फिर विकल है प्राण मेरे -महादेवी वर्मा

फिर विकल है प्राण मेरे -महादेवी वर्मा 


फिर विकल है प्राण मेरे -महादेवी वर्मा 
तोड़ दो यह क्षितिज मैं भी देख लूँ उस ओर क्या है!
जा रहा जिस पंथ से युग कल्प उसका छोर क्या है ?
क्यों मुझे प्राचीर बनकर 
आज मेरे श्वास घेरे। 

सिंधु की निःसीमता पर लघु लहर का लाल कैसा ?
दीप लघु शिर पर धरे आलोक का आकाश कैसा ?
दे रही मेरी चिरन्तनता 
क्षणों के साथ फेरे। 

बिंबग्राहकता कणों को शलभ को चिर साधना दी ,
पुलक से नभ -नभ धरा को कल्पनामय वेदना दी ,
मत कहो हे विश्व झूठे ,
तू अतल वरदान तेरे। 

नभ डुबा पाया न अपनी बाढ़ में भी क्षुद्र तारे ,
ढूँढ़ने करुणा मृदुल घन चीर कर तूफान हारे ,
अंत के तम में बुझे क्यों 
आदि के अरमान मेरे। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

हिंदी साहित्य में किन्नर विमर्श -एक पूर्वपीठिका  साहित्य किसी भी स्थिति की तहों में जाकर समाज का सरोकार उन विमर्शो और मुद्दों से करता है जिस...