रीतिकाल
समय सीमा -संवत 1700 से 1900
रीतिकाल के प्रथम कवि
केशवदास -डॉ नगेन्द्र
चिंतामणि - रामचंद्र शुक्ल
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रीतिकाल के अन्य नाम
रीतिकाव्य -डॉ. जार्ज ग्रियर्सन
अलंकृतकाल - मिश्रबन्धु
रीतिकाल -रामचंद्र शुक्ल
श्रृंगारकाल -विश्वनाथ प्रसाद मिश्र
कला काल -डॉ. रमाशंकर शुक्ल रसाल
अन्धकारकाल - त्रिलोचन
मिश्रबन्धु तीन भाई थे -श्याम बिहारी मिश्र ,सुखदेव बिहारी , गणेश बिहारी मिश्र
रीतिकालीन कवियों का जन्म
- चिंतामणि -1609
- भूषण -1613
- मतिराम -1617
- बिहारी -1595
- रसनिधि -1603
- जसवंत सिंह -1627
- कुलपति मिश्र -1630
- देव -1673
- नृप सम्भु -1657
- घनानंद -1689
- रसलीन -1699
- सोमनाथ -1700
- भिखारीदास -1705
- पद्माकर -1753
- ;ग्वाल कवि -1791
- द्विजदेव -1820
- सेनापति -1589
- केशवदास -1560
- ठाकुर -1766
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मुख्य कथन
हिंदी में लक्षण ग्रंथों की परिपाटी पर रचना करने वाले जो सैकड़ो कवि हुए है। वे आचार्य के कोटि में नहीं आ सकते। वे वास्तव में कवि ही थे।- रामचंद्र शुक्ल
इन्होंने शास्त्रीय मत को श्रेष्ठ और अपने मत को गौण मान लिया ,इसलिए स्वाधीन चिंतन के प्रति अवज्ञा का भाव आ गया। -हजारीप्रसाद द्विवेदी
हिंदी के रीती आचार्य निश्चय ही किसी नवीन सिद्धांत का आविष्कार नहीं कर सके। किसी ऐसे व्यापक आधारभूत सिद्धांत का जो काव्य चिंतन को एक नई दिशा प्रदान करता है ,सम्पूर्ण रीतिकाल में आभाव है। -डॉ. नगेन्द्र
संस्कृत में अलंकार को लेकर जैसी सूक्ष्म विवेचना हो रही थी ,उसकी कुछ भी झलक इसमें नहीं पाई जाती। शास्त्रीय विवेचना तो बहुत कम कवियों को इष्ट थी ,वे तो लक्षणों को कविता करने का बहाना भर समझते थे। वे इस बात की परवाह नहीं करते थे की उनका निर्दिष्ट कोई अलंकार किसी दूसरे में अंतर्भुक्त हो जाता है ,या नहीं। - हजारीप्रसाद द्विवेदी
रीतिकाल का कोई भी कवि भक्तिभावना से हीन नहीं है -हो भी नहीं सकता था ,क्योंकि भक्ति उसके लिए मनोवैज्ञानिक आवश्यकता थी। भौतिक रस की उपासना करते हुए उनके विलास जर्जर मन में इतना नैतिक बल नहीं था की भक्ति रस में अनास्था प्रकट करें अथवा सैद्धांतिकी निषेध कर सके। - डॉ. नगेंद्र
रीतिकाल में एक बड़े भाव की पूर्ति हो जनि चाहिए थी पर वह नहीं हुई। भाषा जिस सैकड़ों कवियों द्वारा परिमार्जित हो कर प्रौढ़ता को पहुंची ,उसी समय व्याकरण द्वारा उसकी व्यवस्था होनी चाहिए थी। ... यदि शब्दों के रूप स्थिर हो जाते और शुद्ध रूपों के प्रयोग पर जोर दिया जाता , तो शब्दों को तोड़ -मरोड़कर विकृत करने का साहस कवियों को न होता , पर इस प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं हुई ,जिससे भाषा में बहुत कुछ गड़बड़ी बनी रही। -रामचंद्र शुक्ल
भाषा के लक्षक और व्यंजक बल की सीमा कहाँ तक है ,इसकी पूरी परख इन्ही को थी। -रामचंद्र शुक्ल (घनांनद के लिए )
प्रेममार्ग का ऐसा प्रवीण और धीर पथिक तथा जवादानी का ऐसा दवा रखने वाला ब्रजभाषा का दूसरा कवि नहीं हुआ - रामचंद्र शुक्ल (घनांनद के लिए )
घनानंद ने न तो बिहारी की तरह तप को बाहरी पैमाने से मापा है , न बाहरी उछल- कूद दिखाई देती है। जो कुछ हलचल है ,वह भीतर की है ,बाहर से वह वियोग प्रशांत और गम्भीर है। रामचंद्र शुक्ल (घनांनद के लिए )
प्रणय विभोर मन की ऐसी कोई वृत्ति नहीं है जिसका सहज स्वाभाविक चित्रण घनानंद ने न किया हो। रामचंद्र शुक्ल (घनांनद के लिए )
इनकी सी विशुद्ध ,सरस और शक्तिशाली ब्रजभाषा लिखने में और कोई कवि समर्थ नहीं हुआ। रामचंद्र शुक्ल (घनांनद के लिए )
ठाकुर ने लोकोक्तियों प्रयोग द्वारा ,रसखान ने मुहावरों द्वारा ,आनंदघन ने लक्षणा , मुहावरों व्याकरण -शुद्धि आदि गुणों से भाषा का स्वरुप को सुसंस्कृत बनाया। -डॉ मोहन लाल गौण
केशव को कवि ह्रदय नहीं मिला था। उनमे वह सहृदयता और भावुकता न थी जो एक कवि में होनी चाहिए। कवी कर्म में सफलता के लिए भाषा पर जैसा अंधकार चाहिए वैसा उन्हें न प्राप्त था। केशव केवल उक्ति वैचित्र्य एवं शब्द क्रीड़ा के प्रेमी थे। -रामचंद्र शुक्ल
रीतिकाल के प्रतिनिधि कवियों में पद्माकर को छोड़ और किसी कवि में मतिराम सी चलती भाषा और सरल व्यंजना नहीं मिलती। उनकी भाषा में नाद सौंदर्य भी विद्यमान है। -रामचंद्र शुक्ल (मतिराम के सम्बन्ध में )
इन दो वीरों का जिस उत्साह के साथ सारी हिन्दू जनता स्मरण करती है,उसी की व्यंजना भूषण ने की है। वे हिन्दू जाती के प्रतिनिधि कवि है।
जिस कवि में कल्पना की समाहार शक्ति के साथ भाषा की समास शक्ति जितनी ही अधिक होगी उतना ही वह मुक्तक की रचना में सफल होगा। यह क्षमता बिहारी में पूर्णरूप से विद्यमान थी।- रामचंद्र शुक्ल
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