लेखिका का यह कथन इस आत्मकथा को और प्रमाणित करता है। आत्मकथा के मुख्य लक्ष्य उसकी सत्यता उसे उजागर करता है की लेखिका ने अपने मन की बात को भी दिखाया है जो मनोवैज्ञानिक सच्चाई है।

रमणिका गुप्ता अपने पारिवारिक सच्चाई  को भी उजागर करती है कि  पिता  , माँ के बाद भी अन्य स्त्रियों से सम्बन्ध रखते थे । वह संतरा नाम के एक हरियाणवी स्त्री के सम्बन्ध में बताती है। संतरा की शादी को 10 साल हो गए थे उसका बच्चा भी नहीं था। घर वाले उसे इसके लिए प्रताड़ित करते थे वह हिस्टीरिया रोग से ग्रसित हो गई। वह ईलाज करने इनके पिता के पास आने लगी।  लेखिका उनके इस सम्बन्ध को यौन सम्बन्ध से जोड़ती हुई दिखाती है।
                   "सुई लगवा के आती हूँ ,कह कर वह पापा जी के कमरे में घुस जाती थोड़ी देर में बाहर आती ,तो चोली बांधती या घघरी संभालती। उसका हिस्टीरिया और बाँझपन दोनों खत्म हो गए।"

वह अपने नाना और मौसी के सम्बन्ध को भी समझ नहीं पाती है की वह कैसा सम्बन्ध है। रमणिका गुप्ता की मौसी शादी के बाद पति को छोड़कर मायके ही रहती है। -
                                                                                    "मुझे नहीं भूलता कभी मौसी का नाना के बाहर वाले कमरे में चुपचाप चले जाना और सलवार टूंगते या गाल पोछते बाहर आना।"

बच्चों के उनके परिवेश का असर उन पर पड़ता है। माता- पिता के सम्बन्ध उनके सामने उनके मनोवैज्ञानिक रूप से निर्माण में सहायक होते है। अगर उनके सामने थोड़ा खुलापन होता है तो उसका नकारात्मक असर बच्चे पर पड़ता है।  'आपका बंटी' उपन्यास में भी यह दिखाया गया है। बंटी अपने माँ और डॉक्टर के कमरे में चला जाता है। तब उसे एक अलग सा अहसास होता है। वही  इसका जिक्र 'शेखर एक जीवनी' में भी है। ऐसे ही स्थिति में 'रमणिका गुप्ता' का भी मनोवैज्ञानिक धरातल तैयार हो रहा था। एक सामान्य खेल है जो अधिकांशतः बच्चे खेलते है बचपन में -शादी का खेल। उसी खेल का जिक्र रमणिका गुप्ता करती है। उस खेल का मनोवैज्ञानिक धरातल हमारा कहा से बना होता है। वही जो हम घर में देखते है क्योंकि इसका खुलापन आपकी गलियों में नहीं होता , न ही हमे 5 क्लास तक ऐसा कुछ पढ़ाया जाता है। यह संस्कार हमे घर से ही प्राप्त होते है। जिसमे गलत सही का ज्ञान नहीं होता बस करने की इच्छा होती है और घर वाले कर रहे है तो अच्छा ही होगा। लेखिका यह खेल अपनी दोस्त खातून के साथ खेलती है।
                                                                 "हमसे तो आपने हमारी कच्छी खुलवा ली ,अब आपकी बारी है। अपनी सलवार खोलो। खातून की सलवार भी मैंने खोल दी। कुछ खास  फर्क न था। सिर्फ बाल उग आये थे। 'यह बनेगी मम्मी' मैं बोली -बीबी जी जब नहाती है तो उनके बाल भी ऐसे होते है।"

रमणिका गुप्ता ने अपनी शादी अपने मन पसंद लड़के से की। जिसका नाम है  वेदप्रकाश , वेदप्रकाश सहायक एम्प्लॉयमेंट ऑफिसर है। रमणिका गुप्ता अपने परिवार से विद्रोह करके अंतर्जातीय विवाह करती है। वेदप्रकाश जाती से बनिया है और रमणिका गुप्ता राजपूत। लेकिन इनका भी परिवार नहीं चल पाया। दोनों एक दूसरे पर शक करते थे।  रमणिका गुप्ता बताती है की वेदप्रकाश अपने छोटे भाई और रमणिका गुप्ता का सम्बन्ध बताते है। लेखिका कहती  है  -

                                        "यशपाल तो मुझे बच्चे जैसा नजर आता था।  मेरे सामने उसके व्यक्तित्व का कोई अंश नहीं था ,जो मेरे अनुरूप या समकक्ष हो। मैं फुट -फुटकर रोई  थी उस दिन।"

वही लेखिका वेदप्रकाश गुप्ता का  सम्बन्ध  उनकी भाभी से जोड़ती है। वह यहाँ तक कह देती है की उनकी भाभी की छोटी लड़की वेदप्रकाश गुप्ता की ही है।

                                                                          "भी प्रकाश के कॉलेज से आने की  राह  ताकती रहती। उनके आते ही चुपचाप टेबल पर चाय लेकर रख देती थी। स्नेह से नाश्ता भी परोस देती थी। कभी प्यार से मुँह में खिला देती और उनका जूठन खुद खा लेती। भाभी के पति बाहर ही रहते थे। उनके पास प्रकाश ही होता था। भाभी की छोटी बेटी तो प्रकाश की ही बेटी थी।"

यहाँ से शुरू होती है रमणिका गुप्ता के शारीरिक इच्छा पूर्ति की दास्तान जो शुरू हुई और अलग अलग लोगो से बनती भी रही। कभी अपने नृत्य शिक्षक के साथ , आहूजा के साथ , और जो भी उन्हें अच्छा लगा उनके साथ चाहे अच्छी उपाधि प्राप्त करनी हो तो मुख्यमंत्री या फिर कैबिनेट मंत्री के साथ।

आहूजा के साथ बनाए गए सम्बन्ध के बारे में लेखिका बताती है-                         
                                                                                                   "अपने को पहचानने , अपनी पहचान बनाने और कुछ कर गुजरने के इरादे से लैस ,लक्ष्य स्पष्ट नहीं था पर कुछ छटपटाहट थी ,एक असंतोष था ,एक बौखलाहट भी और कुछ हासिल करने की ललक ,हदे छू रही इच्छा। यह इच्छा ही मेरे जीने की इच्छा शक्ति थी। शायद जो अच्छे ,बुरे सब रास्ते टटोलने से गुजर नहीं सकती थी।"

वही लेखिका यह भी दिखती है की आहूजा किस प्रकार उनके अंगो की व्याख्या करता था। -
                                                                                                                                           "वह मेरे एक- एक अंग  की व्याख्या करता , एक -एक अंग का एहसास मुझे कराता उसकी तेज साँस मुझे छूती और मेरी साँसे पी जाती।"   

बिहार के मुख्यमंत्री के साथ बनाये सम्बन्ध के बारे में बताती है।      
                                                                                           "तुम कॉंग्रेस पार्टी का काम करो। मेरा मन तो तुमने जीत  ही लिया है। यह कहते हुए उन्होंने मुझे आगोश में लेकर चुम लिया। मैं विरोध नहीं कर सकी या शायद में अपना देख रही थी।"

रमणिका गुप्ता की  आत्मकथा कितना सार्थक प्रभाव डालेगी यह में नहीं कह सकता। यह आत्मकथा बचपन तक के दौर में काफी प्रभावी है। लेकिन जैसे यह शादी के बाद अपने अन्य सम्बन्धों के स्तर पर  गलत होती है और लेखिका उसी का पल्ला पकड़ कर ऊपर चढ़ी है। मेरा तो उनसे यह प्रश्न है की वो आपहुदड़ी है तो तब उनका स्वर कहा चुप हो जाता है जब उनका शिक्षक उनके साथ गलत करता है ,रामू उनके साथ गलत करता है। यहाँ रमणिका गुप्ता की इच्छा ही सम्बन्ध बनाना है जो  वह अलग -अलग व्यक्तियों से सम्बन्ध बनाती है लेकिन इनकी इसी सच्चाई से दूसरी तरफ वह भी पुरुष नग्न होता है जो स्त्रियों को इसी दृष्टि से देखते है।

अंततः यह आत्मकथा मेरे हिसाब से उन पारिवारिक जीवन मूल्यों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। इस आत्मकथा को लोगों को मनोरंजन के लिए पढ़ने के लिए सही है। अपने जीवन पर लागु करने के लिए नहीं। कुछ चीजे सिखने लायक है ,मगर पुरे आत्मकथा को देखने पर यह अन्य  दैहिक स्वतंत्रता की माँग करने वाली आत्मकथा है। नेट के पाठ्यक्रम में लगने वाली तो कतई नहीं।

आपहुदड़ी आत्मकथा के बारे में कथन -

  • आपहुदड़ी एक दिलचस्प और दिलकश आत्मकथा है। यह एक स्त्री की आत्मकथा है। इसमें विभाजन के समय दंगे दर्ज है , इसमें बिहार राजनेताओं के चेहरे की असलियत दर्ज है। इसमें संवादधर्मिता और नाटकीयता दोनों है।  आत्मकथा इसलिए भी  विशिष्ट है की रमणिका जी ने जैसा जीवन जिया महसूस किया है , वैसा ही लिखा। -      मैनेजर पाण्डेय 

  • एक पाठक के तौर पर में इस आत्मकथा को एक स्त्री की मुक्ति या आजादी के तौर पर नहीं देखता। यह स्त्री वैचारिकी भी नहीं है। आत्मकथा में अद्भुत अपूर्व स्मृतिया है। इस आत्मकथा के माध्यम से अपने साहस की कथा कही है।आपहुदड़ी आत्मकथा के रूप में एक मोड़ भी है।  -लीलाधर मंडलोई 

  • आपबीती के इस बयां में ऐसा है क्या जो मुझे स्तब्ध कर रहा है -नैतिक निर्णयों को इसका ठेंगा ,इसका तथा कथित पारिवारिक पवित्रता के ढकोसलों का उद्धघाटन ,इसकी बेबाकबयानी ,इसकी निसंकोच निडरता ,सच बोलने का इसका आग्रह और साहस या अपने बचाव पक्ष के प्रति लापरवाही। -अर्चना वर्मा 

देवकांत सिंह -मोबाईल न-9555935125 

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