21 वी सदी के आदिवासी कथा साहित्य में पर्यावरणीय परिदृश्य एवं परिप्रेक्ष्य

इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय अमरकंटक 

                                 पीएच.डी में हिंदी साहित्य विषय प्रवेश हेतु शोध- प्रस्ताव 

शोधार्थी 

देवकांत सिंह 

ऑनलाइन साक्षात्कार 

21 वी सदी के आदिवासी साहित्य में पर्यावरणीय परिदृश्य एवं परिप्रेक्ष्य

 अध्ययन की प्रासंगिकता 

आदिवासी का सामान्य अर्थ होता है मूल निवासी। लेकिन यही मूल निवासी आज समाज से दरकिनार कर दिए गए है और हासिये पर अपने अस्तित्त्व को  बचाने की गुहार लगा रहे है। पूँजीवादी शक्तियों ने उनसे उनकी जमीन छीन कर उन्हें विस्थापित होने पर  मजबूर किया। भारत देश में 2011 की जनगणना के अनुसार अनुसूचित जनजाति की संख्या 8.6 है। आदिवासी जनजीवन में पर्यावरण का अत्यंत महत्त्व है। आज जब पर्यावरण इतना प्रदूषित हो चला है सामान्य जीवन के व्यक्ति अपने  संसाधनों का दोहन करने में लगे है वही आदिवासी जीवन इनके प्रति अपने लगाव और प्रकृति को पूज्य मानने उसका रक्षण करने से पर्यावरण को बचाने की कोशिश में अनवरत लगे हुए है। आदिवासी दर्शन को केंद्र में रखकर लिखा गया साहित्य भी अपने अस्तित्व को बचाने तथा पर्यावरण को उन व्यक्तियों से बचने की मांग कर रहा है जिनको पूजी से मतलब है पर्यावरण से नहीं वह अपने सिर्फ स्वार्थ तक निहित है।  'गायब होता देश'  उपन्यास में सोमेश्वर सिंह मुंडा का कथन है -
                                                                                                                              'अपने मूल में ही धन -समृद्धि और ताकत -वर्चस्व के खिलाफ है हमारी संस्कृति। प्रकृति से उतना ही लेना जितना हमारे समुदाय को जरुरत है  पीढ़ी को वैसी ही प्रकृति को बेहतर रूप में सौंप कर  जाए।'  

वृक्षों की कटाई ने वायुमंडल को इतना प्रभावित किया है की ओजोन परत निरंतर क्षतिग्रस्त होती जा है। सड़कों पर चल रहे परिवहन की अधिकता ने मनुष्य को साँस लेना तक मुश्किल कर दिया है नाइट्रस आक्साइड [NO2]जैसी गैसों ने तो और अधिक प्रभावित कर दिया है। साँस सम्बन्धी तथा कैंसर जैसी बीमारियों ने अपना- अपना कब्जा बना लिया है। देश की राजधानी दिल्ली में ऐसे हालत निरंतर आते रहते है की स्कूलों तक को बंद करना  पड़ जाता है। आदिवासी साहित्य दर्शन में जल ,जंगल ,जमीन को पूज्य  माना गया है। उनकी चेतना पर्यावरण को अनुकूल  रहने के पक्षधर है। 'कलम के तीर होने दो' कविता संग्रह से उदाहरण -

 'परेशान है दादी 
अपने समय के जंगल को यादकर 
जहाँ से चुन लाती थी अपने खोपा के लिए 
मकरंद के फूल 
बीमारी के लिए नाना प्रकार की 
घास  की जड़े।'  

शोध प्रविधि 

  • यह शोधकार्य आदिवासी जीवन और उसका पर्यावरण से सहसम्बन्ध पर आधारित होगा। जो की समाजशास्त्रीय और व्यावहारिक पद्यति का उपयोग इस शोधकार्य में किया जायेगा । 
  •   आदिवासी साहित्य के मूल में प्रकृति के साथ तादात्म्य को परत दर परत अवलोकन किया जायेगा।किस तरह इस से सिर्फ यह आदिवासी ही नहीं बल्कि पुरे समाज के लिए संकट की स्थिति उत्त्पन्न हो रही है और ऐसी ही दशा रही तो आगे कैसे भयावह परिणामों  से गुजरना पड़ सकता है। साहित्य के माध्यम से चित्रित किया जायेगा।  
  • इस शोध कार्य में साहित्य की कथा और काव्य विधाओं को सम्मिलत किया जायेगा। 
  • शोध प्रामाणिक तथ्यों पर आधारित होगा।

शोध प्रश्न 

  1. आदिवासी जीवन में पर्यावण का महत्त्व और सामान्य जनजीवन 
  2. भूमंडलीकरण का आदिवासी जीवन और पर्यावरण पर प्रभाव 
  3. हिंदी आदिवासी कविता में पर्यावरण के क्षति से प्रभावित जनजीवन 
  4. हिंदी आदिवासी उपन्यासों में पर्यावरण  के प्रति चेतना का अवलोकन 
  5. हिंदी आदिवासी कहानियों में आदिवासियों की स्थिति का मूल्यांकन 

विषय पर पूर्व में किये  शोध 

इस विषय  पूर्व में कोई भी शोधकार्य  नहीं किया गया। आदिवासी साहित्य से सम्बंधित कुछ शोधकार्य  
  1. स्वतंत्रोत्तर हिंदी उपन्यास साहित्य में आदिवासी जीवन -रमेशचंद्र मीणा ,-पुरुषोत्तम अग्रवाल 1997 जवाहलाल नेहरू विश्वविद्यालय 
  2. आदिवासी केंद्रित हिंदी उपन्यासों में मिथक एवं यथार्थ -बबलू यादव -आशुतोष कुमार सिंह 2018 ,इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय 
  3. समकालीन हिंदी उपन्यासों में आदिवासी जीवन का समाजशास्त्रीय अध्ययन ,संदर्भ इक्कीसवी सदी के आदिवासी हिंदी उपन्यास -अमित कुमार शाह -रेनू सिंह ,2018- इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय 
  4. हिंदी के प्रमुख  उपन्यासों में आदिवासी समाज विकास एवं विस्थापन विशेष संदर्भ ,1990 से 2015-योगेश कुमार तिवारी -खेम सिंह डेहरिया -2018 -इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय 
  5. 21 वि सदी के हिंदी उपन्यासों में अभिव्यक्त आदिवासी  अस्तित्व का संकट व्  के स्वर ,विशेष संदर्भ -2000 से 2015  तक -प्रियंका गौंड - स्नेहलता नेगी -2018 -दिल्ली विश्वविद्यालय 
  6.  आदिवासी हिंदी कविताओं का सौंदर्यबोध -नवनीत कुमार -आशुतोष कुमार ,2018 -दिल्ली विश्वविद्यालय 

 सहायक ग्रंथ 

  1. ग्लोबल गांव का देवता -रणेन्द्र ,प्रथम संस्करण ,ज्ञानपीठ प्रकाशन -2009  
  2.  गायब होता देश -रणेंद्र ,प्रथम संस्करण ,पेंगुइन प्रकाशन -2014 
  3.  कलम का तीर होने दो -झारखण्ड के हिंदी  आदिवासी कवि ,प्रथम संस्करण -2015 
  4. मरंग  गोड़ा नीलकंठ हुआ -महुआ माँझी ,प्रथम संस्करण -2012 
  5. रह गई दिशाय इसी पार -संजीव 
  6. धार -संजीव,प्रथम संस्करण -राधाकृष्ण प्रकाशन -2018   
  7. जंगल जहा शुरू होता है -संजीव 
  8. आदिवासी स्वर और नई शताब्दी -डॉ रमणिका गुप्ता 
  9. आदिवासी साहित्य विमर्श;चुनौतियाँ और संभावनाएं  -गंगा सहाय मीणा 

मैं भी औरत हूँ -अनुसूया त्यागी 2011 

अनसूया त्यागी ने अपने इस उपन्यास के अंतर्गत दो जननांग विकारों से ग्रसित दो लड़कियों की दशा को बया किया है जिनका नाम रोशनी और मंजुला है। इनके शारीरिक विकारो के बारे में उनके परिवार जन माता -पिता को बाद में पता चलता है। उपन्यास में डॉक्टर द्वारा ऑपरेशन कर योनि विकसित करना इसका कमजोर पार्ट है। उनके शारीरिक विकार को बचपन से नहीं देख पाना और उन्हें पहचान न पाना , बचपन से किशोरावस्था तक नहीं पता चलना अविश्वसनीय है। इससे रचनाकार द्वारा यह कहना संदिग्ध प्रतीत होता है की यह वास्तविक घटना से प्रेरित है और रचनाकार का इस घटना से व्यक्तिगत भी सरोकार है। पेशे से चिकित्सक लेखिका ने एक तथ्यात्मक भूल की और ध्यान नहीं दिया है -थर्ड जेंडर वाले बच्चे का जन्म आनुवांशिक विकार के कारण नहीं ,हार्मोन के असंतुलन के कारण  होता है। अतः एक ही परिवार में दो ऐसे बच्चों का जन्म मात्र संयोग ही कहा जा सकता है। लेकिन उपन्यास का अन्य कथानक उपन्यास को जनजीवन से जोड़कर उनकी सार्थकता प्रदान करता है। इस उपन्यास में मास्टर साहब ने अपनी बेटियों को अपने प्यार से वंचित नहीं किया उन्होंने न ही भगवान को कोसा बल्कि उनका उपचार कराने का निर्णय किया। समाज का भय भी उन्हें नहीं छुवा उन्होंने अपने बच्चों को दुत्कारा नहीं। उसे सहज स्वीकार किया है। 

मास्टर साहब द्वारा लिया गया निर्णय समाज में एक अत्यंत प्रेरणा देने वाला निर्णय है। वह अपने पिता जी से पैसे ले कर चुपचाप अपनी बेटियों को उपचार के लिए ले कर चले जाते है। जिस से बाद में उनकी लड़कियों को एक सुरक्षित और सम्मानित जीवन प्राप्त होता है। उनका उज्जवल भविष्य उनके सामने बाहें फैलाये खड़ी हो जाती है। अपनी दोनों लड़की मंजुला और रोशनी को उच्च शिक्षा दिलाते है। मंजुला अपने पूर्ण स्वरुप को प्राप्त करती है उसे पति साथ- साथ मातृत्व भी प्राप्त होता है। रोशनी एक प्रसिद्ध कम्पनी की सी.ई.ओ  बनी। रोशनी को ओंकार का साथ मिलता है वह उसके साथ शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करती है। दोनों विवाह करते है ,सेरोगेट मदर के  द्वारा संतान उत्पति का प्रयास करते है ,धोखा खाते है ,एक बच्ची गोद लेते है ,रसे बाद बेटे को  पाते है ,दशक पुत्री से उसका विवाह करते है। 
इस उपन्यास के माध्यम से लेखक ने चिकत्साशात्र का महत्व प्रतिपादित किया है की किस प्रकार सही समय से उपचार द्वारा हम शारीरिक विकार से ग्रस्त बच्चों को सम्मानित जिंदगी दे सकते है।यह उपन्यास एक स्टीरियो टाइप से अलग औरत की छवि बनाता है की स्त्री मात्र गर्भाशय  नहीं है। वह जीवन प्रदायिनी तो है लेकिन सिर्फ वही उसका अस्तित्त्व नहीं है। उसके जीवन में और भी तत्व है उसका  निस्पंदन है। 
लेखिका ने इस उपन्यास में शारीरिक विकार के इतर भी अन्य महत्वपूर्ण स्थितियों को आगे किया है। बहार शौच के लिए जाने वाली स्त्रियों का हमेशा भय बने रहना या शारीरिक शोषण से गुजरना। नकुल और सौरभ द्वारा रोशनी का त्याग ,यौन शुचिता का प्रश्न। यहाँ लेखिका यह भी सिद्ध करती है यदि पुरुष सभी रूपों में मानवीय गरिमा के साथ उपस्थित हो -जैसे मास्टर तुलसीराम ,डॉ. विपिन ,दादा जी और ओंकार तो कोई भी स्त्री समाज में स्वयं को असुरक्षित और हिन अनुभव नहीं करेगी। 

किन्नर कथा -महेंद्र भीष्म 2014 

बुंदेला रियासत को केंद्र में रखकर सामाजिक कार्यकर्ता और न्याय व्यवस्था से सम्बद्ध लेखक महेंद्र भीष्म ने किन्नर विमर्श को उठाया। उनके अनुसार यह उपन्यास सत्य घटनाओ पर आधारित है। ऐतिहासिकता और प्रमाणिकता को सत्यापित करने के लिए तिथियों का भी उल्लेख किया गया है। उपन्यास दो उच्च कुल में उत्पन्न तारा और सोना की कथा कहता है जिसमे बीच -बीच में थर्ड -जेंडर पर सैद्धांतिक विवेचन गुथा है जो कथा में संवेदना जगाने की जगह बोझिल बना देता है।उपन्यास में किन्नर  परिचय देना उसे डॉक्यूमेंट्री का रूप  प्रदान  कर देता है। लेखक को कथा सूत्र को  विकसित करना चाहिए था मगर किन्नरों की विशेषताओ के कारण नीरस बन गया है। परन्तु ये सब होने के बावजूद इस उपन्यास का अपना महत्व है जिसमे  लेखक किन्नरों की पारिवारिक अवहेलना झेलते दंश को बखूबी चित्रित किया है। जगतसिंह को जब पता चलता है की सोना थर्ड जेंडर है तब वह उसे मारने के लिए दीवान को भेजता है परन्तु  का मनुष्यत्व जग जाता है और वह उसे नहीं मरता। यह सब सुचना तारा को मिलती है तब वही सोना का पालन  करती है। वह एक अत्यंत निर्भीक किन्नर है और सही निर्णय लेने वाली भी। वह सिर्फ मांग कर खाने पर आश्रित न होकर खेती बाड़ी करती है उनके यहाँ आने वाले किन्नर को वह चिकत्स्कीय सुविधा भी मुहैया कराती है। अगर कोई भी चिकत्स्कीय सुविधा द्वारा ठीक हो सकता है उसे अपने खर्चे पर उसका  इलाज भी करवाती है। 
सोना उर्फ़ तारा को नृत्य में दिलचस्पी है वह इसमें पारंगत  भी है। तारा जैतपुर कभी नहीं जाती लेकिन जब तारा की मृत्यु हो जाती है उसके पाश्चात्य इस चीज से अनभिज्ञ सोना जैतपुर के आमंत्रण पर वह चली जाती है। जैतपुर पहुंचकर उसे अपने बचपन की स्मृतिया याद आ जाती है और वह नृत्य के दौरान गिर जाती है। एक नाटकीय घटनाक्रम के तहत वह अपने पुरे परिवार के साथ रहने लगती है। 
महेंद्र  भीष्म ने इस उपन्यास में जगतसिंह का ह्रदय परिवर्तन दिखाकर उपन्यास को अंततः सुखांत बना दिया है। कुंवर द्वारा स्थिति को समझे बगैर गोली चलने के बाद भी चंदा को लम्बे आपरेशन के बाद जीवनदान मिलता है। चंदा का उपचार होने के बाद वह भी सामान्य जीवन व्यतीत करती है। 
इस उपन्यास में पुरुष द्वारा चंदा को प्यार करने की भी झलक दिखलाई गई है। तारा  का भतीजा मनीष  सब स्थितियों को जानते हुए भी वह चंदा  करता है। यह उपन्यास की एक नयी पहल है क्युकी देखने को यही मिलता है की स्त्री पुरुष का जीवन व्यापन तो स्वाभाविक होता है परन्तु  तृतीय जेंडर के साथ स्थिति दूसरी बनी रहती है। वह इन सब सुखो से  वंचित रहते है। 
यहाँ लेखक ने यह चित्रित किया   किसी भी थर्ड जेंडर को अगर चिकित्सा किया जा सके तो उसे  करना चाहिए। समाज की मानसिक जकड़बंदी को तोड़कर उन्हें इनके दर्द से अवगत करना चाहिए यह कार्य केवल शिक्षा द्वारा ही सम्भव हो सकता है। हम अपने पूर्वाग्रहों को त्यागना चाहिए और नए समाज का निर्माण करना चाहिए जिसमे समतामूलक स्थिति की प्रधानता हो। 

मैं पायल हूँ -महेंद्र भीष्म 2014 

महेंद्र भीष्म की मैं पायल हूँ उपन्यास थर्ड जेंडर पर इनका दूसरा उपन्यास है जिसे पाठको द्वारा काफी सराहा गया। यह एक वास्तविक चरित्र पायल  सिंह के जीवन पर आधारित रचना है जिसमे उनके जीवन संघर्ष को सहज ही उकेरा गया है। यह उपन्यास  जीवनी परक उपन्यास की श्रेणी में आता है। इसलिए यह हमारे समाज का  सच्चा दस्तावेज है जो समाज के नग्न यथार्थ को  प्रदर्शित करता है। इस उपन्यास में समाज के मानवीय और  पक्षों को उजागर किया गया है। 
यह कथा पायल सिंह उर्फ़ जुगनी की कथा है जिसे अपने पारिवारिक  दंश को झेलकर घर से  बाहर निकलना पड़ता है। घर से बाहर का संसार और भी निर्मम क्रूर होता है लेकिन उसके साथ साथ उसमे मधुरता को कोमलता भी है जो इन्हे मरने नहीं देती। वह रेलवे स्टेशन ,रेलवे में प्रौढ़ व्यक्तियों द्वारा शोषण का शिकार बनती है। वह अपनी बुद्धिमत्ता के कारण  अपनी वास्तविकता को छुपाकर ,पंडित जी के यहाँ  नौकरी कर लेती है। सिनेमा के अंदर  हुए  नौकरी करते हुए उसे और भी अमानवीय चेहरे दिखाई देते है। प्रमोद के छेड़खानी करने के दौरान पायल सिंह की असलियत सबके सामने उजागर हो जाती है लेकिन संतोष सिंह जैसे व्यक्ति उसे दूसरी जगह नौकरी भी दिलवाते है। 
पायल के भीतर निरंतर अग्रसित होने की भावना इतनी बलवती है की वह अपने से निरंतर आगे बढ़ती रहती है। वह गेट कीपर से प्रोजेक्टर रूम ऑपरेटर बन जाती है वह गायन में भी अच्छी है और मिमिक्री करने में भी। वह लखनऊ जाकर अपना करियर बनाना  परन्तु किन्नरों द्वारा पकड़ ली जाती है। एक दुखत घटनाकर्म पायल को  तन और मन दोनों से  कर देता है। वह  कानपुर वापस आ जाती  शारीरिक रूप से भी अधिक बलवती होती है।  लखनऊ में आकाशवाणी के अंदर नौकरी मिल जाती है और वह  प्रसिद्धि प्राप्त करती है। पायल को प्रेम भी अशोक के रूप  प्राप्त होता है लेकिन उसके द्वारा हिंसा किए जाने पर वह पायल से पायल गुरु  जाती है। आगे चलकर वह इंटरनेट और यूट्यूब का उपयोग करना भी सिख जाती है। 

उपन्यास में यह प्रदर्शित किया गया है की किन्नरों को ,समाज बदलने नहीं देता। मगर किन्नरों का साहस उन्हें इस क्षेत्र में निरन्तर आगे बढ़ने को भी खुल जायेगा जब सभी किन्नर अपने दृढ संकल्प के साथ ,आत्मविश्वास लिए अपने लिए रोजगार की तलाश करेंगे। यह शुरुवात आने वाले किन्नरों को भी प्रोत्साहित करेगा। जरुरत है किन्नरों को समाजिक तथा मानसिक रूप से  मजबूत होने की। 

पोस्ट बॉक्स न. 203 नाला सोपारा -चित्रा मृदुगल 

नाला सोपारा उपन्यास किन्नरों के जीवन पर लिखा गया अति विशिष्ट उपन्यास है जिसमे किन्नरों के  जीवन का वास्तविक रूप उकेरा गया है। इसमें लेखिका ने कोई दवा नहीं किया की यह किसी व्यक्ति की वास्तविक  घटना पर आधारित है लेकिन इसे पढ़ने के बाद लगता है की यह उपन्यास उसके जीवन का सच्चा दस्तावेज है। चित्रा मृदुगल के साक्षात्कार के दौरान पूछने पर वह इस और संकेत करती है की नाला सोपारा की प्रवास यात्रा के दौरान उन्होंने ऐसे नायको को देखा और उसे घर में भी स्थान दिया। इसी लिए वह इसकी वास्तविकता  पचड़े में न पड़कर पाठको के समक्ष प्रस्तुत कर देती है। 
उपन्यास को सहज तरीके से समझने के लिए इसे समाचार दो से  पढ़ना चाहिए जिसमे एक किन्नर की लाश बरामद होती है और उसका सम्बन्ध अंडरवर्ल्ड से माना जाता है। या समाचार साधारण नहीं होता यह राजनितिक जीवन को भी हिला कर रख देता है। यह लाश बिन्नी उर्फ़ विनोद की है। विधायक जी जान चुके थे की विनोद उनके हाथो की कठपुतली नहीं बनेगा। क्योंकि वह किन्नरों के जाग्रति की बात करता है उनके स्वविवेक की न की आरक्षण की सिर्फ। दूसरी घटना विधायक जी के भतीजे और उसके मित्रो द्वारा पूनम जोशी के साथ  सामूहिक  बलात्कार  की होती है। विधायक जी विनोद और पूनम जोशी के स्नेहिल सम्बन्ध को जानते गई इसीलिए वह चंडीगढ़ के नेताओ के साथ मिलकर जल्दबाजी में वहाँ एक कार्यक्रम का आयोजन कर देते है। दिल्ली आने पर भी विनोद को उस से दुरी  बनाये रखी जाती  उसकी वास्तविकता का खुलासा न हो जाये इसलिए विनोद  अन्य स्थानीय कार्यक्रमों में उलझा कर रखा जाता है।  विनोद का बम्बई जाना  विधायक जी के लिए अच्छा अवसर होता है और विनोद की हत्या कर  दी जाती है। 
विनोद की पढाई चौदह वर्ष तक परिवार के साथ रह कर ही  होती है वह गणित में तेज होता हैं और भविष्य में गणितज्ञ बनना चाहता है। शुरुवाती दौर में तो चम्पाबाई को  मंजुल को दिखाकर पीछा छुड़ा लिया जाता है। परन्तु भविष्य में ऐसा होने पर उसे एक अपरचित संसार की तरफ रुख करना पड़ता है। जिसमे निराशा और आत्मग्लानि का भार से बोझिल जीवन व्यतीत करना होता है। परिवार वाले अपने घर को बेचकर कही चले जाते है तथा परिवार और स्कूल में विनोद के मरने की खबर बता दी जाती है। सिद्धार्थ बाद में भी इस भय से मुक्त नहीं हो पाता और अपने संतान के समय भी डरा हुआ रहता है। मंजुल को भी ऐसे मानसिक स्थितियों से ग्रस्त जीवन को व्यापन करना पड़ता है। वंदना बेन अंतिम समय में समाज की जकड़बन्दियों से विद्रोह पर उतर आती  परन्तु उस समय देर हो चुकी होती है। 
वंदना बेन जब सार्वजनिक रूप से उसे अपनाना चाहती है तब तक गन्दी राजनीती के दलदल में फंस कर उसमे डूब  जाता है और उसके संसार का सूरज वही ध्वस्त हो जाता है। 

चित्रा जी ने उपन्यास के माध्यम से सभी पहलुओ को बारीकी से देखा है और उन सभी व्यक्ति ,संस्थाओ को कटघरे में ला खड़ा किया है जो समाज में सिर्फ दिखावा करते है। उन्होंने सबसे पहले पारिवारिक पहलुओ पर प्रकाश डाला है की शुरुवात क्यों न घर से ही हो। जब परिवार इन बच्चो को अपनाने के लिए आगे आएगा तो समाज उन्हें प्रताड़ित करने में संकोच करेगा।  मगर जब घर से ही पड़ताड़ना का शिकार बच्चा होता है तब उसकी स्थिति जानवर से भी बदतर हो जाती है और उसे हर जगह दुत्कारा ही जाता है। जब इन्हे भी शिक्षा का अधिकार है और परिवार वाले उसके लिए संघर्ष करे तो कोई शिक्षा संस्थान कैसे इनकी अवहेलना करेगी। राजनितिक पार्टिया तब इन्हे सिर्फ वोट बैंक न समझकर इन नागरिक समझने लगेंगी और इनके अधिकारों और इनके स्वअस्तित्व की बात होने लगेगी। लेखिका यह स्पष्ट मानती है की यह खुद ही ऐसा आने वाली पीढ़ियों के लिए भविष्य का निर्माण करते है। वह जो झेलते है उसे आगे आने वाले किन्नरों के लिए भी वैसा ही रहने देते है अगर यह चाहते की इसमें उधर हो तो आज तक कितना कुछ परिवर्तित हो गया होता मगर इन्हे अपनी शक्ति का विस्तार करना अच्छा लगता है। नए किन्नरों पर यह राज करना चाहते है। इन्हे यह निर्णय परिवार के ऊपर ही छोड़ देना चाहिए की बच्चा  परिवार के साथ रहेगा या किन्नरों के डेरे पर। अगर  किन्नर गुरु स्वयं यह निर्णय ले ले की अगर कोई भी यहाँ किन्नर आएगा तो उसके शिक्षा  व्यवस्था की जाएगी और समाज के मुकाबले के साथ वह खड़ा रहे। तब सायास यह परिवर्तन दिखेगा की किन्नर आत्मसम्मान से जी सकेंगे फिर उन्हें किसी के आगे हाथ फैलाकर खाने की जरुरत नहीं पड़ेगी  का खाना खाएंगे। यह वर्ग समाज की एक सार्थक इकाई की तरह अपना अस्तित्व कायम कर सकेगा। 
लेखिका यह बताना चाहती  है की इसके लिए  एक दो पीढ़ी को अपना कर्तव्य पालन करना पड़ेगा तभी समाज में परिवर्तन आ सकेगा। अपनी पूर्वाग्रहों को छोड़कर इन्हे नए विचारो का अनुशीलन करना  पड़ेगा। तब कही जाकर समाज में इन्हे भी समतामूलक  अंग माना जायेगा। 

जिंदगी 50 -50 -भगवंत अनमोल 2017 

भगवंत अनमोल का यह  उपन्यास उनके द्वारा रचित यह तीसरा उपन्यास है जिसमे किन्नरों का चित्र अंकित किया गया है। यह खुद भी साहित्य  विद्यार्थी न होकर 27 वर्षीय इंजीनिर है। इस रचना लेखक इस दृष्टि को उजागर करता है की कोई भी व्यक्ति के जीवन में एक से अधिक बार ऐसा अवसर आता है की वह वहाँ से मुड़ने पर सफलता की सीढ़ी चढ़ सकता है। उसे गवाने के बाद कठिनाइयों का सामना। 
नायक अनमोल के जीवन के दो छोर है पहला भाई हर्षिता दूसरा बेटा सूर्या। इस उपन्यास में नायिका अनाया जन्मजात चेहरे पर दाग है जिस से उसे अनमोल का पहले उपेक्षा सहना पड़ता है परन्तु बाद में वह प्रेम में परवर्तित  हो जाता है। लेखक यह भी प्रदर्शित करना चाहता है की जब जन्मजात दाग व्यक्ति प्रेम पात्र बन सकता है तो जननांग विकार से ग्रसित व्यक्ति क्यों नहीं। अनमोल पिता का आड़ लेकर अनाया से शादी नहीं करता। अनमोल के पिता हर्षा को अपने साथ ही रखते है उसकी शिक्षा दीक्षा पूरी  करते है। एक अपरचित व्यक्ति द्वारा हर्षा का शारीरिक शोषण  करने पर  हर्षा को ही दोषी ठहराते है।  इस चीज से हर्षा आहत होकर कस्तूरी के डेरे पर चली जाती है और उन्ही के अनुरूप अपना जीवन ढाल लेती है। बस में  मांगने के दौरान उसके पिता के आँखों में आंसू को देखकर वह मुंबई की  तरफ अपना रुख करती है। जहाँ  उसका भाई अनमोल रहता है वह शहरी परिवेश में ढल चूका है। पिता से उपेक्षित हर्षा अपने को देह व्यापार में संलग्न कर एड्स का शिकार हो जाता है। स्वयं आत्महत्या कर काल के गाल में समाहित जाता है।  
अनमोल हर्षा के डायरी लेखन से परिचित है  मृत्यु पर्यन्त जब वह डायरी पढता है तो उसमे लिखा  है की में फिर आउंगी और होता यही। पत्नी आंशिक का जब बच्चा होता है तो वह भी शारीरिक विकार से ग्रस्त होता है। हर्षा का अनुभव अनमोल को सूर्या के पालन -पोषण में सहायक होता है। वह  समाज के सामने सूर्या के लिए ढाल बन कर खड़ा हो जाता है।सामान्य बच्चों के जन्मोत्सव की तरह उसका  जन्मोत्सव मनाया जाता है। पड़ोसियों के बोलने पर अनमोल उनकी भी कलई खोलने लगता है। 

अनमोल को हर्षा के मरने के पाश्चात्य मिली डायरी सूर्या  के जीवन को सवारने का काम आता है। जीवन के हर मोड़ पर अनमोल दीवार तरह खड़ा रहता है। उसका पालन -पोषण सामान्य बच्चों की तरह  ही करता है। सूर्या का लड़की की तरह सजने सवरने की इच्छा को भी वह पूरा करने देता है। क्योंकि  सूर्या की इस मानसिक आवश्यकता की तुष्टि जरुरी है। 

यमदीप -नीरजा 

नीरजा माधव का उपन्यास अपने शीर्षक की सार्थकता को दर्शाता है की यमदीप की भांति किन्नरों को भी यह निर्णय लेना होगा की अपने द्वारा सुधार की पहल करने पर ही सुधार निश्चित होगा। 
उपन्यास में दो -नाजबीबी और सोना तथा मानवी और आनंद की कथाएं समानांतर चलती है। कही -कही यह दोनों कहानी एक दूसरे के सामने से गुजरती है। मानवी ग्रामीण जीवन से शहरी परिवेश में आती है। शहर में आ कर  नौकरी भी करती है। वह पत्रकारिता जगत में नौकरी करती है और उसमे निहित भ्रष्टाचार को बखूबी पहचानती है। मानवी गरीबो ,शोषितों और वंचितों की आवाज बनती है। उसे कई बार अपने पारिवारिक रूढ़ियों के लिए भी परिवार के  जंग करना पड़ता है और वह उसके साथ ईर्ष्या का भाव भी रखने  लगते है। 
नाजबीबी  किन्नर होते हुए अत्यधिक साहसिक है वह समाज में तो उपेक्षित है परन्तु सामाजिक न्याय के लिए संघर्षरत भी रहती है। नाजबीबी अपने साथियों के साथ ही  पगली के भी प्रसव पीड़ा में सहायता करती है तथा उसके मर  जाने पर उसके बच्चे का पालन पोषण स्वयं करती है। उसका बच्चे के प्रति प्रेम अतल गहराइयों से होता है इसलिए वह सामान्य अभिभावक की तरह ही उसका देख रेख करती है।  नाज बीबी ,छेलू के साथ मिलकर सोना के लिए हर संभव सुविधा जुटाने का प्रयास करती है।पुलिस से बचकर ही वह उसका संरक्षण करते है। अपने कई महत्वपूर्ण सामानों को वह गिरवी रखने में भी नहीं सकुचाते और उसकी सुविधाओं का उचित ध्यान रखते है। नंदरानी  स्वयं एक  परिवार में  पाली बढ़ी थी मगर -बाई बहनो के मध्य उसे उपेक्षा से देखा जाना एक दमघोटू वातावरण का निर्माण करता है। नंदरानी ने स्वयं ही घर से निष्काषित होने का निर्णय लिया। इसी से वह सोना का ध्यान संस्कारित तरीके से रखती है। वह शिक्षा के महत्व को जानते हुए नंदरानी सोना को शिक्षित होने के लिए स्कूल भी भेजती है। नंदरानी कुछ बातो से अनभिज्ञ भी है इसीलिए वह सोना का मासिक आने पर अपने नजदीकी डॉक्टर के पास ले जाती है। डॉक्टर के द्वारा पुलिस को सुचना देने पर सोना का जीवन अस्त -व्यस्त हो जाता है। लेखिका अंत में सुखांत करने के लिए सत्यम शिवम् सुंदरम की अवधारणा को अपना कर सब कुछ सही हो जाता है। इसके लिए  मानवी और डी.एम आनंद कुमार को माध्यम बनाया गया। नाज बीबी और मानवी का सम्बन्ध स्नेहिल था उसकी का विकास होता है। मानवी निर्भीक स्त्री है वह एक नीडर पत्रकार है  तभी वह सोना के लिए संघर्ष भी कर पाती है अन्यथा वह नहीं कर पाती। उसके सहयोगी पत्रकार भी उसे छोड़कर चले जाते है। उसे भ्रष्ट पुलिस और नेताओ से भी भिड़ना  पड़ता है। पूरी व्यवस्था से वह स्वयं टकरा जाती है और सफलता भी हासिल करती है। 
इस उपन्यास  में लेखिका सिर्फ तृतीय लिंग की चर्चा ही नहीं करती बल्कि उनके जीवन का सूक्ष्म अवलोकन करके उसका समाधान निकलने की भी कोशिश करती है। समाज के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्षों को भी उद्घाटित करती है। नाज बीबी का मानवीयता ने एक श्रेष्ट धर्म अपनाया जैसे सोना जैसे चरित्र का जीवन सहज ,सम्मानित और सरल बना। महताब गुरु के माध्यम से किन्नर समाज के बारे में कई अन्धविश्वास ध्वस्त होते दीखते है। उपन्यास इसके साथ साथ पुलिस ,नेता और मिडिया जगत की सच्चाई को भी उजागर करता है। 

तीसरी ताली -प्रदीप सौरभ 2011 

तीसरी ताली उपन्यास में शारीरिक विकार से ग्रस्त प्राणी के मानसिक ,सामाजिक और पारिवारिक और शारीरिक सम्बन्धो की कहानी है जिसमे समलेंगिकता,और किन्नरों के चित्र को उजागर किया गया है। जननांग विकार से ग्रसित लोगो को असामान्य यौन संबंध बनाए पर समाज की अवहेलना को झेलना पड़ता है। लेखक पेशे से पत्रकार है उसने स्वयं धरातल पर उतर कर उनकी सत्यता को जाना है और उपन्यास में अंकित किया है। इसमें कोई अतिश्योक्ति के पुट को कही उपन्यासकार ने छुआ  नहीं है। 
लेखक ने जन्मजात विकार से युक्त और परिस्थिति का शिकार होकर बने हिजड़ो दोनों के अनुभवों की विविधता और समानता को दर्शाया गया है। लेखन नवीन जानकारियों को लेकर पाठक के समक्ष प्रस्तुत होता है। यह उपन्यास विनीता ,राजा उर्फ़ रानी ,ज्योति ,मंजू और विजय  की कहानी है। जिसे लेखक ने अपने रचनात्मक कौशल द्वारा लिपिबद्ध किया है। 
विनीत को जननांग दोष का हर्जाना भरना पड़ता है की उसे सामाजिक उपेक्षा को सहन करना पड़ता है। उसे  स्कूल से भी वंचित रहना पड़ता है लेकिन पिता द्वारा प्रतिष्ठित संसथान से ब्यूटिशन का कोर्स करवाने का निर्णय उसे भविष्य की सफलता की तरफ ले जाता है। वह स्वयं 'गे पार्लर' का निर्माण करती है और वही उसके प्रसिद्धि का कारण बनता है। 
किन्नर गुरु के यहाँ के अमानवीयता को  लेखक ने  दिखाया है की किस प्रकार मंजू और डिंपल के प्रेम सम्बन्ध को स्वीकार नहीं करती। उनके प्रेम सम्बन्ध से मंजू गर्भवती हो  जाती है लेकिन यह बात किन्नर गुरु स्वीकार नहीं है और वह मंजू का गर्भच्छेदन करा दिया जाता है। राजा के साथ भी लिंगछेदन करा कर उसे भी किन्नर समुदाय का अंग बना दिया जाता है। 
यह उपन्यास किन्नर समुदाय के जीवन के मानवीय और अमानवीय सम्बन्धो को  उजागर किया गया है। लेखक  कुशलता के साथ गलत बातो के प्रति अतिक्रमण किया है और सकारत्मक पक्षों के प्रति वह अनुकरणीय स्थिति को उत्तपन्न करते है। अंततः यह उपन्यास किन्नरों के जीवन विडंबना को चित्रित किया है।    
                                     

मुर्दहिया 

लेखक - तुलसीराम 
जन्म -1  जुलाई 1949 
माता का नाम - धीरजा 

मुर्दहिया हमारे गाँव धरमपुर आजमगढ़ की बहुउद्देशीय कर्मस्थली थी। चरवाही से लेकर हरवाही तक के सारे रास्ते वही से गुजरते थे। इतना ही नहीं स्कूल से दुकान ,बाजार हो या मंदिर यहाँ तक की मजदूरी के लिए कलकत्ता वाली रेलगाड़ी पकड़ना हो तो भी मुर्दहिया से गुजरना पड़ता था। हमारे गांव के जिओ पॉलटिक्स यानि भू -राजनीती में दलितों के लिए एक सामरिक केंद्र जैसी थी। जीवन से लेकर मरण तक की सारी गतिविधिया मुर्दहिया समेट लेती थी। सबसे रोचक तथ्य यह है की मुर्दहिया मानव और पशु में कोई फर्क नहीं करती थी। 

मुर्दहिया सही मायनो में हमारी दलित बस्ती की जिंदगी थी। इस जिंदगी को मुर्दहिया से खोदकर लेन का पूरा श्रेय तद्भव के मुख्य संपादक अखिलेश को जाता है। 

प्रवासी मजदूरों से ही पता चला की मुर्दहिया से होकर जाने वाली सड़क ने हमारे गांव को तीन जिलों -आजमगढ़ ,गाजीपुर तथा बनारस से जोड़ दिया है। ..... सम्भवतः मुर्दहिया से सड़क निकल जाने के कारण वहाँ के भूत -पिशाचो का भी पलायन अवश्य हो गया होगा। जाहिर है ,अब पहले जैसी उनकी पूजा नहीं होती। बढ़ते हुए शरीकरण ने हर एक के जीवन को प्रभावित किया है। भूत भी इससे अछूते नहीं है। 

मुर्दहिया को सात  अध्याय में विभक्त किया गया है। 

  1. भूतही पारिवारिक पृष्टभूमि 
  2. मुर्दहिया तथा स्कूली जीवन 
  3. अकाल में अन्धविश्वास 
  4. मुर्दहिया के गिद्ध तथा लोकजीवन 
  5. भूतिनिया नागिन 
  6. चले बुद्ध की राह 
  7. आजमगढ़ की फाकाकशी 
                                                          1 
लगभग 23 सौ वर्ष पूर्व यूनान देश से भारत आए मिनांदर ने कहा की आम भारतीयों को लिपि का ज्ञान नहीं है ,इस लिए वह पढ़ लिख नहीं सकते। 
सदियों पुरानी इस अशिक्षा का परिणाम यह हुआ की मूर्खता और मूर्खता के चलते अंधविश्वासों का बोझ मेरे पूर्वजों के  सिर से  कभी नहीं हटा। 

शुरुवात अगर दादाजी से करूँ  जी के अनुसार उन्हें एक भूत ने लाठियों से पीट- पीटकर मार डाला था। 

 माँ ने बताया था की उसके कई बच्चे पैदा हुए किन्तु थोड़ा बड़ा हो -होकर सबके सब मरते चले गए।  इसलिए जब में पैदा हुआ तो पिताजी मुझे अपनी गोद में लेकर गाँव से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर एक शिव मंदिर ,जिसे शेरपुर कुटी कहते थे ,पहुंचे और मंदिर के महंत हरिहर दास से आशीर्वाद देने  के लिए विनती की। 

भारत के अन्धविश्वास समाज में ऐसे व्यक्ति अशुभ की श्रेणी के लिए सूचीबद्ध हो जाता है। ऐसी श्रेणी में मेरा प्रवेश मात्र तीन वर्ष की अवस्था में हो गया। अतः घर से लेकर बाहर तक सबके लिए मैं अपशगुन बन गया। 

बारह गांव के चमारो के चौधरी -सोम्मर  - तुलसी राम के पिता के 5 भाइयो में सबसे बड़े 

तीसरे नंबर के नग्गर जो बोहोत गुस्सैल स्वाभाव के थे और मुझे कनवा कह कर पुकारते। 

बारह गांव के चौधरी के समक्ष जो समस्याए लाई जाती ,उनमे दो मामले बड़े विचित्र ढंग से सुलझाए जाते थे। इनमे से एक मामला होता था किसी युवती का गांव के किसी अन्य व्यक्ति के साथ यौन -सम्बन्ध या उसका बिन विवाह गर्भवती होना तथा दूसरा था किसी चमार द्वारा मरे हुए पशु [गाय ,बैल या भैंस ] माँस खाया जाना। 

डांगर -मर हुए  पशुओ का माँस 

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 यमदीप 

यमदीप नीरजा माधव  कृत  किन्नर केंद्रित उपन्यास है जिसमे किन्नरों की अमानवीय स्थितियों  अंकन किया गया है। जहाँ पारिवारिक दायित्वबोध अपने दायित्व से मुँह मोड़ लेते है और एक बालक को दूसरी परिस्थितियों के हवाले कर देते है। जहाँ उसे निरंतर हीनताबोध से ग्रसित होना पड़ता है। सामाजिक उपेक्षा उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित करता है। वही सामाजिक दृष्टिकोण उन्हें देह -व्यापर की और भी आकृष्ट करता है उसी के माध्यम से उनका जीवन व्यापन होता है। यमदीप उपन्यास में इन्ही विषयों को व्यावहारिक रूप से पाठक को साक्षात्कार कराता है। लेखक का शीर्षक चयन उनके शब्द कौशल का परिणाम है जहाँ वह मिथकीय ग्रंथो के अनुसार ही इसका शीर्षक यमगाथा रखते है। यम का मतलब मृत्यु के देवता यमराज से है यह चौदह माने जाते है। दीपावली के एक दिन पूर्व नरक चतुर्दशी के रात चौदह दीप जलाने का प्रचलन है जिसमे से एक दीप को किसी उपेक्षित जगह पर रखा जाता है जैसे कूड़े के ढेर पर या बाहर किसी ऐसी जगह जहाँ नजर न पड़े। किन्नरों का जीवन भी उसी दीप के सामान हो चुकी है उन्हें उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता है। अगर कोई व्यक्ति शारीरिक विकलांग हो तो परिवार वाले उसे घर से निष्काषित नहीं करते अपितु अगर कोई किन्नर जन्म ले तो वह सबसे पहले अपने पारिवारिक अवहेलना को ही सहता है। उसका निष्कासन पूर्वागमन के किये नहीं होता अपितु जीवन भर छुटकारे के लिए होता है। सामान्य लिंग जो की प्रायः सिर्फ स्त्रीलिग  और पुलिंग को ही माना जाता है इन बच्चों को थोड़ी देर कही आने में लग जाती है तो पूरा घर व्याकुल हो उठता है वह इतनी बेचैनी से काम लेते है की पूरा मोहल्ला जान जाता है माँ तुरंत विलाप करने लगती है। लेकिन वही परिवार किन्नर बच्चे को  घर से बाहर कर देते है। यह दोहरा मापदंड क्यों जबकि वह भी उसी माँ की कोख से जन्मा बच्चा है। क्या उसके जन्म लेने में उसका खुद का कोई योगदान है की वह किन्नर न जन्म ले पाए बिलकुल नहीं। फिर इसकी सजा उसे क्यों दी जाती है क्यों नहीं उसकी सजा के लिए उनके माता पिता को जिम्मेदार ठहराया जाता। क्योकि इसमें उनकी भी कोई जानकारी नहीं होती और ऐसी स्थिति में इसका भागीदार कौन होगा। इस उपन्यास में नंदरानी मुख्य नायिका के रूप में है जिसका शारीरिक विकास  होने पर स्त्रिगुण के साथ -साथ चेहरे पर बाल भी आने लगते है। इस स्थिति से घर वालो को उसके बारे में चिंता होने लगती है - 'कक्षा आठ में पहुंचते -पहुँचते उसके अन्य स्त्रियोचित्य अंगो के उभार और विकास के साथ ही चेहरे पर श्याम वर्ण के रोये भी उभरने लगते थे। सब कुछ छिपकर सामान्य जीवन जी सकने  की उसकी और माता -पिता की कल्पना चकनाचूर होने लगी थी।' उसके परिवार ने उसे पढ़ा लिखाकर एक उज्जवल भविष्य का जो ताना -बना कल्पित किया था उसके यो धराशाही होना समाज को किन्नरों के प्रति उपेक्षित बर्ताव को ही दृष्टिगत करता है।  माँ उसे कहती है की ऐसे मत चला कर नहीं तो किन्नर अपनी बस्ती में तुझे ले जायेंगे- 'तुम कैसी चलती हो ,हम लोगों की तरह चलो. हिजड़े देख लेंगे तो तुम्हे भी वही समझ लेंगे।'  एक बार जब किन्नर उसे देख लेते है तब  उसे अपने साथ ले जाने का आग्रह करते है लेकिन उसकी माँ उन्हें उन लोगों को नहीं सौपती।   
नंदरानी को समय के साथ अवहेलना का शिकार होना पड़ता है। उसके कारण घर परिवार की बदलती परिस्थितियों को भी वह गहनता से अनुभूत करती है उसे यह भी पता चलता है की उसके कारण उसकी बहन नंदिनी के विवाह में अड़चन पैदा हो रही है। उसे स्वम अपने से ग्लानि की अनुभूति  होती है और वह किन्नर की बस्ती में जाने का मन बना लेती है। नंदरानी की माँ उसे भले ही अपने बर्ताव में बदलाव की बात करती है परन्तु किन्नरों के निवेदन करने पर वह साफ मना कर देती है। नंदरानी अपने मन में चल रहे द्वन्द के कारण एक रात को  बिन बताये घर से चली जाती है। किन्नरों की बस्ती में वह  महताब से साक्षात्कार करती है और उन्ही से दीक्षा लेती है।  महताब गुरु  उसकी पुरानी  यादो को विस्मृत करने को कहते है जिस से आगामी भविष्य उसे पीछे की यादो में न समेटे अपितु  एक नए जीवन को सृजित करे।  उसके इस नए जीवन के आरम्भ करने के लिए उसका नाम भी बदल  दिया जाता है उसका नया नाम नाजबीबी  रखा जाता है। 
घर से निर्वासन के पश्चात नाजबीबी को अपने घर की याद् विचलित करती रहती है। वह अपनी यादो को विस्मृत नहीं कर पाती उसका मन अधिक खिन्न तथा निरंतर उद्वेलित रहता है। एक दिन इन्ही यादो की गुथिया उसे पुनः अपने घर फ़ोन करने पर विवश कर देती है और वह अपने घर पर फ़ोन करती है। फ़ोन भाई द्वारा उठाया जाता है और प्रयुत्तर स्वरुप यहाँ फ़ोन नहीं करने का उचित आदेश देता है। भाई द्वारा यह सुनकर की तुम्हारा इस घर से कोई सम्बन्ध नहीं है नाजबीबी क्षुब्ध होती है। मगर निराशा के साथ आशा  तब जागृत होते है जब वह फिर से फ़ोन मिलाती है और इस बार फ़ोन मक द्वारा उठाया जाता है। उसे अपनी माँ से उचित तरीके का बर्ताव करना भाव विभोर कर  देता है और वह संतुष्ट हो जाती है। समय अपने साथ हो रहे अन्याय को नाजबीबी द्वारा किन्नर दशा को दर्शाता रहता है। एक दिन माँ उसके पिता से मिलने उसके बस्ती में आती है जहाँ नाजबीबी के साथ अन्य किन्नरों के मन में भी ख़ुशी की लहार दौड़ती है। उसकी माँ उसके हल- चाल जानती है  तथा घर वापसी की बात कहती है पिता द्वारा िस्बत का विरोध होता है। माता की ममता अपने बच्चे को इस तरह देख कर क्यों नहीं विचलित होगी पर समाज की जकड़बन्दियों ने पिता के  दिए और वह उन्ही जंजीरो को दौड़ने में असक्षम हो जाते है। किसी पिता को विकलांग बच्चा होने पर वह अपनी पिता के कर्तव्य से विचलित नहीं होता परन्तु इस किन्नर होने से वह क्यों विचलित हो जाता है।-हिजड़े के बाप कहलाना न आप बर्दाश्त कर पाएंगे और न आपके परिवार के लोग। लूली -लंगड़ी होती या कानि -कातरी  होती तो भी आप इसे साथ रख सकते थे ... इसलिए इसे अब अपने हाल पर छोड़ दीजिये। आदिवासी ,अल्पसंख्यक तथा अनुसूचित जाती के लिए लोग नारे लगाने लगते है उन्हें पढ़ाने की बात करने लगते है  परन्तु उन्हें कभी किन्नरों की दशा का ज्ञान नहीं होता उनकी बुद्धि इनके प्रति मंद कैसे हो जाती है क्या ये  समाज के अंग नहीं है। जिन लोगो को हम न्याय दिला रहे है उन वर्गो के द्वारा भी क्या इन्हे उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखा जाता। समाज आज भी इनके नौकरी की बात नहीं करता छोड़ दिया है इन्हे नाचने गाने पर और मजबूर कर दिया है रत को किसी के साथ सोने पर। यह नाचना इनकी स्वेछा नहीं अपितु अपने रोजगार चलाने का एक जरिया है। जिस से यह जीवन व्यापन कर सके। इस उपन्यास में इन्ही बिंदुओं को दृष्टिगत किया गया है - 'कोई आगे नहीं आएगा की हिजड़ो को पढ़ाओ ,लिखाओ नौकरी दो ,जैसे कुछ जातियों के लिए सरकार कर रही है ,हमारे लिए वो भी नहीं। माता -पिता ,घर -परिवार सबसे छुड़ाकर इस बस्ती में नाचने गाने के लिए फेक आती है  किस्मत।'
   नाजबीबी को अपने माँ की बहुत याद आती है वह हमेशा उन्ही के बारे में सोचती रहती है। एक  बार जब वह अपनी माँ को फ़ोन करती है तब उनका फ़ोन भाभी उठाती है और बताती  है की माँ को कैंसर हो गया है वह अत्यधित इस रोग से पीड़ित है। इससे नाजबीबी विचलित होती है और माँ से मिलने कानपुर स्थित अपने आवास पर पहुँचती है वहां पता चलता है की माँ का देहांत हो चूका है वह श्मशान घाट जाती है और वहां भाई द्वारा उपेक्षा  बनती है। इससे वह बहुत विचलित भी होती है  उसका मन बेहद निराश होता है। नाजबीबी  आग्रह करती है की माँ की अनुपस्थिति में उनके यादो को सजोने के लिए में उनकी राख का अंश चाहती हूँ और वह जलती चिता से उनके दाँत को ले जाती है। 
नाजबीबी बेहद संवेदनशील और ममतामयी किन्नर है। एक प्रसव पीड़िता की वह किस प्रकार निश्छल भाव से सेवा करती है और उसके प्राण त्याग देने की स्थिति में वह उस पुत्री को अपनी पुत्री की तरह उसका पालन पोषण  करती है। वह उसे विद्या ग्रहण के लिए स्कूल भी भेजती है। स्कूल में किन्नर के जाते ही किस प्रकार वातावरण बदल जाता है इसका भी उसमे चित्रण है। वह विरोध नहीं करती क्योकि वह जानती है कितनी जगह इन विरोधो का  पड़ेगा। वह अगर आवाज उठाती भी है तो उसके आवाज को दबा दिया जायेगा। किन्नर हर एक परिस्थितियों से परचित भी होते है वह व्यक्ति के तिरछी मुस्कान को भी समझते है और उनके बोलने के तरीके को भी किस प्रकार  रहा है। सोना के पालन -पोषण में उसे किन्नरों का विरोध भी झेलना पड़ता है क्योंकि ऐसी परिस्थिति में उसका चोर समझा जाना स्वाभाविक है।पुलिस ऐसी परिस्थितियों में  कोई कसर नहीं छोड़ती है। नाजबीबी का साहस उसे एक विचारवान व्यक्तित्व दिलाता है जिस से वह सभवतः हर परिस्थितियों में खड़ी रहती है। 
किन्नर के प्रति अपराधी दृष्टिकोण हमारे समाज की देन है की किस प्रकार समाज एक विचार बनता है और उसे व्यक्ति के ऊपर इस तरह हावी कर दिया जाता है की वह उसे ही सत्य मान बैठता है। उसके किसी को देख कर हसने की वस्तु मानना भी इसी के अंदर निहित है।किन्नरों के बारे में अफवाहे भी हमेशा समाज में हावी रहती है जो उन्हें सामन्य मनुष्य न मानने को बाध्य करती  रहती है।  जब पत्रकार मानवी इसके ऊपर दोषारोपण करते हुए पूछती है -किन्नर युवको को बहला -फुसलाकर कब्जे में लेते और फिर ओपरेशन करके हिजड़ा बना देते है।'
इस दोष को ख़ारिज करते हुए महताब गुरु इसका उत्तर देते है -हमारी बस्ती में जल्दी कोई इंसान का पूत घुसता ही नहीं है.... किसी के आते ही हम ओप्रशन कर देंगे पकड़कर ?डॉक्टरी खोल बैठे है क्या ?इसी कोठारिया  में क्या ?यह देखो है हमारा अंग कोई कटा है या अल्ला रसूल भेजा है।' 
संस्कृति, सभ्यता और  राष्ट्र मनुष्य की अमूल्य धरोहर है जिसे हर व्यक्ति अपने मन में सजोये रखता है। जहाँ इनका आभाव  होता है वह राष्ट्र खतरे का शिकार बना रहता है जहां व्यक्ति अपने समस्त जीवन को न्याय अन्याय की कसौटी में नहीं कस पाता। नाजबीबी भी एक किन्नर है जिसमे राष्ट्र प्रेम विद्यमान है। वह उतनी  ही समाज हितेषी किन्नर भी है। मानवी द्वारा जातिगत और धार्मिकऔर  लिंग के आधार पर उठाये गए प्रश्न का नाजबीबी सरलता से जवाब देती है। वह कहती है  जब हम आधारों पर विभेद करते है तब तब हम अपने गौरवपूर्ण  का क्षरण कर किसी के गुलाम या दास बनते है। हारी एकता हमारी शाकलटी है और अलगाव हमारी कमजोरी। नाजबीबी किन्नरों के ईमानदारी और राष्ट्र प्रेम को इन शब्दों में बया करती है - 'सबक लेना है तो हम हिजड़ो से सबक ले। न हम लोग गद्दार है, न ही हम लोग गद्दारी करेंगे। आपस में हम लोग प्रेम से रहते है और हम किसी से नफरत क्यों करे ?हम लोग इंसान थोड़े ही है की आपस में नफरत करेंगे।'
    नाजबीबी का सोना के साथ आत्मीय  चूका है परन्तु पुलिस को इस चीज का पता चलते ही वे वहां से सोना को निकाल कर उद्धार -गृह भेज देते है। जब नाजबीबी को यह पता चलता है की वहां पर लड़कियों के साथ डरा धमकाकर यौन -सम्बन्ध बनाये जाते है तब वह सोना को वहां से बचने तथा इस अन्याय को उजागर करने के  लिए प्रतिबद्ध होती है। मगर निराशा तब हाथ लगती है जब  यह वहां पहुँचती है और सोना खुद इसे पहचानने से इंकार कर देती है। 
इस उपन्यास में नाजबीबी ने किन्नरों के साथ अन्याय के साथ स्त्रियों के साथ हो रहे अन्याय को भी उजागर किया है की किस उनका शारीरिक और मानसिक शोषण होता है। वह अपने को पुरुष अपराधियों से बचाये फिरती है की कोई  चील की नजर वाला पुरुष उन्हें नोचने के लिए तैयार न बैठा हो। वह एकांत में अपने पुरे स्वरुप में उभर कर आ जाता है और नौच डालता है स्त्री के साथ स्त्री अस्तित्व को भी।  नाजबीबी ऐसे प्रश्नो से अवगत है इसलिए वह कहती भी है - 'सोच रही हूँ मैम साहब ,भगवान ने मुझे हिजड़ा बना कर ठीक ही किया है। अगर यह न बनाता तो जरूर मुझे औरत बनाता और तब यह सरे अत्याचार मुझे ही झेलने पड़ते।'
समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार व्यक्ति को आतंरिक और बाह्य दोनों रूप से झकझोर देता है। यहाँ की सभी गलियाँ भ्रष्टाचार की अतिरेक से उपजी है उस से गुजरने वाला हर  व्यक्ति उसी का अनुगामी बन कर भ्रष्टाचार को निरंतर आगे बढ़ाता है। मानवी देश के राजनितिक भ्रष्टाचार से आतंकित है वह नाजबीबी को इसके उतरने  की कही से कुछ बदलाव तो संभव हो क्योकि लोग राजनेता इसलिए बनते है की उनकी आने वाली पीढ़िया भी सुरक्षित हो सके इतना धन संचय किया जा सके। नाजबीबी भी इस बात से अवगत है और वह इस लड़ाई में शामिल होने से पीछे नहीं हटती अपने समाज और देश को सार्थक प्रगति देने के लिए स्वयं को भी आगे करना जरुरी है। वह मन्ना बाबू के खिलाफ  भी पर्चा भी भरती है।   किन्नरों का उत्तराधिकार  ग्रहण करने के लिए कोई व्यक्ति नहीं होता तो वह किस के लिए धन संचय करेंगे। उनका सारा ध्यान सभ्य  अनुशासित समाज का निर्माण करने में लगेगा। 
अंततः यह उपन्यास किन्नरों के व्यथा को उजागर करने वाला उपन्यास है की किस प्रकार नंदरानी ,नाजबीबी बन जाती है। किन्नरों की जीवन दशा के वर्णन के साथ साथ उनके सुधर के उपायों का भी जिक्र है।

मैं भी औरत हूँ :अनसूया त्यागी 

यह एक ऐसा उपन्यास है जिसमे किन्नरों को उचित समय पर दिए गए इलाज से वह सामान्य जीवन जी सकते है तथा अगर वह माँ न भी बन पाए तो भी समाज में उनकी स्वीकृति शादी के लिए हो। उनका भी दिल होता है जो प्रेम -प्रसंग  धड़कता है।  इस उपनेस के अंदर मंजुला और रौशनी नाम की दो बहने होती है। 15 वर्ष की आयु में उनका मासिक धर्म न आना उनके घर वालो के लिए चिंता का विषय बनता है और वह चिकित्सक के पास जाते है। वह पता चलता है की इनका पूर्णतः जननांग का विकास नहीं हो पाया है। मंजुला में गर्भाशय औरयोनि का विकास नहीं हुआ है जबकि रोशनी का गर्भाशय नहीं है और योनि अर्धविकसित है। इन दोनों का ओप्रशन किया जाता है जिससे मंजुला पूर्णतः स्त्रीत्व के गुण को प्राप्त कर लेती है। उसकी विपिन से शादी भी होती है और बच्चा भी होता है। रोशनी  पढ़ने में काफी कुशल है वह हमेशा परीक्षा में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होती है। वह दिल्ली आई.आई. टी  में पढ़ने जाती है। वहां उतरीं हो कर वह एक नामी कंपनी में सीईओ के  नियुक्त हो जाती है उसी कंपनी में कार्यरत ओंकार उस से प्रभावित होकर शादी का प्रस्ताव रखता है। रोशनी अपनी सच्चाई उसके आमने बया करती  जिससे वह मायूस न होकर  प्रस्ताव को निरस्त नहीं करता बल्कि उसे अपनाता है - 'यह  ने तुम्हारे साथ क्रूर मजाक किया है पर फिर भी भगवान को धन्यवाद दो की उन्होंने तुम्हे अच्छा दिमाग ,इतना सुन्दर चेहरा व् इतना सूंदर दिल दिया है। अरे क्या हुआ जो उसने तुम्हे गर्भाशय नहीं दिया।  हम उस,समस्या को आसानी से हल कर सकते है फिर तुम जो कहोगी मैं करने को तैयार हूँ।'
रोशनी को जब बच्चे की आवश्यकता का अनुभव होता है तब वह सोरेगेसी के द्वारा बच्चा करने की सलाह देती है। इसके लिए वह इला सावंत को चुनते है।   

हिंदी साहित्य में किन्नर विमर्श -एक पूर्वपीठिका  साहित्य किसी भी स्थिति की तहों में जाकर समाज का सरोकार उन विमर्शो और मुद्दों से करता है जिस...