अकाल दर्शन -धूमिल 

भूख कौन उपजाता है ;
वह इरादा जो तरह देता है 
या वह घृणा जो आँखों पर पट्टी बाँधकर 
हमें घास की सट्टी में छोड़ आती है ?

उस चालक आदमी ने मेरी बात का उत्तर 
नहीं दिया। 
उसने गलियों और सड़कों और घरों में 
बाढ़ की तरह फैले हुए बच्चों की ओर इशारा किया 
और हँसने लगा। 

मैंने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा -
'बच्चे तो बेकारी के दिनों की बरकत है '
इससे वे भी सहमत है 
जो हमारी हालत पर तरस खाकर ,खाने के लिए 
रसद देते है। 
उनका कहना है की बच्चे 
हमें बसंत बुनते में मदद देते हैं। 

लेकिन यही वे भूलते है 
दरसअल ,पेड़ो पर बच्चे नहीं 
हमारे अपराध फूलते हैं 
मगर उस चालाक आदमी ने मेरी किसी बात का उत्तर 
नहीं दिया और हँसता रहा -हँसता रहा -हँसता रहा 
फिर जल्दी से हाथ छुड़ाकर 
'जनता के हित में 'स्थानान्तरित 
हो गया। 

मैंने खुद को समझाया -यार। 
उस जगह खाली हाथ जाने से इस तरह 
क्यों झिझकते हो ?
क्या तुम्हें किसी का सामना करना है ?

तुम वहाँ कुआँ झाँकते आदमी की 
सिर्फ पीठ देख सकते हो। 

और सहसा मैंने पाया की मैं खुद अपने सवालों के 
सामने खड़ा हूँ और 
उस मुहावरे को समझ गया हूँ 
जो आजादी और गाँधी के नाम पर चल रहा है 
जिसने न भूख मिट रही है ,न मौसम 
बदल रहा है। 
जलसों -जुलूसों में भीड़ की  ईमानदारी से 
हिस्सा ले रहे है और 
अकाल को सोहर की तरह गा रहे है। 
झुलसे हुए चेहरों पर कोई चेतावनी नहीं है। 
मैंने जब भी उसने कहा है देश शासन और राशन  ... 
उन्होंने मुझे टोक दिया है। 
अक्सर ,वे मुझे अपराध के असली मुकाम पर 
अँगुली रखने से मना करते हैं। 
जिनका आधे से ज्यादा शरीर 
भेड़ियों ने खा लिया है 
वे इस जंगल की सराहना करते है -
भारतवर्ष नदियों का देश है। 

बेशक , यह ख्याल ही उनका ही उनका हत्यारा है। 
यह दूसरी बात है की इस बार 
उन्हें पानी ने मारा है। 

मगर वे हैं की असलियत नहीं समझते। 
अनाज में छिपे 'उस आदमी 'की नियत 
नहीं समझते 

जो पुरे समुदाय से 
अपनी ग़िज़ा वसूल करता है -
कभी 'गाय ' से 
और कभी 'हाय ' से 

'यह सब कैसे होता है ' मैं उन्हें समझाता हूँ 
मैं उन्हें समझाता हूँ -
वह कौन -सा प्रजातान्त्रिक नुस्खा है 
कि जिस उम्र में 
मेरी माँ का चेहरा 
झुर्रियों की झोली बन गया है गया है 
उसी उम्र की मेरे पड़ोस  की महिला 

रोटी और संसद -धूमिल

रोटी और संसद -धूमिल 


एक आदमी 
रोटी बेलता है 
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा  आदमी भी है 
जो न रोटी बेलता है , न रोटी खाता है। 
वह सिर्फ रोटी से खेलता है 
मैं पूछता हूँ -
यह तीसरा आदमी कौन है ?
मेरे देश की संसद मौन है। 

नक्सलबाड़ी -धूमिल

नक्सलबाड़ी -धूमिल 



'सहमति  .... 
नहीं ,यह समकालीन शब्द नहीं है 
इसे बालिगों के बीच चालू मत करो'
-जंगल से जिरह करने के बाद 
उसके साथियो ने उसे समझाया की भूख 
का इलाज नीद के पास है। 
मगर इस बात से वह सहमत नहीं था 
विरोध के लिए सही शब्द टटोलते हुए 
उसने पाया की वह अपनी जुबान 
सहवाइन की जांघ पर भूल आया है ,
फिर भी हकलाते हुए उसने कहा -
'मुझे अपनी कविताओं के लिए 
दूसरे प्रजातंत्र की तलाश है '
सहसा तुम कहोगे फिर एक दिन -
पेट के इशारे पर 
प्रजातंत्र से बाहर आकर 
वाजिब गुस्से के साथ अपने चेहरे से 
कूदोगे 
और अपने ही घूँस पर 
गिर पड़ोगे। 

क्या मैंने गलत कहा ?आख़िरकार 
इस खाली पेट के सिवा 
तुम्हारे पास वह कौन -सी सुरक्षित  
जगह है ,जहाँ खड़े होकर 
तुम अपने दाहिने हाथ की
साजिश के खिलाफ लड़ोगे ?

यह एक खुला हुआ सच है की आदमी 
दाये हाथ की नैतिकता से 
इस कदर मजबूर होता है 
की तमाम उम्र गुजर जाती है मगर गाँड़ 
सिर्फ ,बाया हाथ धोता है। 

हवा भी बुझ चुकी है सारे इश्तहार  लिये गये हैं 
जिनमे कल आदमी -
अकाल था। वक्त के 
फालतू हिस्सों में 
छोड़ी गयी पालतू कहानियाँ 
देश -प्रेम के हिज्जे भूल चुकी है ,
और वह सड़क -
समझौता बन गयी है 
जिस पर खड़े होकर 
कल तुमने संसद को 
बाहर आने के लिए आवाज दी थी 
नहीं ,अब वहाँ कोई नहीं है 
मतलब की इबारत से होकर 
सब के सब व्यवस्था के पक्ष में 
चले गये  है। लेखपाल की 
भाषा एक लम्बे सुनसान में 
जहाँ पालो और बंजर का फर्क 
मिट चुका है चन्द खेत 
हथकड़ी पहने खड़े है। 

और विपक्ष में -
सिर्फ कविता है। 
सिर्फ हज्जाम की खुली हुई किस्मत में एक उस्तरा -
चमक रहा है। 
सिर्फ भंगी का एक झाड़ू हिल रहा है 
नागरिकता का हक हलाल करते हुई 
गंदगी के खिलाफ। 

और तुम हो ,विपक्ष में 
बेकारी और नीद से परेशान। 

और एक जंगल है -
 मतदान के बाद खून में अँधेरा 
पछींटता हुआ। 
(जंगल मुखबिर है )

उसकी आँखों में 
चमकता हुआ भाईचारा 
किसी भी रोज तुम्हारे चेहरे की हरियाली को ,
बेमुरव्वत ,चाट सकता है। 

खबरदार !
उसने तुम्हारे परिवार को 
नफरत के उस मुकाम पर ला खड़ा किया हे 
की कल तुम्हारा सबसे छोटा लड़का भी 
तुम्हारे पडोसी का गला 
अचानक ,
अपनी स्लेट से काट सकता है। 
क्या मैंने गलत कहा ?

आख़िरकार   ... आख़िरकार  ... 

कालिदास -नागार्जुन

कालिदास -नागार्जुन 


कालिदास ,सच सच बतलाना
इंदुमती के मृत्युशोक से 
अज रोया या तुम रोये थे ?
कालिदास ,सच -सच बतलाना। 

शिवजी की तीसरी आँख से 
निकली हुई महाज्वाला में 
घृतमिश्रित सूखी समिधा -सम 
कामदेव जब भस्म हो गया रति का क्रंदन सुन आँसू से 
तुमने ही तो दृग धोये थे ?
कालिदास ,सच- सच बतलाना 
रति रोइ या तुम रोये थे ?

वर्षा ऋतु की स्निग्ध भूमिका 
प्रथम दिवस आषाढ़ मास का 
देख गगन में श्याम घन  घटा 
विधुर यक्ष का मन जब उचटा 
खड़े -खड़े तब हाथ जोड़कर 
चित्रकूट से सुभग शिखर पर 
उस बेचारे ने भेजा था 

जिनके ही द्वारा संदेशा 
उन पुष्करावर्त मेघों का 
साथी बनकर उड़नेवाले 
कालिदास ,सच -सच बतलाना 
परपीड़ा से पुर -पुर हो 
थक -थक कर औ चूर -चूर हो 
अमल -धवल गिरी के शिखरों पर 
प्रियवर ,तुम कब तक सोये थे ?
रोया  यक्ष की तुम रोये थे ?
कालिदास सच -सच बतलाना। 

बादल को घिरते देखा है -नागार्जुन 


अमल धवल गिरी के शिखरों पर 
बादल को घिरते देखा है। 
छोटे -छोटे मोती जैसे 
उसके शीतल तुहिन कणों को ,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम 
कमलों पर गिरते देखा है ,
बादलों को घिरते देखा है। 

तुंग हिमालय के कंधो पर 
छोटी बड़ी कई झीले है ,
उनके श्यामल निल सलिल में 
समतल देशों से आ -आकर 
पावस की उमस से आकुल 
तिक्त -मधुर बिसतंतु खोजते 
हंसों को तिरते देखा है। 

बादल को घिरते देखा है। 

हिंदी साहित्य में किन्नर विमर्श -एक पूर्वपीठिका  साहित्य किसी भी स्थिति की तहों में जाकर समाज का सरोकार उन विमर्शो और मुद्दों से करता है जिस...