यह मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो -महादेवी वर्मा
यह मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो -महादेवी वर्मा
रजत शंख -घड़ियाल स्वर्ण वंशी -विणा -स्वर ,
गये आरती वेला को शत -शत लय से भर ,
जब कल था कंठों का मेला ,
विहँसे उपर तिमिर था खेला ,
अब मंदिर में इष्ट अकेला ,
इसे अजिर का शून्य गलाने को गलने दो।
चरणों से चिह्नित अलिंद की भूमि सुनहली ,
प्रणत शिरो का नक् शिरों अंक लिए चन्दन की दहली ,
झरे सुमन बिखरे अक्षत सित ,
धूप -अर्ध्य -नैवेद्य अपरमित ,
तम में सब होंगे अंतर्निहित ,
सबकी अर्चित कथा इसी लौ में पलने दो।
पल के मनके फेर पुजारी विश्व सो गया ,
प्रतिध्वनि का इतिहास प्रस्तरों बीच खो गया ,
साँसों की समाधी सा जीवन ,
मसि -सागर का पंथ गया बन ,
रुका मुखर कण -कण का स्पंदन '
इस ज्वाला में प्राण -रूप फिर से ढलने दो।
झंझा है दिग्भ्रान्त रात की मूर्छा गहरी ,
आज पुजारी बने ,ज्योति का यह लघु प्रहरी ,
जब तक लौटे दिन की हलचल ,
तब तक यह जायेगा प्रतिपल ,
रेखाओं में भर आभा -जल ,
दूत साँझ का इसे प्रभाती तक चलने दो।
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